Rajeev Namdeo Rana lidhorI

रविवार, 31 दिसंबर 2023

Bundelkhand ka itihas - samgarh By Ramgopal raikwar,vijay mehra and Rajeev namdeo rana lidhori Tikamgarh

1-जमड़ार: उद्गम से संगम तक 
 2-नरवर चढ़ै न बेड़नी........... (यात्रा वर्णन) 

  1-जमड़ार: उद्गम से संगम तक 
घुमक्कड़ी दिनांक 25.11.2023 शनिवार- 

बुन्देलखण्ड के ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात कुण्डेश्वर जमड़ार नदी के तट पर स्थित होने के कारण जमड़ार नदी का नाम किसी से अपरिचित नहीे है। बहुत दिनों से इसके उद्गम के बारे में जानने की इच्छा थी सो आज की घुमक्कड़ी में जमड़ार के उद्गम स्थल तक जाने का मन था। जिसके बारे में सुना था कि मड़ावरा के निकट कहीं है। साथ ही समय रहा तो सीयाडोणी (सीरौन) जाने की भी इच्छा थी। 
             नामकरण-कारण - जमड़ार नदी के बारे में कई लोक और भद्र मान्यताएँ प्रचलित हैं। लोक मान्यता के अनुसार इसमें स्नान करने से यम की डाढ़ से मुक्ति मिल जाती है। हो सकता है इसी लोक मान्यता के कारण इसे जमबिड़ार (यम को भगानेवाली) कहते हों जो बाद में जमड़ार हो गया हो। आचार्य दुर्गाचरण जी शुक्ल के अनुसार जामनी या जामनेर नदी का पौराणिक नाम ‘जम्बुला’ तथा इसकी सहायक नदी जमड़ार का पौराणिक नाम ‘यमदंष्टा’ है। यमदंष्टा शब्द ही बिगड़कर कालान्तर में जमडाढ़ और अंततः जमड़ार बन गया। माना जाता है कि प्राचीन समय में इन नदियों के पास ‘जृम्भला’ नामक राक्षसी रहती थी। उसका नाम सुनकर ही गर्भवती स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे। 
           आचार्य शुक्ल जी के अनुसार प्रसूता स्त्री की प्रसव-पीड़ा कम करने या सुरक्षित और कठिनाई रहित प्रसव के लिए थाली में निम्नाकिंत मंत्र लिखकर उसे पानी में घोलकर पिलाया जाता था। पुरातु जम्बुलातीरे जृम्भला नाम राक्षसी। तस्याः स्मरेणमात्रेण विषल्य गर्भिणी भवेत।। यह भी संभव है कि बाढ़ और तेज प्रवाह के समय इसे पार करना यम की डाढ़ (मौत के मुँह) में जाने जैसा हो इसलिए इसे जमडाढ़ कहते हों जो मुख सुख के कारण जमड़ार हो गया हो। अस्तु, पाठकगण नामकरण का जो भी कारण सटीक लगे, मान सकते हैं।        
           खोजबीन- रास्ते में बावरी के पास एक ग्रामीणजन से पूछा तो उन्होंने भी बताया कि जमड़ार मड़ावरा के पास एक बँधिया से निकलती है। सैदपुर के कमलसिंह (जिनकी दुकान पर मैं प्रायः रुकता हूँ) ने अंदाज से बताया कि गिरार रोड पर किसी गाँव के पास जमड़ार नदी निकली है। गिरार रोड पर पता चला कि जमड़ार नदी का उद्गम मड़ावरा (जिला ललितपुर) कस्बे के पास महरौनी रोड पर मण्डी के पास ही है और जमड़ार का मूल माने जानेवाले नाले पर एक पुल बना है। सो वापस लौटना पड़ा। उद्गम - जमड़ार का उद्गम स्थल रनगाँव और साढ़ूमल ग्रामों की सीमा पर रोड के किनारे ‘इमला बाबा’ के पास मतवारा के एक नाले से माना जाता है जिसमें आस-पास के खेतों का पानी सिमटकर नाले का रूप धारण कर लेता है। इस नाले पर एक बड़ा-सा बँधान या बँधिया बनी है जिसे मलखान का बंधा कहते हैं। ये सब स्थान जमड़ार नदी का उद्गम क्षेत्र हैं। उद्गम स्थान देखकर फिर गिरार रोड पर जाना पड़ा क्योंकि सीरौन जाने का रास्ता वहीं से जाता है। पर सीरौन की यात्रा से पहले आप लोगों को जमड़ार की उद्गम से लेकर संगम तक की जमड़ार यात्रा करा देना चाहता हूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे। विकास - बँधान के पास कुछ और नालों के मिलने से बनी कुछ बड़ी जलधारा जमड़ार नदी के रूप में केवलारी ग्राम जा पहुँची है। 
           सन् 2017 में यहाँ ‘जमरार’ बाँध बना दिया गया है। अपने पूर्ण भराव पर जमरार बाँध की झील बहुत ही सुन्दर दिखाई देती है। भराव क्षेत्र में जल में डूबे सूखे-अधसूखे पेड़ों पर बैठे बगुले और अन्य पक्षी देखते ही बनते हैं। केवलारी के बाद जमड़ार घाट खिरिया और अस्तोन ग्रामों के बीच से बहती हुई नीमखेरा के पूर्व में पहुँचती है। बीच में इसके पास पांड़ेर और नचनवारा ग्राम भी बसे हैं। 
              कुण्डेश्वर के पास इसके दाँए तट पर जमड़ार ग्राम बसा है। पहाड़ीतिलवारन की ओर से एक बड़ा-सा ‘उरदौरा’ नाला इसमें आकर मिलता है। जमड़ार नदी कुण्डेश्वर में सड़क पुल के बाद और उषा कुण्ड के पहले दो धाराओं में बँट जाती है। एक पतली जल धारा सिद्ध टेकरी के पीछे से बहती हुई ‘अजयपार की दहर’ (अजय अपार हृद) के सामने जामनी नदी में मिल जाती है। दूसरी मुख्य जलधारा उषा कुण्ड में गिरकर एक छोटा-सा प्रपात बनाती है। 
              उषा की साधना स्थलीः कुण्डेश्वर- लोक मान्यता है कि जमड़ार और जामनी के संगम और जमड़ार की एक शाखा के टापू पर स्थित ‘खैराई वन’ (खदिर वन) के दूसरी ओर जामनी नदी के बाएँ किनारे पर बसा बानपुर बाणासुर की राजधानी था। बाणासुर की पुत्री उषा खैराई से आकर जमड़ार नदी द्वारा बनाए गए एक गहरे कुण्ड में भगवान शिव की साधना करती थी। उषा के आने पर कुण्ड फटकर दो भागों में बँट जाता था जिससे उषा कुण्ड के भीतर प्रवेश कर भगवान शिव की आराधना में प्रातःकाल तक लीन हो जाती थी। 
                 एक दिन संदेह होने पर बाणासुर ने उषा का पीछा किया पर वह कुण्ड में प्रवेश नहीे कर सका। उषा के कुण्ड से बाहर आने पर बाणासुर ने इसका रहस्य पूछा तो उषा ने बताया कि कुण्ड में भगवान शिव का निवास है और वह उनका पूजन करने ही यहाँ आया करती है। यह जानकर बाणासुर ने भगवान शिव के दर्शन पाने के लिए एक पैर पर खड़े होकर घोर तपस्या की। उसके तप से प्रसन्न होकर शिव जी ने उसे दर्शन दिए और वहीं शिवलिंग के रूप में स्थित हो गए। कालान्तर में उनके पुनः प्रकट होने की कथा से पाठकगण परिचित ही हैं। कुण्डेश्वर मंदिर आज एक प्रसिद्ध तीर्थ है। शिवरात्रि और मकर संक्रांति के विशाल मेलों के अतिरिक्त सोमवार, श्रावण मास और अन्य त्योहारों के अतिरिक्त नित्य ही बड़ी संख्या में दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं। संगम - जमड़ार के ‘उषा-कुण्ड’ के पास एक चालीस फुट ऊँची चट्टान पर एक सुन्दर कोठी का निर्माण महाराजा प्रतापसिंह ‘बब्बा जू’ ने कराया था। इसे कुण्ड कोठी कहते हैं। 
          महाराजा वीरसिंह जू देव ‘द्वितीय’ इसे ‘ईगल नेस्ट’ या ‘गरुड़-वास’ कहते थे। सन् 1937 से सन् 1952 तक साढ़े चौदह साल इस कोठी में दादा पं. बनारसीदास चतुर्वेदी रहे। आजकल इसमें ‘पापट संग्रहालय’ स्थापित है। कुण्ड के कृत्रिम जलप्रपात के रपटे के नीचे छह छिद्रों से पानी की धार कुण्ड में गिरती है। इसे देखकर आचार्य वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने इसे ‘षडानन प्रपात’ का नाम दिया था। वृद्धजन बताते हैं कि इस कुण्ड में बड़ी-बड़ी मछलियाँ थीं जिन्हे राज्य की ओर से आटे की गोलियाँ बनाकर खिलाई जाती थीं। 
              रपटे के दूसरी ओर ‘सिद्ध टेकरी’ है। जिसके बारे में कई चमत्कार कथाएँ प्रचलित हैं। खैराई वन को बनारसी दास जी ‘मधुवन’ कहते थे। आज भी इसमें हिरण, चीतल, नीलगाय, शूकर, लाल और काले मुँहवाले बंदर, मोर आदि सहित बड़ी संख्या में अजगर विचरण करते देखे जा सकते हैं। इस खैराई वन में चंदन, खैर (कत्था), पारस-पीपल, बेल, सागौन, केम, पलाश, सियारी (शेफाली) और अर्जुन (कवा) आदि के पेड़ हैं।               राजाशाही काल में यहाँ कत्था भी बनाया जाता था। कुण्ड के बाद कुछ आगे एक रमणीक स्थान है जिसे ‘अमरनाथ’ कहते हैं। खैराई के उत्तर-पश्चिम में जमड़ार नदी की मुख्य धारा भी बरी घाट के आगे जामनी नदी से मिल जाती है और इस तरह अपनी यात्रा पूरी करती है। 
      (संदर्भ- सिद्धतीर्थः श्री कुण्डेश्वर धाम, लेखक पं गुणसागर ‘सत्यार्थी’) अगले भाग में जैन क्षेत्र सीरौन -रामगोपाल रैकवार
नरवर चढ़ै न बेड़नी........... (यात्रा वर्णन) -रामगोपाल रैकवार

