Rajeev Namdeo Rana lidhorI

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

Gazal-घनश्याम हो गये-राजीव नामदेव ''राना लिधौरी,टीकमगढ़,(म.प्र.)

Gazal-krishan janashtmikrishanaआप सभी को मेरी तरफ से एवं साहितियक संस्था म.प्र. लेखक संघ जिला इकार्इ टीकमगढ़ की तरफ से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर ढेर सारी हार्दिक शुभकामनाएं।
पेश है अपनी एक स्वरचित ताजा ग़ज़ल-

ग़् ज़ल--घनश्याम हो गये

जो रहीम ओर राम हो गये।
उनके ऊँचे नाम हो गये।।

प्यार को जिन्होने समझा है ।
वो ही यहाँ घनश्याम हो गये।।

लक्ष्य को लेकर बढ़े जो आगे।
उनके पूरे काम हो गये।।

देखो नेता बनते ही वो।
कितने ऊँचे दाम हो गये।।

'राना, आज की दुनिया में तो ।
कभी सुबह ही शाम हो गये।।
               
-राजीव नामदेव ''राना लिधौरी,टीकमगढ़,(म.प्र.)
संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र..लेखक संघ
नर्इ चर्च के पीछे,शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन कोड-472001
मोबाइल न.-9893520965


बुधवार, 21 अगस्त 2013

Rrakshabandhan-kavita

Gazal-krishan janashtmiRrakshabandhan-kavitaकविता-''रक्षाबन्धन
रक्षाबंधन पर बहन,
राखी की डोर से,
खींच लाती है
भार्इ को दूर-दूर से,
बाँध देती है उसे
अपनी स्नेह डोर से,
भार्इ भी पास आ ही जाता है,
चाहे हो वह
दुनिया के किसी भी छोर से,
बहन तकती रहती है
भार्इ का रस्ता बडे भोर से
भार्इ भी गिफ्ट लाता है
खूब जोर शोर से
देख भार्इ बहन का पवित्र प्रेम,
माता-पिता के मन
नाच उठते है मोर से।
कामना करते है वे
उनकी खुशियों की चहुओर से,
रक्षाबन्धन का त्यौहार शुभ-मंगल हो
हमारी ओर से, हमारी ओर से...।
    - राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
    संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
    अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
    शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़(म.प्र.)
    भारत,पिन:472001 मोबाइल-9893520965

सोमवार, 19 अगस्त 2013

viyang-'हम हैं जे.एच.डी.

  शहर में बढ़ते झोलाछाप डाक्टर को समर्पित यह व्यंग्य-  
      व्यंग्य:- 'हम हैं जे.एच.डी.
                   (व्यंग्य-राजीव नामदेव 'राना लिधौरी)
               
