शोध आलेख:-
लोक देवता लाला हरदौल जू
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’’
लोक देवता लाला हरदौल के बारे में जानने से पहले हमें उनके वंश एवं उनके पूर्व के इतिहास पर एक नज़र डालना उचित रहेगा। ओरछा राज्य की स्थापना गढ़कुंडार नरेश महाराजा रुद्रप्रताप ने सन् 1531ई.(वैशाख सुदी 13 संवत् 1588विक्रम) में की थी। उसी समय उन्होंने ओरछा दुर्ग का शिलान्यास किया था। लेकिन दुर्भाग्य से उसी साल उनकी मृत्यु हो गयी थी तक उनके सबसे बड़े पुत्र राजकुमार भारतीचन्द्र (1531-1554) ओरछा की गद्दी पर बैठे, किन्तु भारतीचन्द्र के कोई संतान नहीं थी अतः उनकी मृत्यु के बाद उनके अनुज मधुकर शाह जू देव (1554-1592ई.) ओरछा के राजा हुए।
मधुकर शाह जू के बाद उनके ज्योष्ठ पुत्र रामशाह (1592-1605ई.) राजा हुए। राम शाह के अनुज जिन्हें बडौनी (दतिया) की जागीर मिली थी, ‘वीर सिंह जू देव ‘प्रथम’ सन् 1605ई. में तत्कालीन मुगल सम्राट जहांगीर के आदेश पर ओरछा के राजा नियुक्त हुए और रामशाह को तीन लाख रूपया वार्षिक आय की बार (ललितपुर) की जागीर दे दी गई।
वीर सिंह जू देव ‘प्रथम’ की पहली महारानी अमृतकुँवरि से पाँच पुत्र, दूसरी रानी गुमान कुँवरि से तीन पुत्र एवं तीसरी रानी पंचम कुँवरि से तीन पुत्र हुए थे। वीर सिंह जू देव ने अपने जीवन काल में ही अपने पुत्रों को जागीरें बाँट दी थी, ताकि बाद में कोई विवाद न हो। वीरसिंह जू देव की द्वितीय महारानी गुमान कुँवरि के प्रथम पुत्र दिमान ‘हरदौल’ थे। हरदौल को झाँसी के पास ही बड़ागाँव की जागीर मिली थी।
दिमान हरदौल के बाद में विजय सिंह प्रताप सिंह एवं राय सिंह बड़ागाँव के जागीरदार रहे। राय सिंह के आठ पुत्र थे। राय सिंह ने अपनी जागीर को आठ भागों में बाँट दिया था जिसे ‘अष्टगढ़ी’ राज्य के नाम से जाना जाता था। राय ंिसंह के छठवें पुत्र सामंत सिंह को बिजना की जागीर मिली थी। सामंत सिंह के तीन पुत्र अजीत सिंह,जगत सिंह एवं प्राण सिंह थे। सामंत सिंह के बाद में उनके ज्योष्ठ पुत्र सुरजन सिंह जिन्हें सन् 1981ई. में छः गाँवों (बिजना, हनौता, बाँसार, बगरौनी एवं भगौरा) के राज्य की सनद प्राप्त की थी।
सन् 1839ई. में सुरजन सिंह की मृत्यु के बाद उनके ज्योष्ठ पुत्र खाँडेराव (दुर्जन सिंह) राजा हुए। सन् 1850ई. में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद मुकुंद सिंह राजा हुए। राव मुकुंद सिंह के तीन पत्र हीरा सिंह,मर्दन सिंह एवं रतन सिंह थे। बडे़ पुत्र हीरासिंह का निधन उनके पिता के सामने ही हो गया था। हीरा सिंह के के दो पुत्र थे हिम्मत सिंह एवं लक्ष्मण सिंह। सन् 1890ई. में मुकुंद सिंह की मुत्यु हो गयी।
मुकुंद ंसिंह की मृत्यु के बाद उनके मझले पुत्र मर्दन सिंह एव हीरा सिंह के ज्येष्ठ पुत्र हिम्मत सिंह जो रिश्ते में काका-भतीजे लगते थे उनमें गद्दी पाने के लिए विवाद हो गया। चँूकि नियमानुसार हिम्मत सिंह ही राज्य के अधिकारी थे अतः हिम्मत सिंह को ही राजगद्दी दी गई एवं मर्दन सिंह को हिम्मत सिंह के वयस्क होने तक प्रशासक नियुक्त किया।