              घुमक्क्ड़ी दिनांक 09.12.2023: ऐतिहासिक उपन्यास सम्राट वृन्दावनलाल वर्मा के सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास ‘मृगनयनी’ में दी गईं बुन्देलखण्ड में प्रचलित ये पंक्तियाँ ‘‘नरवर चढ़ै न बेड़नी, बूँदी छपै न छींट। गुदनौटा भोजन नहीं, एरच पकै न ईंट’’ दीर्घ काल से स्मृति पटल पर अंकित थीं तो इन पंक्तियों से जुड़े नरवर किले की एक अनदेखी छवि भी मानस पटल पर अक्सर उभर आती थी। 
            इस मानस छवि को साकार करने का अयाचित आमंत्रण 4-8 दिसम्बर को भोपाल में आयोजित कार्यशाला में मिला तो कुछ समस्याओं के रहते हुए भी उससे इंकार न कर सका। वैसे भी आमंत्रण औपचारिक न होकर प्रबल आत्मीयता से संपृक्त हो तो ‘तो कोई कैसे करे इंकार’ वाली स्थिति मेरे साथ रहती है। मेरे पुराने कार्यशाला सहयोगी और मित्र मनीष जी जैन (शिवपुरी) के पैतृक निवास ‘नरवर’ में नौ दिसम्बर को शान्ति पाठ का आयोजन था। उन्होंने कार्यशाला में उपस्थित और अनुपस्थित सभी महानुभावों और महानुभावाओं को आमंत्रित किया पर मेरे, विजय शर्मा और लोकेश जी (सपत्नीक) के सिवा विभिन्न कारणों से अन्य कोई उसे स्वीकार नहीं कर पाया। (बहन रामसेवी भी सम्मिलित होना चाहती थीं पर उन्हें कुछ बाधाएँ थी। वैसे भी देर रात ग्वालियर पहुँचना फिर सुबह नरवर आना सरल नहीं था। वैसे तय यही हुआ कि वे सुबह डबरा आकर विजय-परिवार के साथ नरवर आ जाएँगीं।) मनीष जी ने भी देर नहीं की और तत्काल 8.12.23 की रात में एक स्लीपर बस में हम लोगों की सीट सुरक्षित करवा दी। 
                  अस्तु, आठ तारीख को रात 10 बजे भोपाल से शिवपुरी के लिए प्रस्थान और सुबह लगभग 5 बजे हम वहाँ के एक शानदार होटल में ‘चैक इन’ कर चुके थे। जहाँ हमें दो घण्टे अपनी रात की आधी-अधूरी नींद की कुछ क्षतिपूर्ति करने और ब्रेकफास्ट करने के बाद कार द्वारा दोपहर तक नरवर पहुँचना था। साथ ही विजय जी द्वारा बनाए गए कार्यक्रम के अनुसार रास्ते में हमें सिंध नदी पर निर्मित अटल सागर बाँध (मढ़ीखेड़ा) को देखना था और टपकेश्वर महादेव के दर्शन करने थे। कुछ सामान्य से विलम्ब के बाद हम तीनों ( डॉ.लोकेश खरे, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती माधुरी और लेखक) नरवर गढ़ पर चढ़ाई करने करने के लिए चल पड़े। अटल सागर बाँध (मढ़ीखेड़ा) - शिवपुरी से अटल सागर की दूरी लगभग 35 किमी है। नरवर मार्ग पर दाई ओर दो किमी की दूरी पर सिंध नदी पर बना यह बहुउद्देशीय बाँध इस अंचल का सबसे बड़ा बाँध है जो सिंचाई, जल विद्युत और पेयजल की आपूर्ति के लिए 2008 में बनकर तैयार हुआ था। इसकी 20-20 मेघावाट की तीन यूनिटों में 60 मेघावाट बिजली बनाने की क्षमता है। बरसात के दिनों में गेट खुलने पर इसे देखने भीड़ उमड़ पड़ती है। फिलहाल इस साल यह पूरा नहीं भरा है। गेट खुलने पर उद्यान के ऊपरवाले व्यू प्वांइट से अच्छा दृश्य दिखाई देता होगा पर अभी ऐसा कुछ नहीं था। 
              वहाँ से हम बाँध के ऊपर आए और कुछ क्या ढेर सारे फोटोग्राफ्स लिए जैसा कि ऐसे स्थानों पर लिए ही जाते हैं। धुंध होनेे कारण कितने साफ आते हैं यह बाद में देखेंगे। टपकेश्वर महादेव- बाँध देखने के बाद मुख्य सड़क पर वापस आकर हम नरवर की ओर बढ़े। सिंध नदी घूमकर हमारे रास्ते में आ गई थी पर बाधक नहीं बनी क्योंकि उस पर पुल बना था। पास में ही विद्युत उत्पादन संयंत्र है। सिंध नदी हमारे बाईं ओर थी और उसका निर्मल कल-कल बहता जल तथा किनारों पर हरी-भरी वृक्षावलि अत्यंत मनमोहक दृश्य का निर्माण कर रही थी। अगर पाठक इसे अतिशयोक्ति न मानें तो सिंध नदी की यह घाटी कश्मीर की सिंध नदी (सिंधु नदी दूसरी है) की घाटी से कुछ कम रमणीक नहीं थी। नदी की कल-कल बहती धारा को देखकर माधुरी की इच्छा तो कुछ देर उसके किनारे बैठने की थी। 
              नदी की ओर निगाह होने से ह़म टपकेश्वर मंदिर वाला रास्ता छोड़ आगे बढ़ गए तभी मेरी नज़र एक पुराने बोर्ड पर पड़ी जिस पर टपकेश्वर महादेव लिखा था। मैंने ड्राइवर मुकेश जी को बताया। हमने रुककर वहाँ से गुजर रहे एक सज्जन से पता किया तो उन्होंने बताया कि हम कुछ आगे आ गए हैं। खैर लौटकर हम बगल की पहाड़ियों पर डामरवाली एक सँकरी सड़क से तीन-चार सौ मीटर ऊपर गए जहाँ से एक सीढ़ीदार रास्ता टपकेश्वर महादेव गुफा-मंदिर की ओर गया था। नीचे एक शिला पर भगवान शिव की मानवाकृति स्थापित है। जब हम लोग सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे तभी शिवपुरी के डीपीसी महोदय अपने कुछ साथियों के साथ नीचे उतरते मिले। ये लोग भी मनीष जी के यहाँ आमंत्रित थे और नरवर जा रहे थे। उनके दो-तीन साथी एक बार फिर मंदिर जाने और मार्गदर्शन के लिए हमारे साथ साथ हो लिए। 