                आजकल हर शहर में आपको पी.एच.डी. से दोगुनी संख्या में जे.एच.डी. धारी साहित्यकार जरूर मिल जाएंगे। नगर में कुछ साहित्यकार सेवानिवृतित के बाद अचानक अपने नाम के आगे डा. लिखने लगे तो,मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि क्या शासन ने इन्हें रिटायर्ड  होने पर विदार्इ स्वरूप स्मृति चिन्ह के समान 'डा. की उपाधि दे दी है या फिर इन्होंने अपनी पढ़ार्इ की दूसरी पारी (क्रिकेट की तरह) फिर से एम.ए. (मास्टर डिग्री)के बाद आगे शुरू कर डाक्ट्रेट कर ली है। खोज करने पर पता चला कि उन्होंने पी.एच.डी.नहीं वलिक जे.एच.डी. जरूर की है। नहीं समझे आप जे.एच.डी. का पूरा एवं सही अर्थ होता है 'झोलाछाप है डाक्टर।
                कहीं से बनारस,प्रयाग आदि स्थानों से आयुर्वेद में वैध विशारद,आयुर्वेद रत्न,आर.एम.पी. जैसी कोर्इ उपाधि पैसों की दम पर हासिल कर ली है और फिर बडे़ ही शान से अपने नाम के आगे डाक्टर लिखने लगे। भर्इ ये डा. पहले से लिखते तो भी कुछ हद तक बात ठीक लगती लेकिन अचानक उम्र के इस पड़ाव में सठियाने के बाद लिखने लगे तो बड़ा अजीब लगता है। जबकि हकीकत में ऐसे लोग अपने नाम के साथ वैध,हकीम आदि ही लिख सकते हैं। ना कि डाक्टर। मजे की बात तो यह है कि इन तथाकथिक डाक्टरों को शहर तो क्या गाँव के लोग भी झोलाछाप डाक्टर के असली नाम से ही जानते,मानते और पुकारते हैं।
                कुछ ने तो वाकायदा घर में ही कुछ जड़ी वूटियाँ अपने ड्राइंग रूम में सजाकर 'क्लीनिक खोल लिया है,भले ही ये स्वयं के सर्दी जुखाम तक का इलाज न कर सके और सरकारी अस्पताल में खुद अपना इलाज कराने जाये,ये अन्दर की बात है। लेकिन मरीजों के दमा,कैंसर,एडस से लेकर खतरनाक से खतरनाक बीमारियों का इलाज करने का दावा करते हैं। ऐसे जे.एच.डी.एक तीर से दो निशाने साधते हैं। एक तो क्लीनिक खोलकर बैठ गए,कोर्इ न कोर्इ मुर्गा तो पाँच-छ: दिन में फस ही जाता है। नहीं फसा तो कोर्इ यदि भूल भटके से इनके घर किसी अन्य आवश्यक कार्य से पहँुच गया तो समझो गया काम से।
                उसे देखकर यदि  वह मोटा हुआ तो शुगर,बी.पी. या हार्ट आदि की बीमारी बताकर डरा देंगे और कहीं वह दुबला हुआ तो उसे बुखार,पीलिया,या टी.बी. जैसी कोर्इ खतरनाक बीमारी बता कर डरा देते हैं और कहीं धोखे से शरीर में कोर्इ गाँठ या सूजन ही दिखार्इ दी तो वे इसे फौरन कैंसर बताकर उसका बी.पी. तक हार्इ कर देते हैं। यदि वह आदमी इत्तेफाक से सामान्य हुआ तो भी वे उसका चेहरा ऐसे घूरकर देखेगे जैसे कालेज में कोर्इ लड़का किसी खूबसूरत नर्इ लड़की को देखता है। फिर अचानक बहुत गंभीर मुद्रा बनाकर कहने लगेंगे कि तुम्हारा चेहरा कुछ मुरझाया सा लग रहा है, देखो ? गाल कैसे पिचक गये हंैं। तंबाखू,गुटका,शराब आदि का नशा करते हो क्या ? तुरंत बंद कर दो। अब इन्हें कौन समझाये कि आज लगभग अस्सी प्रतिशत बड़े तो क्या बच्चे तक पाउच संस्कृति की चपेट में फंस चुके हैं तो स्वाभाविक है कि वे सज्जन भी खाते हो। उनके हाँ भर कहने की देर होती है, फिर तो उनकी सोर्इ हुर्इ आत्मा जाग जाती है और पूरे चालीस मिनिट तक नान स्टाप 'नशा मुकित की कैेसेड़ चल जाती है और उसका वजन एवं बी.पी. तक नाप देते है और फिर जबरन अपनी सलाह देकर उसे इतना भयभीत कर देते हैं। कि वो बेचारा दोबारा उनके घर तो क्या उस गली से भी कभी गुजरने से तौबा कर लेता है। वैसे इन लोगों के लिए एक कवि ने क्या खूब लिखा है-जबसे ये झोलाछाप डाक्टरी करने लगे, तब से देश के बच्चे अधिक मरने लगे।