यहाँ गौरतलब हो कि मर्दन सिंह तत्कालीन ओरछेश प्रताप सिंह जू देव (1874-1930) के साढू भाई थे। इस गद्दी के विवाद को तो सुलझाने के लिए उन्होंने मर्दन सिंह को अपने राज्य में बुलाकर उन्हें समझाते हुए जसवंत नगर की जागीर लगा दी थी।
मर्दन सिंह के बड़े पुत्र पृथ्वी सिंह तथा पृथ्वी सिंह के पुत्र महेन्द्र सिंह वर्तमान ग्राम पंचायत जसवंतनगर के सरपंच रहे है।
दिनांक 15 अगस्त सन् 1947ई .में ब्रिटिश सरकार ने देश को स्वतंत्र घोषित कर दिया तथा इसके साथ ही राजाओं को संधियों से मुक्त कर दिया गया इससे सभी छोटे बड़े राजा पूर्ण स्वतंत्र हो गए। यहाँ स्मरणहीय हो कि सबसे पहले दिनांक 17 दिसंबर सन् 1947ई. को बुन्देलखण्ड की रियासतों में सर्वप्रथम ओरछेश वीरसिंहजू देव ने उत्तरदायी शासन की स्थापना की।
दिनांक-12 मार्च सन्-1948ई. को बुन्देलखण्ड एवं बघेलखण्ड के सभी 35 छोटे बड़े राज्यों को मिलाकर एक संयुक्त प्रांत ‘विन्ध्यप्रांत’ का निर्माण किया गया।
बिजना नरेश हिम्मत सिंह की महारानी से सुप्रसिद्ध मृदंगवादक छत्रपतिसिंह एवं द्वितीय पुत्र सुप्रसिद्ध सर्वोदयी लोकेन्द्र सिंह (लोकेन्द्र भाई) का जन्म सन् 1926 में हुआ तथा मृत्यु सन् 2009ई. में हुई थी।
द्वितीय रानी से विजय बहादुर सिंह का जन्म हुआ। लोकेन्द्र भाई को ‘मझले राजा’ भी कहा जाता था। इस प्रकार से लोकेन्द्र भाई लोक देवता हरदौल जू के वंशज थे।
लोक देवता हरदौल का जन्म एवं जन्म स्थल:-
इतिहासकार डाॅ. हरिमोहन पुरवार के अनुसार ‘लोक देवता हरदौल का जन्म का सूर्यवंशी राजा वीर सिंह जू देव के यहाँ ओरछा में अयोध्या नरेश राम राजा जी के कक्ष के बगल में स्थित रधुवंशमणि मंदिर के बगल के कक्ष में माघ वदी 2 दिन शनिवार रात्रि नौ बजे संवत् 1665वि. में तत्कालीन पटरानी अमृत कुँवरि की कोख से हुआ था।
ओरछा के विश्वविख्यात रामराजा मंदिर के प्रांगण में एक तुलसी चैरा पर एक शिलालेख के हरदौल का जन्म संवत् 1665वि.(सन् 1608ई.) लिखा है।
इतिहासकार स्व.भगवानदास श्रीवास्तव ने हरदौल का जन्म के बारे में ‘ओरछा दस्तरात रिकार्ड’ जिल्द 4,पृष्ठ-55 पर उल्लेख किया अनुसार भी हरदौल का जन्म संवत् 1665वि.(सन् 1608ई.) ही मानते हैं।
हाॅलाकि कुछ विद्वान उक्त स्थान पर जन्म होने की बात नहीं मानते है। वहीं कुछ इतिहासकारों ने हरदौल का जन्म वीर सिंह जू देव की द्वितीय रानी गुमान कुँवरि के द्वारा माना है, उक्त विषय में कुँवर गोविन्द्र सिंह बुन्देला जी ने बुंदेलखण्ड इतिहास परिषद् के ‘हरदौल विशेषांक’ में अपने लेख में इस भ्रम को दूर करनेकी कोशिश की है।
वहीं इतिहासकार डाॅ. काशी प्रसाद त्रिपाठी (टीकमगढ़) एवं श्याम सुंदर दास हरदौल जन्म के संबंध में आचार्य केशवदास रचित ‘वीर चरित्र’ जिनका रचनाकाल संवत् 1664 अर्थात सन् 1607ई. है उसके अनुसार संवत् 1607वि में हरदौल की आयु लगभग 8-10 साल रही होगी।