                सीढ़ियों की शुरुआत में ही एक बोर्ड लगा है जिस पर यहाँ आनेवाले श्रद्धालुओं से अनुरोध किया गया है कि वे मंदिर आते समय नीचे रखे ईंट/गुम्मों को यथाशक्ति उठाकर ले आएँ। श्रमदान का यह अच्छा तरीका था पर वहाँ उस समय ले जाने योग्य कोई सामग्री नहीं थी। इन घुमावदार सीढ़ियों की संख्या लगभग 300 है जिनकी ऊँचाई कम होने से आसानी से चढ़ा जा सकता है। ऊपर पहाड़ी की शिलाओं ने टूटकर एक कगार बना दी है। इस कगार पर नीचे कुछ शिलाएँ क्षरित हो गई हैं जिससे लगभग सौ-डेढ़ सौ फुट लम्बी कंदरा बन गई है। इसी कंदरा के एक भाग में पहाड़ से पानी टपकता है जो यहाँ स्थापित शिवलिंग के ऊपर गिरता है। जल की बूँदों के निरन्तर टपकने से ही इन्हें टपकेश्वर महादेव कहा जाता है।
                 ऐसी लोक मान्यता है कि इन्हें स्वयं भगवान श्री राम ने स्थापित किया था। प्रांगण में श्री हनुमान जी की विशाल प्रतिमा भी स्थापित है। कंदरा की एक गुहा में माँ दुर्गा सहित नौ देवियों की स्थापना भी की गई है। नौ देवी मंदिर की गुफा की छत को सीलिंग लगाकर सुसज्जित कर दिया है। इसी के बगल में सूर्य भगवान को समर्पित एक गुफा मंदिर है। परिसर में राम-जानकी और ब्रह्मा जी के मंदिर भी हैं। हमें बताया गया कि पहाड़ के ऊपर तीन कुंड भी है जो भैरव कुंड, गणेश कुंड और शेर कुंड कहलाते हैं। 
                 भक्तों का कहना है कि यहाँ एक शेर भगवान शिव की आराधना के लिए आता है और इसी कुंड में पानी पीता है। यहाँ कुछ साधु और तपस्वीगण रहते हैं। तपस्वी महाराज ओमकारनंद जी वर्षाकाल में निरन्तर चार महीने (चातुर्मास) एक अँधेरी गुफा में रहकर साधना करते हैं और दीपावली पर बाहर आते हैं। ऐसी मान्यता है कि टपकेश्वर महादेव से की कामना पन्द्रह दिनों में अवश्य पूरी होती है। 
                धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ टपकेश्वर महादेव एक प्राकृतिक रमणीय स्थल है। विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे और लताएँ मन मोह लेती हैं। नीचे आते समय सीढ़ियों पर एक शेफाली या सियारी वृक्ष बहुत ही सुन्दर लग रहा था तो उसके सामने खड़े होकर कुछ फोटोग्राफ्स लेना बनते ही थे। सफेद छाल और चिकने पत्तों वाले इस वृक्ष को इस तरफ क्या कहते पता नहीं। 
              बंदरों की भी भरमार है जब हम नीचे आए तो वे हमारी कार पर बैठकर उसकी रखवाली करते मिले। वैसे वे करने को तो बहुत कुछ कर सकते थे पर हमारी कार के शीशे बंद थे। दोपहर हो चुकी थी और अभी हमारी खास मुहीम बाकीं थी सो टपकेश्वर महादेव को प्रणाम कर हम नरवर की ओर चल पड़े।
              नरवर यहाँ 5 किमी ही रह गया था। नरवर पहुँचकर मनीष जी को फोन किया और कार्यक्रम स्थल की सही स्थिति पता कर बस स्टेण्ड के निकट जैन मंदिर पहुँच गए। तभी डबरा से विजय भाई भी अपनी कार में पत्नी और पुत्र सहित आ गए। जैन मंदिर में शान्ति पाठ का संगीतमय आयोजन चल रहा था। मनीष जी हम लोगों का आत्मीय स्वागत कर अंदर ले गए। 
             कुछ देर हमने भी शान्ति पाठ में सहभागिता की। चूँकि नरवर गढ़ पर चढ़ाई करने से पहले मुझे अपने एक घाव की ड्रेसिंग भी करानी थी (पता नहीं चढ़ाई कितनी कठिन हो और कितने घाव खाने पड़ें।) इसलिए मैंने विजय जी पकड़ा और उन्होंने एक स्थानीय मित्र को मेरे साथ कर दिया जिन्होंने अपनी मोटर साइकिल से ले जाकर अपने मित्र डॉक्टर के क्लीनिक पर अच्छी तरह से ड्रेसिंग करा दी। इस ‘अतिथि सत्कार’ के लिए मुझे उनका और डॉक्टर साहब का मात्र धन्यवाद ही ज्ञापित करना पड़ा। ड्रेसिंग के बाद वापस जैन मंदिर पहुँचा तो सब लोग मेवा-मिष्ठान का नाश्ता कर रहे थे बल्कि ये कहिए कि कर चुके थे। गनीमत यह थी कि समाप्त नहीं किया था (मेरा मतलब सामग्री को) अतः यह काम मुझे करना पड़ा।
                अब हम नरवर किले पर चढ़ाई के लिए पूरी तरह तैयार थे। लोकेश जी के सेनापतित्व में हमने नगरकोट के द्वार पर आक्रमण कर दिया पर नगरवासियों ने ट्रेक्टर ट्राली, कार, मोटरसाइकिल आदि अड़ाकर (जाम लगाकर) हमारा रास्ता रोक दिया। आखिरकार हम उन्हें धकेलकर आगे किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ ही गए।