असली लाभ उन्हें साहित्यकार होने के कारण अपने नाम के आगे डा. लिखने से असली डा. (विदवान) की श्रेणी में आ जाते हैं अब दूसरे शहर के लोगों को क्या पता कि ये मेटि्रक पास पी.एच.डी. है अथवा जे.एच.डी. है। मजे की बात तो यह है कि शहर के जो असली पी.एच.डी. धारी विदवान साहित्यकार हैं वे भी इन जैसे तथाकथिक स्वयंभू डा. का विरोध तक नहीं करते हैं शायद वे उनके रिश्तेदार हो या बिरादरी के हो या हो सकता है कि वे उनके प्रिय चमचे चेले हो,इसलिए वे चिमाने (मौन) रहते हैं। अभी हाल ही में शहर में एक बड़ा साहितियक आयोजन हुआ उसमें जो आमंत्रण कार्ड छपे उसे यदि एक वार आप भी देख लेते तो आपको भी एक बार हँसी जरूर आती । उसमें असली पी.एच.डी. धारी साहित्यकार है उनके नाम के आगे डा.लिखा था और नाम के अंत में कोष्टक में पी.एच.डी. भी लिखा था और जो जे.एच.डी.टाइप थे उनके नाम के आगे तो सिर्फ डा.लिखा था,किन्तु नाम के बाद कुछ नहीं लिखा गया था,आप स्वयं सोच लें कि बे किसके एवं किस टाइप के डाक्टर हैं। मैंने जब एक असली पी.एच.डी.धारी को वह कार्ड दिखाकर पूँछा कि ऐसा क्यों हैं तो उन्होंने यही कहा कि इसी से तो पढ़ने वालो को पता चल जाता है कि कौन असली और कौन नकली है। मैंने कहा-धन्य हैं आप,क्या नकली के सामने भी डा. लिखना जरूरी था, वे बोले नहीं,यह हमारी मजबूरी थी।
                यदि कोर्इ जे.एच.डी.गाँव में अपना दवाखाना खोलकर किसी तरह अपनी जीविका चलाये तो बात ठीक लगती है किन्तु शहरों(जिलों) में एक साहित्यकार जो विदवान की श्रेणी में आता है,वह अपने नाम कमाने के चक्कर में जबरन नकली डा. लिखता फिरे तो बहुत ही शर्म की बात है। ऐसे लोगों को निराला,पंत,पे्रमचन्द,आदि साहित्यकारों से सीखना चाहिए कि क्या वे डा. थे और गुप्त जी को तो एक विश्वविधालय ने पी.एच.डी.की उपाधि तक दे दी थी किन्तु उन्होंने तो कभी भी अपने नाम के आगे डा. नहीं लिखा। आज इतने वर्ष बाद भी इन सातियकारों का नाम बड़े ही आदर के साथ लिखा व लिया जाता है। उनका स्थान उस समय के असली पी.एच.डी. करने वाले साहित्यकारों से कहीं ऊँचा था।
                यूँ तो नाम कमाने का अपना तरीका होता है। विदवान लोग अपने सदकर्मो से विख्यात होकर नाम कमाते हैं तो वहीं चोर डाकू,चुरकुट एवं बदमाश आदि कुख्यात होकर अपना नाम कमा लेते हैं। धन्य हैं ऐसे डा. जो साहित्य में वायरस की तरह घुसकर साहित्य का 'सा खाकर उसकी हत्या करने में तुले हैं। जाहिर सी बात है कि हम जैसे बिना डाक्टर धारी साहित्य सेवी साहित्यकारों को इस कृत्य पर घोर निंदा करने का मूलभूत अधिकार तो होना ही चाहिए,भले ही ये नहीं सुधरें, किन्तु जब हम सुधरेगे तो जग सुधरेगा।
                काँच कितना ही तरास लिया जाये,लेकिन असली हीरे की बराबरी कभी नहीं कर सकता। जौहरी तो फौरन ही इनकी पहचान कर दूध में मक्खी की तरह निकालकर फेंक देता है। अंत में दो पंकितयाँ इन्हें समर्पित हैं-
                हमाये सामने ही लिखवौ सीखौ और हमर्इ खौ आँखे दिखा रय।
                नकली डाक्टर वनकें हमर्इ खौ वे साहितियक सुर्इ लगा रय।।
                   