इसी प्रकार ‘ओरछा स्टेट गजेटियर’ पृष्ठ सं.23 पर और गोरेलाल रचित ‘बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास’ पृष्ट सं. 140 पर हरदौल की माता जी का नाम रानी गुमान कुँवरि ही दिया गया है।
हरदौल के जन्म तिथि के बारे में डाॅ. सुधा गुप्ता की पुस्तक ‘हरदौल गाथा’ के पृष्ठ-41-42 के गीत में लिखा है-
अरे महाराजा कौन घड़िन जनम लये,
सो अरे राजा कौन घड़िनऔतार...।
कै अरे राजा अच्छे घड़िन जनम लये,
अरे लाला पुख्खन लये अवतार।
कै करे राजा साउन सुदी की पूनमा,
दिन भोमवारी रात कै अरे राजा...।।
अर्थात पुष्प नक्षत्र,श्रावण शुक्ल पूर्णिमा दिन भौमवार (सोमवार) की रात में हुआ था।
वहीं सन् 1969ई. में श्री बिहारी के शिष्य संत कवि ब्रजेश ने अपने खण्ड काव्य ‘वीर हरदौल’ में यह लिखा है कि-
‘जागो निशि ग्रीष्म से पावस अँगड़ाइ्र ले
आनन पखारबे घन सावन बुलायकें।
उसी वीर बेला में प्रकटे बुंदेल वीर
रोहनी नक्षत्र,शुक्ल पक्ष मंजु छायके।
कहत ‘ब्रजेश’ दिन नीको गुरूवार दिपै
अष्टमी प्रमान जोग दाहिने बताय कें।
केशव मुनीन्द्र नाम राखों हरदौल लाल
देवतुल्य धरती पर दैहे जस छायके।।
हरदौल के जन्म स्थल के बारे में भी विद्वानों में अनेक मतभेद है। कुछ ओरछा तो कोई दतिया तो कोई ऐरच में उनका जन्म स्थान मानते है किन्तु अधिकांश इतिहासकार उनका जन्म स्थान ओरछा को ही मानते है मतभेद केवल उनकी माता के नाम पर है कि वे कौन है अमृत कुँवरि बडी रानी या फिर गुमान कुँवरि मझली रानी है।
इस संदर्भ में डाॅ. राधेश्याम द्विवेदी जी ने अपने लेख ‘शिव स्वरूप नीलकण्ठ-लाला हरदौल देव’’ में लिखा है कि ‘दीमान हदौल जू अैर बडे भाई जुझार सिंह की जन्मदात्री माताएँ भिन्न थी। हरदौल देव की माता खैरवान की गुमान कुँवरि जू और जुझार सिंह की माँ शाहाबाद की अमृत कुँवरि जू थी।
(संदर्भ- बुंदेलखण्ड के प्रकृति और पुरूष, पृष्ठ- 469)
अधिकांश विदवानों ने कुँवर हरदौल की माता मझली रानी गुमान कुँवरि को ही माना है।
लोक देवता हरदौल का बचपन:-
हरदौल इतिहासकार श्री भगवानदास श्रीवास्तव द्वारा ओरछा रिकार्ड की नकल के अनुसार महाराज वीर सिंह जू देव के जयेष्ठ पुत्र जुझार सिंह का विवाह मेंदवारा के हरीसिंह परमार की सुपुत्री चम्पावती से संवत् 1645विं. ( सन् 1588ई.) में हुआ था। उस मय चंपावती की आयु 16 वर्ष एवं जुझार सिंह की 25 वर्ष थी एक बाद उनके ज्योष्ठ पुत्र बिक्रमाजीत पैदा हुए थे। उक्त रिकार्ड के अनुसार जुझार सिंह के विवाह के 20 साल बाद हरदौल पैदा हुए होगें। तभी तो वे बिक्रमाजीत से 19 साल छोटे कहे जाते है।
वहीं कवि बृजेश ने अपने खण्ड काव्य ‘वीर हरदौल’ के अनुसार जुझार सिंह के विवाह के समय हरदौल की उम्र 6वर्ष थी।
जुझार सिंह की रानी चंपावती ने हरदौल की माता को मृत्यु के समय हरदौल के लालन-पालन करने का वचन दिया था। उसी के अनुरूप जुझार सिंह ने भी हरदौल को बहुत लाड़ प्यार से पाला था। हरदौल भी रानी चंपावती को मातृतुल्य मानते थे एवं जुझार सिंह को पिता तुत्य माना करते थे।