               पिसनहारी दरवाजा- पाठकों को याद होगा कि नरवर दुर्ग पर चढ़ाई करते समय नरवर के नागरिकों ने जाम लगाकर हमें कुछ देर के लिए रोक लिया था पर हम भी कुछ कम नहीं थे इस बाधा को पार कर हम किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ गए। सँकरी गलियों से होते हुए हम अपने रथ (कार) और घोड़ों (मोटरसाइकिलों) पर सवार होकर मुख्य दरवाजे के लगभग 100 मीटर नीचे तक पहुँच गए। अब हमें पैदल सेना के रूप में आगे बढ़ना था। 
                एक ढलवाँ रास्ते पर चढ़कर हम पिसनहारी दरवाजे तक आ गए। माधुरी खरे और सविता शर्मा दोनों वीरांगनाएँ भी बड़ी बहादुरी से आगे बढ़ रही थीं। दूर से बोर्ड पर पिसनहारी दरवाजा पढ़कर लगा कि कहीं इसका संबंध ‘पिसनहारी के कुएँ’ की तरह किसी अनाज पीसनेवाली बूढ़ी माँ से तो नहीं है ? पर ऐसा नहीं था पास आकर पता चला कि उषाकाल में जब महिलाएँ हाथ-चक्की पर अनाज पीसने लगती थीं उस समय यह दरवाजा खोल दिया जाता था। इसलिए इसे पिसनहारी दरवाजा कहते हैं।
                  बात कुछ गले में अटक-सी गई थी सो उसे दो घूँट पानी पीकर नीचे उतारना पड़ा क्योंकि ऐसा वहाँ लिखा था। यह भी लिखा था कि इस दरवाजे को औरंग़ज़ेब ने इसके मूल ढाँचे को तोड़कर मुगल शैली में फिर से बनवाया था। और इसे आलमगीर दरवाजा नाम दिया था जैसा कि वह अपने विजित किलों के दरवाजों को दे दिया करता था इसीलिए चाहे माण्डवगढ़ हो या कालिंजर आपको आलमगीर दरवाजा मिल ही जाएँगे। 
             पता नहीं नाम परिवर्तन के क्रम में इन्हें इनका मूल नाम कब मिलेगा ? इस दरवाजे का उल्लेख विलियम फिंज (1610 ई.) तेवर्नियर (1640 ई.) और कनिंघम (1867 ई.) किया है। खैर औरंगज़ेब को इसे फ़तह करने में भले समय लगा हो पर हमें नहीं। सीढ़ियों को साफ करनेवाले दो सफाईवीरों ने भी हमारा कोई विरोध नहीं किया। आगे सत्तर-अस्सी सीढ़ियाँ चढ़नी थीं पर उसके पहले कुछ ग्रुप फोटोग्राफ्स लिए गए। सीढ़ियों के मोड़ पर दो खंडित आदमकद प्रतिमाएँ दीवार के सहारे रखी हैं। पहली नज़र में लगा कि वे हनुमान जी की हैं पर एक प्रतिमा के नीचे एक पशु (संभवतः श्वान या कुत्ता) को उनके वाहन के रूप में उत्कींर्ण किया गया है और पैरों तक एक मुण्डमाल पड़ी है तो फिर यह भैरव प्रतिमा हो सकती है। यही दूसरी प्रतिमा के बारे में कह सकते हैं। दोनों प्रतिमाएँ बुरी तरह से खंडित की गई हैं। 
          मुख मंडल तो बचा ही नहीं है। लगता है जिसे आजकल पीरन पौर (सैय्यदों का दरवाजा) कहते हैं उसे भैरव दरवाजा कहा जाता हो और ये प्रतिमाएँ इसके दोनों ओर लगी होगीं। मोड़ के बाद ही यह पीरन पौर द्वार है। इसके पास एक कब्र है जिस पर लिखे एक शिलालेख के अनुसार यह कब्र शेरशाह सूरी के किलेदार सैय्यद दिलावर खान (हिजरी संवत 960 सन् 1545 ईं) की है। सन् 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया था संभवतः उसी समय उसने नरवर को हस्तगत कर लिया था। 
              कनिंघम के अनुसार सैय्यद दिलावर खान ने इसका पुनर्निर्माण या मरम्मत करवाई थी इसलिए इसे सैय्यदों का दरवाजा कहा जाने लगा। इसके पास कोतवाली भवन है। यहाँ किए गए निर्माण में कई पुराने भवनों और मंदिरों के वास्तुखण्डों का उपयोग किया गया है। इस दरवाजे में सैनिकों के रहने के लिए बहुमंजिला कक्ष हैं। इस द्वार को फतह करते हुए हम गणेश दरवाजे तक आ गए जिसमें अभी एक पुराना कीलोंवाला फाटक लगा हुआ है। 
         फाटक में लगे ये कीले हाथियों के आक्रमण को रोकने के लिए लगाए जाते थे। गणेश द्वार के बाद हम हवा पौर जा पहुँचे। इस विशाल द्वार की बनावट कुछ गैलरीनुमा है। दोनों ओर बैठने के लिए पत्थर की लम्बी चौकी है। इसके अंदर ऊपर की ओर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। 
            सीढ़ियों के साथवाली दीवार पर कुछ प्राचीन लाल बलुआ पत्थर के स्तम्भ जड़े हैं जिन पर उत्कींर्ण प्रतिमाएँ बहुत ही सुन्दर हैं। यहाँ एक शिलालेख भी है जिसका कुछ हिस्सा टूट गया है। द्वार की संरचना कुछ इस तरह की है कि ऊपर से ठंडी हवा नीचे आती है। इसीलिए इसे हवा पौर कहा जाता है। इसे सार्थक करने के लिए हम भी हवा खाने बैठ गए। पर हम यहाँ हवा खाने नहीं आए थे इसलिए जल्द ही किले में प्रवेश करने को उठ गए। हवा पौर पहले गौमुखी द्वार कहलाता था। सन् 1800 ई. में ग्वालियर महाराज दौलतराव सिंधिया के सूबेदार अंबा जी ने इसका पुनर्निर्माण कराया। 
          हवा पौर के ऊपर 13 वीं शताब्दी का विष्णु मंदिर और ऊदल बख्शी है। चारों द्वार तोड़ने के बाद अब कोई बाधा नहीं बची थी। सीढ़ियों के समाप्त होने पर हम एक पठारनुमा मैदान में आ गए जिसमें इमारतों का और पेड़ों का जंगल फैला हुआ था। हमारे दाँए तरफ अनेक महल-दुमहले थे और बाँए तरफ किले का परकोटा था जिसके किनारे कोरियों का महल, जेल और पसर देवी मंदिर जाने का रास्ता गया था। भग्न दीवारों पर चूने से पसर देवी मंदिर जाने का रास्ता बतानेवाला तीर का निशान बना है। आगे एक ऊँची दीवारों वाली इमारत मिली हमारे स्थानीय मित्रों ने उसका परिचय नरवर की पुरानी जेल के रूप में दिया। हमें जेल जाने का शौक तो था नहीं इसलिए हम उसको दरकिनार करते हुए आगे बढ़ गए। रास्ते में एक सुन्दर महल था। शायद यही ‘कोरियों का महल’ हो। 
           यहाँ कपड़े बुने जाते थे। इसके बाद एक और भवन था। अंदर प्रांगण में कई कक्ष और बरामदे हैं हो सकता है यह किलेदार का महल हो। मुख्य द्वार और जेल के निकट होने से इस धारणा को बल मिलता है। लोग कहते हैं कि तर्ज पर कहते हैं कि यह मधुशाला भवन था। अच्छा होता यदि इसके बारे में कुछ सूचना पट लगा होता। आगे रास्ता दो भागों में बँट गया था। तिराहे पर मंशा देवी मंदिर था। बाँईं ओर परकोटे में एक छोटा-सा दरवाजा था जो पसर देवी मंदिर और पुरानी नरवर बस्ती के परकोटे के भीतर खुलता है। 