                                 राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
                                   संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
                                   अध्यक्ष 'म.प्र. लेखक संघ         
                                शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
                                     भारत,पिन:472001 मोबाइल-9893520965

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सोमवार, 12 अगस्त 2013

indian flag gazal-मेरी जान तिरंगा


ग़ज़ल-मेरी जान तिरंगाindian flag gazal-मेरी जान तिरंगा

देश की है शान मेरी जान तिरंगा ।
न हिन्दू न इसार्इ,मुसलमान तिरंगा ।।

झुकने न देंगे हम कभी तन भी निसार है।
कितने हुए तेरी शान पे कुरबान तिरंगा ।।

बँटने न देंगे देश चाहे जान भी जाये ।
दुश्मन के लिए मौत का फरमान तिरंगा ।।

आपस में भार्इ चारा हो हिन्दोस्तान में ।
हंै अज़मते इन्सान की पहचान तिरंगा ।।

है नौजवान 'राना क़दम पीछे न हटे।
सीमा का हमेशा ही निगहवान तिरंगा।।

    राजीव नामदेव राना लिधौरी,टीकमगढ़

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा (कविता) 15 August

व्यंग्य कविता-'झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा (कविता)
बिना नोट के चले काम न,बिना सोर्स के दाल गले न।
रिश्वत का खेल सारा,झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा।।

देश का ऊँचा नाम करेंगें,नोटों से घर बैंक भरेंगें।
भारत देश है हमको प्यारा, झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा।।

एम.ए.पास,कम्प्यूटर पास,न लगी नौकरी मिला न सोर्स।
लगता ये बेरोजगारी का मारा,झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा।।

ठाकुर,पंडि़त र्इद मिले हैं,भूल गये वो सब गिले हैं।
वोटों को है,सब भार्इ चारा,झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा।।

बिजली का है संकट भारी,तेल पे है रोज मारा-मारी।
पाकिस्तान है हमसे हारा,झण्ड़ा ऊँचा रहे हमारा।।

       राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
        संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
        अध्यक्ष-म.प्र. लेखक संघ
         शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
          पिन:472001 मोबाइल-9893520965

'आकांक्षा' कविता-राजीव नामदेव 'राना लिधौरी

आकांक्षा  कविता

मैंने 'आकांक्षा की थी कि
मेरी कोर्इ 'आकांक्षा न हो,
लेकिन,र्इश्वर ने ही मुझे दी
एक सुन्दर सी 'आकांक्षा,
मैं जीवन भर,
उस 'आकांक्षा को
पूरा करने के लिए,
अपनी कुछ 'आकांक्षा को,
सीने में दबा गया।
लेकिन, फिर भी,
मेरी 'आकांक्षा बढ़ती गयी,
ठीक उसी मंहगार्इ की तरह
एक दिन मेरी 'आकांक्षा,
पूरी हो गयी,
तब,फिर एक नयी
'आकांक्षा ने जन्म लिया।
यदि नहीं होती,
मेरी यह 'आकांक्षा।
तो,मेरा जीवन कैसे कटना,
नीरस लगता,
मुझको ये संसार।
कैसे पाता, मैं,
जीवन का यह प्यार।।

    अर्थ-'आकांक्षा
     1-अपनी लड़की नाम।
     2-ख्वाहिश, र्इच्छा।।
                कवि- राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
                        संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
                     अध्यक्ष म.प्र. लेखक संघ
                  शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
                भारत,पिन:472001 मोबाइल-9893520965