युवावस्था में हरदौल जू बहुत वीर थे उनमें बहुत शौर्य व बल था जिसके परिणाम स्वरूप उन्हें बड़ागाँव एवं ऐरच की जागीरों के प्रबंधन का दायित्व सौपा गया था। धीरे-धीरे अपनी न्यायप्रियता के कारण वे जनप्रिय हो गये।
ओरछा से पहले बुंदेला राज्य की राजधानी रहे गढ़कुंडार के किले में विराजित बुंदेलों की आराध्या माँ भवानी के हरदौल जू परम भक्त थे। उनकी पूजा से प्रसन्न हो कर उन्हें माँ भवानी से बहुत यश प्रप्ति का वरदान मिला था। ऐसा अनेक लोकगीतों में सुनने को मिलता है।
हरदौल का विवाह:-
हरदौल जू के विवाह पर भी अनेक भ्रांतियाँ प्रचलित है कुछ विद्वान तो उन्हें अविवाहित ही मानते है। तो कुछ उन्हेें विवाहित मानते हैं।
सागर की डाॅ. सुधा गुप्ता ने अपनी पुस्तक ‘हरदौल बुन्देली गाथा’’ में लिखा है कि- ‘‘ऐतिहासिक साक्ष्य के अनुसार हरदौल का विवाह हुआ था और उनका एक पुत्र विजय सिंह था।
गोविन्द्र सिंह बुन्देला के अनुसार संवत् 1685वि. में हरदौल का विवाह दुर्गापुर के जागीरदार लाखन सिंह की पुत्री हिमाचल कुँवरि से हुआ था तथा हरदौल की मृत्यु के समय उनके पुत्र विजय सिंह की आयु लगभग चार साल थी। हिमांचल कुँवरि हरदौल के साथ सती हो गई थी और उनके पुत्र विजय सिंह का लालन-पालन हरदौल के अनुज दतिया नरेश भगवान राय ने किया था।
कवि बृजेश ने भी अपने ‘खण्ड काव्य’ वीर हरदौल’ में उनका विवाह होना दर्शाया है। हरदौल की मृत्यु के समय उनकी पत्नी ऐरच से ओरछा आई थी और उन्होंने सती होना चाहा था, लेकिन गर्ववती होने के कारण उन्हें जबरन रोका गया और ऐरच वापस भेज दिया गया था। (सन्दर्भ-पृष्ठ 74-77)।
सन् 1688ई. में ओरछा के राजा भगवन्त सिंह की निःसंतान मृत्यु हो जाने पर रानी अमर कुँवरि ने हरदौल के वंशज उदौत सिंह (1689-1736) को गोद लेकर ओरछा राज्य के सिंहासन पर आरूढ़ किया था और आगे ओरछा राज्य की कुल परम्परा इन्हीं से चली’’। हरदौल जू के वंश से ही बड़ागाँव अष्टगढ़ी की स्थापना हुई थी।
लेखिका रजनी बुंदेला ने बुंदेलखण्ड इतिहास परिषद्,‘हरदौल विशेषांक’ दिनांक 13 नवम्बर सन् 1989 में अपने आलेख -‘बुदेलखण्ड के लोक नायक’ में लिखा है कि- ‘‘ हरदौल की मृत्यु जिस समय हुई उस समय तक हरदौल की उम्र लगभग 23 वर्ष भी न थी। उनकी पत्नी हिमांचल कुँवरि एक चार मास के शिशु की माता थीे।’’
शिकार के शौकीन हरदौल जू:-
हरदौल जू शिकार के बहुत शौकीन थे उनके शिकार के अनेक किस्से प्रचलित है। उन्होंने कई बार शेर का शिकार किया है तथा एक बार घायल भी हो गये थे।
हरदौल जू की वीरता एवं युद्ध वर्णन:-
हरदौल की वीरता से शाहजहां तक डरते थे एक बार शाहजहां ने पहाड़ सिंह,जुझार सिंह, भगवान सिंह राय आदि को दरबार में बुलाया और दीमान हरदौल को मार डालने या जीवित पकड़ कर हाजिर करने को कहा। इस पर शाहजहाँ को कुछ सरदारों ने सलाह दी कि हरदौल की संगठन शक्ति प्रबल है, अतः हरदौल को षडयंत्र पूर्वक विष देकर मारा जाए। यह भी सुनने में आता है कि जुझार सिंह के चापलूसों द्वारा कान भरे जाने पर ही विचलित होकर उन्होंने हरदौल को मारने का षड़यंत्र रखा था। (सन्दर्भ- ओरछा दस्तूरात रिकार्ड जिल्द 2,पृष्ठ 21)