             अब पसर देवी के दर्शन कराने से पहले नरवर किले के इतिहास के पन्ने खोलने का उचित अवसर जान पड़ता है तो अब वर्तमान को छोड़कर अतीत की यात्रा में चलते हैं। नरवरः इतिहास के झरोखों में- आधुनिक इतिहास के अनुसार नरवर का किला नवीं-दसवीं शताब्दी में कछवाह राजाओं ने बनवाया था। क्षेत्रफल और ऊँचाई की दृष्टि से यह भारत का तीसरा बड़ा किला है। (पहला मेहरानगढ़, दूसरा कुंभलगढ़ पाठकगण,कृपया पुष्टि कर लें) इतिहास पर पड़ी राख को कुछ और कुरेदा जाए तो ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र मौर्यकाल में पांचाल महाजनपद अंतर्गत कन्नौज के प्रतिहार राजाओं के अधीन था जो सिंध नदी से केन तक फैला था। 
           कालान्तर में शुंग, कण्व, सातवाहन के अतिरिक्त विदेशी शकों और कुषाण राजाओं का शासन दक्षिण-पश्चिम बुन्देलखण्ड में रहा है। उन्नाव (दतिया) में बाला जी का सूर्य मंदिर कुषाण काल में बनाया गया था। कुषाणों से इस क्षेत्र को मुक्ति दिलाने का काम नागवंशीय राजाओं ने किया था जिनके संघ राज्य विदिशा, नागौद, पद्मावती, कांतिपुरी और नरवर में स्थापित थे। नरवर में नागवंशीय राजाओं के सिक्के बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। नरवर किले के भवनों में लगे कलश चिह्न युक्त स्तम्भ प्रतिमाएँ तथा अन्य पुरा चिह्न इस क्षेत्र में नाग, गुप्त, प्रतिहार और चंदेल युग का संकेत देते हैं। नरवर और चंदेल- चरखारी से मिले एक ताम्रपत्र (सन् 1254ई) के अनुसार सन् 1254ई. में नलपुरा (नरवर) के राजा गोविन्द और गोपगिरि (ग्वालियर) के राजा ने हरिदेव ने राजा वीरवर्मा (सन् 1246-1285ई.) के समय चंदेल राज्य पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण का सामना चंदेल राज्य के गोंड़ सेनापति राउत आभी ने पपावनी (टीकमगढ़) के मैदान में किया था और उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया था। इस विजय का प्रतीक विजय स्तम्भ (जैत खम्ब) पपावनी में देखा जा सकता है। सन् 1182 ई. में दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल राजा परमर्दि वर्मा या परमालदेव के समय बुन्देलखण्ड पर आक्रमण कर बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम भाग पर अधिकार कर इस क्षेत्र को हाड़ा चौहान सरदारों को दे दिया था। चौहानों के पश्चात के बाद लगता है यह क्षेत्र तब तक कछवाहों के अधीन बना रहा जब तक कि इसे ग्वालियर के तोमरों द्वारा छीन नहीं लिया गया। ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह (सन् 1486-1516 ई.)के समय नरवर में उसका किलेदार रहता था। 
         मालवा के खिलजी शासकों से सामना करने का पहला मोर्चा नरवर ही था। मानसिंह के समय माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने नरवर पर असफल आक्रमण किया था। नरवर को सन् 1507 ई. में सिकन्दर लोदी (सन् 1489-1517 ई.) ने मानसिंह तोमर से छीना था। नरवर किले में मौजूद सिकन्दर लोदी की मस्जिद इस बात की पुष्टि करती है जो किसी मंदिर या भवन को तोड़कर बनाई गई है। उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास ‘मृगनयनी’ में सिकन्दर लोदी के आक्रमण और उसके द्वारा नरवर में छह महीने स्वयं रहकर मंदिरों और मूर्तियों के विनाश का विस्तृत वर्णन किया किया है। सिकन्दर लोदी ने अपने किलेदार के रूप में इसे राजसिंह कछवाह को सौंप दिया था।
              नरवर और बुन्देला- नरवर और उसके आसपास का क्षेत्र बुन्देला राज्य का हिस्सा भी रहा है। ओरछा राजवंश के संस्थापक रुद्रप्रताप (सन् 1501-1531 ई.) ने अपने पुत्र चंदनदास को करैरा की जागीर दी थी। उनके बड़े पुत्र भारतीचंद ( सन् 1531-1554 ई.) हुमायुँ (सन् 1530-1556 ई.) और शेरशाह सूरी (सन् 1540-1545 ई. दिल्ली पर अधिकार से लेकर मृत्यु तक) के समकालीन थे। इन दोनों के मध्य चल रहे सत्ता संघर्ष का लाभ उठाते हुए भारतीचंद ने सिंध से टमस (टोंस) और यमुना से नर्मदा तक अपना राज्य विस्तार कर लिया था। 
             प्रतीत होता है कि शेरशाह की मृत्यु (सन् 1545 ई.) के बाद भारतीचंद ने शेरशाह के किलेदार सैय्यद दिलावर खान से या उसके उत्तराधिकारी से नरवर छीन लिया था जैसे पूर्वी बुन्दंलखण्ड से शेरशाह सूरी के लड़के इस्लामशाह सूरी को खदेड़कर जतारा छीन लिया था। उनके बाद उनके भाई मधुकरशाह ( सन् 1554-1592 ई.) ओरछा के राजा बने जो शिवपुरी के जागीरदार थे। जो बाद में उनके पुत्र रणवीरसिंह देव को मिली। अकबर (सन् 1542-1605 ई.) के लड़के मुराद से हुए एक युद्ध (सन् 1591 ई.) के बाद जब मधुकरशाह को ओरछा छोड़ना पड़ा तब वे कुछ समय नरवर में ही रहे थे। उनके एक पुत्र होरलदेव पिछोर के जागीरदार थे। उनके बाद जब रामदास (सन् 1592-1605 ई.) ओरछा के राजा हुए तब ओरछा राज्य 22 जागीरों में विभक्त था इनमें एक जागीर नरवर भी थी। 
            महाराजा वीरसिंह जू देव प्रथम (सन् 1605-1627ई.) जब बड़ौनी के जागीरदार थे तब उन्होंने नरवर पर भी अधिकार कर लिया था। सन् 1599 ई में अकबर नरवर (नलपुरा) आया था। सन् 1602 ई. में जब अबुलफजल नरवर होकर दिल्ली जा रहा था तब वीरसिंह जू देव प्रथम ने नरवर और आँतरी के बीच परायछे नामक ग्राम में उसका सिर काट लिया था। जहाँगीर के समय नरवर वीरसिंह जू देव प्रथम के अधिकार में रहा होगा।
           महाराजा छत्रसाल ने भी औरंगजेब के समय ग्वालियर और नरवर को आक्रांत किया था। नरवरः मुगल और मराठा- बुन्देलों के बाद नरवर मुगलों के हाथ में रहा। आगरा से बुरहानपुर जानेवाला मार्ग जिसे सिल्क रूट कहा जाता था नरवर होकर ही गुजरता था। नरवर का जंगल हाथियों के शिकार के लिए प्रसिद्ध था। अकबर के समय यहाँ जंगली हाथियों को पकडकर पालतू बनाया जाता था और सेना में रखा जाता था। 
             शेर तो आज भी पाए जाते हैं। बाद में यह ग्वालियर के सिंधिया घराने (मराठों) के अधिकार में आ गया और स्वतंत्रता प्राप्ति तक उनके अधिकार में बना रहा है। (इसका संक्षिप्त उल्लेख बाद में) ऊपर दो बार नरवर का नलपुरा के रूप में उल्लेख पाठकों को याद होगा। बहुत-से इतिहास और पुराण प्रेमी पाठक जानते हैं कि नरवर का संबंध राजा नल से है जी हाँ वही महाभारतकालीन नल-दमयंती वाले राजा नल। राजा नल निषध देश के राजा थे और नलपुर या नरवर उनकी राजधानी थी।
नरवर से जुड़ी तीन प्रेमकथाओं में पहली कथा नल-दमयंती की है।..................... क्रमशः भाग 3 में नल दमयंती की प्रेम कथा और पसर देवी मंदिर के दर्शन अभिन्न डॉ. लोकेश जी, विजय जी और स्थानीय मित्रों के साथ रामगोपाल रैकवार 

आलेख -भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान’ -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’

आलेख -
भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान’ -
                                   -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’

              हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है। आदिकाल के बाद आये इस काल को‘ ‘मध्यकाल’ के नाम से भी जाना जाता है। भक्ति काल का इतिहास छठीं शताब्दी से है। उस समय के कवियों का मूल उद्देश्य ऐसी रचनओं का सृजन करना था जो समाज और हिंदू धर्म में सुधार तथा इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच समन्वय स्थापित कर सके।
              उस समय अलवार,नयनार विष्णु रामानंद आदि ने उत्तर भारत में भक्ति के इस आंदोलन को शुरू किया 786 से 820 ई. तक शंकराचार्य जी ने इस दिशा में अनेक कार्य किये। भक्तिकाल का समय सन् 1375ई. से 1700ई. है तथा कुछ विदवानों द्वारा सन्-1350 से 1650 ई. तक का माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार भक्तिकाल का आरंभ 1375ई. से हुआ है। ग्रियर्सन जैसे अनेक विद्वानों से इसे स्वर्णकाल, स्वर्णयुग भी कहा है। 
          उत्तर ही नहीं अपितु दक्षिण भारत में भी आलवार बंधु,रामानुजाचार्य ,रामानंद आदि जैसे विदवान हुए हैं तथा उनके बाद वहाँ के अनेक आचार्ये द्वारा श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी गयी है। भक्तिकाल में अनेक कालजयी ग्रंथ रचे गये है जो कि आज भी लोकप्रिय है।
          बुन्देलखण्ड की भूमि प्राचीन काल से रणभूमि के साथ-साथ लोक संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रही हैं बुन्देली लोक संस्कृति भारत की प्राचीन क्षेत्रीय संस्कृति मानी जाती है यहाँ पर अनेक स्थानों मानव द्वारा निर्मित शैल चित्रों मिलते है जिससे यह सिद्ध होता है कि यहाँ आदिम युग से मानवनिवास कर रहे हैं। गुप्तकालीन,चंदेलकालीन, बुन्देलकालीन एवं मुगलकालीन स्थापत्य कला के अभेद दुर्ग,प्राचीन मंदिर,मूर्तियाँ, बौद्धमठ,जैन तीर्थंकरों के अनेक सिद्ध स्थान तथा अनेक दरगाहे देखने को मिल जाती है। 
       बुन्देली लोक संस्कृति और समाज का जरूरी हिस्सा है बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति बिना किसी भेदभाव सदियों से अनेक प्रकार की आध्यात्मिकता को धारण किए अनवरत रूप से गतिशील रही है। बुन्देलखण्ड की भूमि महाकाव्य काल में काल पुरुषों की विश्राम स्थली एवं कर्मस्थली भी रही है। साधु‘संतों, महंतों एवं ऋषियों ने यहाँ के वनाच्छादित और प्रकाकृतिक सौंदर्य को अपनी साधना एवं तपस्या के लिए उपयुक्त स्थान माना हैं 
     यहीं कारण है कि यहाँ पर अगस्त ऋषि, महर्षि अत्रि,वाल्मिकि एवं सनकनंदन जैसे प्रसिद्ध ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाएँ और यहाँ साधना की। यहाँ तक कि भगवान श्री राम भी अपने प्रवास काल में चित्रकूट में कुछ समय रहे। श्री राम के पुत्र लव लवपुरी लौड़ी वर्तमान में (लवकुशनगर) एवं कुश कुशावती जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता है। वहाँ पर रहे। 
       महाभारत में कौरवों-पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का द्रोण क्षेत्र सैवढ़ा जिला दतिया रहा है। महाभारत कालीन शिशुपाल की राजधानी चंदेरी थी। पांडव अपने वनवास काल में बुन्देलखण्ड में रहे थे। 
     आज भी पांडव फाल, भीमकुंड, भीम बैठका, पाडंव कुंड आदि स्थान भी बुन्देलखण्ड में स्थित है। बौद्ध युग में यह बुन्देलखण्ड ‘मज्झम’ प्रान्त के नाम से प्रसिद्ध था। उज्जैन से भेलसा (विदिशा) होकर कौशाम्बी को जाने वाला रास्ता बुन्देलखण्ड से होकर ही जाता था। जबकि पटिलपुत्र से उज्जैन जाने वाला मार्ग दतिया,चंदेरी होकर था। जिस कारण से यहाँ पर बौद्ध धर्म के अनेक धार्मिक केन्द्रांे का निर्माण बुन्देलखण्ड में हुआ था।
     उस समय बौद्ध धर्म के केन्द्रों में जतकरी (खजुराहों), अजयगढ़, महोबा, गुजर्रा (दतिया),मोहनगढ़ (टीकमगढ़),एरण, भरहुत प्रमुख थे। बुन्देलखण्ड में नागौद एवं पन्ना क्षेत्र में किलकिल नदी के किनारे के क्षेत्रों में नागवंशीय सत्ता का आविर्भाव हुआ था। नाग यादव जाति की एक उप शाखा थे वे शिव के परम भक्त थे। कालिंजर(बाँदा) में नीलकंठ गुफा मंदिर नागकालीन ही है।
        भक्तिकाल में हुए प्रमुख कवियों को दो प्रमुख भागों मे ंबाँटा गया है- सगुण भक्तिकाल एवं निर्गुण भक्तिकाल।
 फिर इन दोनों की भी दो-दो शाखाएँ है- सगुण भक्ति में -रामाश्रयी शाखा और कृष्णाश्रयी शाखा एवं निर्गुण भक्ति में ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य धारा) और सूफी काव्य धारा (प्रेमाश्रयी शाखा)। 
        निर्गुण काव्य धारा के प्रमुख कवियों में कवि रैदास, कबीरदास, गुरूनानक,मलूक दास आदि है। जबकि सगुण काव्य धारा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास(राम चरित मानस,विनय पत्रिका), स्वामी रामानंद(राम आरती), स्वामी अग्रदास (राम भजन मंजरी,रामाष्टयाम), नाभादास (भक्तमाल),  ईश्वरदास(भरत मिलाप, अंगद पेज), केशवदास (रामचन्द्रिका), नरहरि दास (पौरुषेय रामायण) आदि है। इनके अलावा, नंद दास (भँवर गीत,रास पंचाध्यायी), कृष्णदास(जुगलमान चरित्र), परमानंद दास (परमानंद सागर), कुभनदास (फुटकल पद), चतुर्भुजदास, छीत स्वामी(फुटकल पद), गोविन्द्र स्वामी (फुटकल पद), हित हरिवंश,गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास(हरिदास के पद), मदनमोहन, श्री भट्ट(युगल शतक) ,व्यास जी, रसखान(प्रेम वाटिका, दानलीला), ध्रुवदास (रसलावनी, भक्त नामावली) तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास आदि कवि प्रमुख रूप से है।
        भक्तिकाल में संत काव्य धारा जिसे ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहते हंै इस काल में हुए प्रमुख कवियों के बारे में सक्षिप्त में जानकारी दे रहे है ताकि हम बुन्देलखण्ड के साथ-साथ पूरे देश में हुए कवियों के बारे में थोड़ा बहुत जान सके। इनमें प्रमुख रूप से कबीरदास जिनका जन्म सन् -1398 में हुआ था एवं उनकी रचनाएँ साखी,सबद एवं रमैनी का ‘बीजक’ नाम से उनके शिष्य धर्मदास ने संकलित किया था। इनकी पत्नी का नाम लुई एवं बच्चों के नाम कमाल एवं कमाली था। कबीर दास ने अपनी रचनाओं में अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, जात-पात माया छुआछूत का उग्र विरोध किया। उनकी मृत्यु लगभग -1528 में मानी जाती है।
     कवि रैदास जिनका पूरा नाम रविदास था इनका जन्म सन्-1398ई. में उत्तरप्रदेश के काशी में हुआ था उनकी प्रमख कृति ‘रविदास की बानी’ है। इनकी माता का नाम कर्मादेवी एवं पिताजी का नाम संतोष दास था ये रामानंद के शिष्य थे। इन्होंने अपने दोहे और पदों के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया। उनकी मृत्यु सन् -1448 में हुई थी।
    गुरूनानक जी का जन्म सन् 1469ई. में हुआ था उनकी प्रमुख कृति-जपुजी, रहिरास, असा-दी-वार, सोहिला-गुरु ग्रंथ साहब में नानक के पद संकलित है। उनकी मृत्यु सन् सन् 1543ई. में हुई थी।
         हरिदास निरंजनी का जन्म सन् 1455ई. में हुआ था उन्होंने अष्टपदी, जोगग्रंथ, ब्रह्यस्तुति,हंस प्रबोध आदि की रचना की थी उनकी मृत्यु सन् 1543ई. में हुई थी। 
        कवि दादू दयाल का जन्म सन् 1944ई. में हुआ था अपकी प्रमुख कृतियाँ- हरडै वाणी एवं अंगवधू है। आपकी मृत्यु सन् 1603ई. में हुई थी। 
       कवि मलूकदास का जन्म सन् 1574ई. में हुआ था इनके द्वारा प्रमुख रूप से ज्ञानदीप, रतनखान, भक्तिविवेक, राम अवतार लीला,ध्रुव चरित आदि ग्रंथों की रचना की गयी थीं इनकी मृत्यु सन्- 1682ई. में हुई थी। 
        कवि सुंदरदास का जन्म सन् 1596ई. में हुआ था अपने द्वारा ‘ज्ञानसमुद एवं सुंदर विलास आदि ग्रंथों की रचना की गयी थी। इनकी मृत्यु सन् 1689ई. में हुई थी।
       कृष्ण भक्ति धारा के प्रमुख कवि:- 
         कृष्ण भक्ति काव्यधारा में लिखने वाले कवियों ने भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया,प्रेम लक्षणा भक्ति,सौन्दर्य चित्रण, प्रकृति चित्रण, रीति तत्व का समावेश करते हुए ब्रज भाषा का उपयोग किया है। वहीं उद्धव-गोपी संवाद को ‘भ्रमर गीत’ नाम दिया गया है। 
         महाकवि सूरदास का जन्म सन् 1478ई. में हुआ था सूरदास की प्रमुख रचनाएँ- सूरसागर, सूरसावली, साहित्य लहरी है। इनकी मृत्यु सन् 1583ई. में हुई थी। 
    कवि नंददास का जन्म सन् 1533ई. में हुआ था इन्होंने रस संजरी, अनेकार्थ मंजरी, भ्रमरगीत,रास, एवं पंचाध्यायी आदि की ग्रंथों की रचना की थी। 
     कवि ध्रुवदास का जन्म सन् 1573ई. में हुआ था आपने ब्रजलीला, विचार लीला,दान लीला,मान लीला,सिद्धांत आदि की रचना की थी। आपकी मृत्यु सन् 1643ई. में हुई थी। 
     कवि स्वामी हरिदास का जन्म सन् 1478ई. में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियाँ-केलिमाल, सिद्धांत के पद आदि हैं इनकी मृत्यु सन् 1573ई. में हुई थी। 