वीर चंपतराय और सूरमा हरदौल ने धामौनी के गौड राजा को मिलाकर देवगढ़ पर आक्रमण किया। घनघोर संग्राम हुआ और इसमें इन बुंदेला वीरों को विजय श्री ने वरण किया। इस प्रकार चैरागढ़ पर बुंदेलों का झंड़ा फहराने लगा। इस घटना से तो शाहजहां आगबबूला हो गया। हरदौल ने अनेक युद्धों में मुगलों को मजा चखाया था।
हरदौल ने वि.संवत 1686(सन् 1629ई.) में अपना शक्तिशाली संगठन बना लिया था। जब शाहजहां को खबर लगी तो उसने बाकी खाँ,फिदाई खाँ, अब्दुला खाँ, महावत खाँ एवं अन्य सरदारों को ओरछा पर आक्रमण करने भेजा था तब उस समय हरदौल ने बाकीं खाँ कोबुरी तरह से हरायाअैर चार मील तक खदेड़ा दिया था। सारी मुगल सेना पराजित होकर भाग खड़ी हुई थी।
हरदौल का विषपान एवं मृत्यु:-
हरदौल जू के विषपान की घटना समय के विषय में भी अनेक विद्वानों में विभिन्न मत है। इतिहासकार भगवान दास श्रीवास्तव ने जिन लूज पेपर्स पर ‘ओरछा दस्तूरात रिकार्ड’ की नोटिंग की थी उसके अनुसार हरदौल की मृत्यु संवत् 1688वि. कुँआर शुक्ल पक्ष 10वीं, रविवार विजय दशमी है।
ठाकुर लक्ष्मण सिंह भी हरदौल की मृत्यु संवत् 1688वि.मानते है। कवि ब्रजेश के अनुसार हरदौल ने संवत् 1688,माघ कृष्ण पक्ष, एकादशी, दिन सोमवार,चित्रा ऩक्षत्र को बिषपान किया था।
उरई के इतिहासकार डाॅ. हरिमोहन पुरवार भी हरदौल की मृत्यु संवत् 1688वि. मानते हैं।
डाॅ.काशी प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार सन् 1622ई. में चैरागढ़ जीतकर लौटे तब प्रतीत राय ने शिकायत की जिसके बाद हरदौल के विषपान की घटना हुई
(संदर्भ-बुन्देलखण्ड का बृहद इतिहास, पृष्ठ-70)
रामराजा सरकार मंदिर में तुलसी चैरा पर लगे शिलालेख पर हरदौल का निधन संवत 1685वि. (सन्1628ई.) अंकित है।
पं. गोरेलाल तिवारी ने भी यही समय संवत 1685वि. माना है। तथा रामचरण हयारण मिश्र ने भी संवत 1685वि.में ही हरदौल की मृत्यु होना मानी है।
हरदौल जू के कुछ चमत्कार:-
1-अदृश्य रूप में विवाह की व्यवस्थाएँ करना -
हरदौल जू ने अपनी बहिन कुंजावती की बेटी के विवाह में शामिल होकर सारी व्यवस्थाएँ देखने का वादा किया था किन्तु विवाह के कुछ दिन पहले ही उनका आत्म बलिदान हो गया तब कुंजावती ने उनकी समाधि पर विलखते हएु उन्हें विवाह में आने की सौंगंध दी थी। तब अदृश्य रूप में उन्होंने बहिन को वचन दिया और समय पर अदृश्य रूप में ही पहुँचकर सारी व्यवस्थाएँ करवाई।
दूल्हें के रूठने पर हरदौल ने उन्हें साक्षात दर्शन भी दिये थे। तभी ये बुन्देलखण्ड में विवाह के समय सबसे पहले उन्हें ही न्यौता दिया जाता है। ताकि वे विवाह में होने वाले अनिष्ट से रक्षा करे।
1-हैजा(महामारी) के प्रकोप से रक्षा करना -
‘‘एक बार दतिया के पास सेंवड़ा से लेकर दतिया तक महामारी (हैजा) का बड़ा प्रकोप हुआ तब प्रतिदिन सैंकड़ों की संख्या में लोग मरने लगे थे। लाशों को ठिकाने लगाने के लिए लोग नहीं मिल रहे थे।
उस समय सेंवड़ा के कुछ परिवार उस विनाश-लीला से बचने के लिए महल बाग के पास बने ’हरदौल के चबूतरे’ के आस पास खुले आसमान के नीचे रहने को विवश हो गये थे। विज्ञान का यह सत्य उस समय धूमिल पड़ गया था कि ‘हैजा एक संक्रामक रोग है’। हरदौल चबूतरे के पास शरण लेने वाले एक भी व्यक्ति को हैजा नहीं हुआ, जबकि अन्य मुहल्लों के लोग मरते रहे और उन्हीं में से बच रहे लोग भाग कर वहाँ शरण ले रहे थे।’’ यह घटना एक चमत्कार ही मानी जाती है।’’
इस घटना का उल्लेख इतिहासकार रमेशचंद श्रीवास्तव की कृति बुंदेलखण्ड- साहित्यक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक वैभव’ में किया गया है। हरदौल जू आज भी बुन्देलखण्ड के हर गाँवों में बहुत ही सम्मान और आदर के साथ लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं आज भी आप हरदौल जू के चबूतरे को हर गाँव में देख सकते है। उनकी वीर गाथा को बुन्देलखण्ड के लोक गीतों जन-जन के द्वारा सुना जा सकता है। उनके बलिदान एवं निश्छल प्रेम की कहानी की लोग आज भी मिशाल देते है।
हरदौल के चरित्र पर अनेक कवियों ने खण्ड काव्य लिखे हैं और हरदौल चरित्र पर बुन्देलखण्ड में नाटक खेले जाते है उनका मंचन किया जाता है तथा ‘राछरे’ गायी जाती हैं।
आज भी बुन्देलखण्ड में होने वाले विवाहों में सबसे पहले उन्हें ही न्यौता दिया जाता है ताकि वे अदृश्य रूप में उपस्थित होकर विवाह में होने वाले अनिष्ट को दूर करे एवं विवाह में कोई अड़चन न आये साथ ही दोनों परिवार की रक्षा करे।
हरदौल जू के बारे में तो जितना भी लिखों उतना कम है। हमने तो केवल बहुत ही संक्षिप्त लिखा है जो कि सागर में एक बूँद के सामान है। उनकी कीर्ति और यश सदियों तक यहाँ रहेगा। लोक देवता हरदौल जू को हमारा शत् शत् नमन बंदन है।
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साभार संदर्भ ग्रंथ:-
1- ‘बुन्देलखंड का बृहद इतिहास’-लेखक- डाॅ. काशीप्रसाद त्रिपाठी
2- ‘पं.श्रीयुत रामसहाय तिवारी स्मृति ग्रंथ’ - संपादक-दशरथ जैन
3- ‘विन्ध्यप्रदेश के राज्यों का स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास’- श्री श्यामलाल साहू
4- ‘ओरछा स्टेट गजेटियर’ पृष्ठ सं.23
5- ‘बुन्देलखण्ड का संक्षिप्त इतिहास’ लेखक- गोरे लाल तिवारी, पृष्ठ सं.-140
6- ‘हरदौल गाथा’ लेखिका- डाॅ. सुधा गुप्ता, पृष्ठ सं.-41-42
7- ‘बुंदेलखण्ड-साहित्यक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक वैभव’-लेखक-रमेशचंद श्रीवास्तव
8- ‘लोकेन्द्र भाई गौरवग्रंथ’-संपा.मंडल-हरिविष्णु अवस्थी,रवीन्द्र सिंह,गौतम,दयाराम नामदेव, पृष्ठ सं.-29-30
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शोधालेख-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका
संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
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