राम भक्ति धारा के प्रमुख कवि:- 
       राम भक्ति धारा के प्रमुख कवियों में प्रमुख रूप से गोस्वमी तुलसीदास, ईश्वरदास, लालदास, अग्रदास,आदि है इन्होंने श्री राम पर केन्द्रित काव्य का सृजन किया। हिन्दी राम थ्भक्ति का मूल स्रोत संस्कृत में बाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ महाकाव्य है। 
     इसमें श्री सम्प्रदाय (रामानुजाचार्य), ब्रम्ह सम्प्रदाय (मध्वाचार्य) राम भक्ति के दो सम्प्रदाय थे।
     रामानुजाचार्य की परम्परा में राघवानंदन और रामानंद हुए। धनुष-वाण धारी राम के लोक रक्षक स्वरूप की उपासना का प्रारम्भ उन्होंन ही किया था। राम शक्तिशाली, सौंदर्य से युक्त मर्यादा पुरुषोत्तम है तथा भगवान विष्णु के अवतार है।,दास्य भा की भक्ति,नारी विषयक दृष्टिकोण नौतिक एवं पारिवारिक मूल्यों का समर्थन का विषयों पर प्रमुखता से अपी रचनाओं में वर्णन किया है। 
     तुलसीदास ने ‘राम चरित मानस’,विनय पत्रिका,रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्नावली जानकीमंगल ,आदि रचनाएँ श्री राम पर केन्द्रित ही लिखी गयी है। 
        कवि ईश्वर दास ने भरत मिलाप एवं अंगद पैज आदि का रचना की। कवि लालदास ने ‘अवध विलास’ ग्रंथ की रचना की, कवि अग्रदास ने ध्यानमंजरी, रामभजन मंजरी, उपासना बावनी, पदावली आदि ग्रंथों की रचना की। 

        भक्तिकाल में सूफी काव्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ:- 
        भक्तिकाल में सूफी काव्य के अनेक कवि हुए है जो कि अधिकांश मुसलमान थे एवं मसनवी शैली में उन्होंने अरबी भाषा का प्रयोग करते हुए काव्य ग्रंथों की रचना कि थी। जिसमें लोक पक्ष एवं हिन्दू संस्कृति का चित्रण किया था। उनकी रचनाओं में वियोग वर्णन की प्रधानता रही थी। 
मुल्ला दाउद (चंदायान) सन् 1379ई., कुतुबन (मृगावती)- सन् 1503ई., जायसी (पद्यावत) -1540ई., मंझन (मधुमालती) -1545ई., शेखनवी (ज्ञानदीन)-1619ई., नूर मुहम्मद (अनुराग बाँसुरी)-1764ई., नूर मुहम्मद (इन्द्रावती) सन् 1744ई. आदि प्रमुख है। 

      भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान:- 
              अधिकांश विद्वानों ने हिंदी के प्रथम कवि सरहपा को माना है इन्हें भक्ति युग के दौरान कविता के बीज बोने का श्रेय दिया जाता है इनका जन्म आठवीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने काव्य में ढेर सारे दोहे लिखे थे। 
          इसी प्रकार बुन्देलखण्ड में कवि जगनिग को प्रथम कवि माना जाता हैं। जगनिग के बाद विष्णुदास जी ने चैदहवीं शताब्दी में दो कथा काव्य महाभारत एवं रामायण कथा लिखी थी। बुन्देलखण्ड में अनेक कवियों ने जन्म लिया है और अनेक कवियों ने इसे अपनी कर्मस्थली बनाया उनमें बुन्देलखण्ड भक्तिकाल में हुए कुछ प्रमुख कवियों के बारे में जितनी जानकारी बहुत खोजबीन करने के बाद मिली उसे हम यहाँ उल्लेखित कर है- 
     गोस्वामी तुलसीदास:- 
         भक्ति काल में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि तुलसीदास जी हैं तुलसी दास का जन्म उत्तरप्रदेश के बांदा जनपद के ग्राम राजापुर में तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी संवत्-1589 ई. में ंहुआ था। इनकी माता का नाम हुलसी था एवं इनके पिता का नाम श्री आत्माराम दुवे था जो कि प्रतिष्ठित सरयूपाररीण ब्रह्यण थे। इनका विवाह रत्नावली से सं. 1680ई. में हुआ था। इनकी मृत्यु संवत 1680वि. में श्रावण कृष्ण तृतीय शनिवार को हुई थी।
          गोस्वामी तुलसी दास ने ‘राम चरित मानस’ रचकर जो ख्याति प्राप्त की है वह उनके अन्य समकालीन कवियों ने नहीं पा पायी। हालाकि रामयण’ तुलसीदा सकेअलावा अन्य कवियों ने भी लिखी है लेकिन तुलसीदास रचित रामायण सरल शब्दों में लिखी गयी है जो कि आम आदमी को आसानी से समझ में आ जाती है। इनके अलावा तुसलीदास ने विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली, गीतावली,कृष्ण गीतावली, पार्वती मंगल,जानकी मंगल,वैराग्य संदीपनी, रामलला नहछू,रामाज्ञा प्रश्नावली, बरवै रामायण आदि ग्रंथों की रचना की।
         तुलसीदास द्वारा संवत्- 1631वि. में ‘रामचरित मानस’ कीरचना कि गयी थी जो कि अवधी भाषा में लिखी गयी थी लेकिन इसमें बहुत से बुन्देली शब्दों का प्रयोग भी किया गया है अर्थात हम कह सकते है कि अवधी और बुन्देली का मिश्रित रूप राम चरित मानस में देखने को मिल जाता है। इस महाकाव्य की रचना दो साल सात माह एवं छब्बीस दिन में की गयी थी। जो कि तुलसीदास द्वारा अयोध्या,काशी एवं चित्रकूट आदि स्थानों में रहकर लिखा गया था।
          जिसमें सात काण्ड है- बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड,किष्किनधाकाण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड, एवं उत्तरकाण्ड। तुलसीदास द्वारारचित ‘विनय पत्रिका’ काव्य ग्रंथ मुक्तक शैली में ब्रज भाषा में लिखी गयी है। जिसमें 269 पद है। 

 केशवदास (संवत् 1612):-
         केशवदास का जन्म ओरछा में संवत्-1612वि. में हुआ था। इनके पिता का नाम पिता का नाम श्री काशी नाथ जी था। केशवदास कि मूल विधा दोहा छंद,चैपाई आदि थी केशवदास ने ‘राम चन्द्रिका’ का रचना की थी जिससे उन्हें भक्तिकाल का कवि भी माना जाता है लेकिन वे मूल रूप से वे रीतिकाल के कवि है। उन्होंने रामचन्द्रिका के अलावा वीर सिंह देव चरित्र, विज्ञान गीता,रतन वावनी,कवि प्रिया,रसिक प्रिया,जहाँगीर जसचन्दिका आदि प्रमुख ग्रंथों की रचना कि हैं।
         उन्नकी व्यापक काव्य भाषा प्रयोगशीलता एवं बुन्देल भूमि की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों सेकेशव बुदेली के ही प्रमुख कवि है। रीति और भक्ति का समन्वित रूप केशव के काव्य में देखने को मिलता है। जहाँ केशदास ने रीतिवादी कवि के रूप में कवि प्रिया एवं रसिक प्रिया की रचना की है वहीं रामचन्द्रिका एवं विज्ञान गीता में अपने भक्ति तत्व को बखूबी उजागर किया है। केशवदास की मृत्यु- अनुमानित सं 1674 में मानी गयी है।

       प्रवीण राय महाराज इन्द्रजीत के दरबार में थी महाराज इन्द्रजीत स्वयं ‘धीरेन्द्र नरेन्द्र’ उपनाम से कविता करते थे। पं. गौरी शंकर द्विवेदी ने इनका समय संवत् 1620वि. माना है। इन्हीं के समय में कल्याण मिश्र (संवत् 1635वि.) कविता लेखन में श्रेष्ठ माने गये थे। 
     इसी प्रकार बालकृष्ण मिश्र तथा गदाधर उस समय के प्रसिद्ध कवि हुए है। बुन्देली के अनेक मुहावरों का प्रयोग ‘बिहारी सतसई’ में पढ़ने को मिलता है। 
    बलभद्र के पौत्र श्री शिवलाल मिश्र (संवत 1660वि.) ने ठेठ बुन्देली के क्रिया पदों का प्रयोग किया है इसी प्रकार से स्वामी अग्रदास की कुण्डलियों बुन्दली लोकोक्तियों का सुदर प्रयोग किया गया है तथा उनमें लोक संदेश दिया गया है। 
        कवि सुंदरदास ने ‘सुंदर शृंगार’ कि रचना की हैं रीतिभक्ति काव्य में खेमदास रसिक सुवंश कायस्थ, पोहनदास मिश्र तथा ओरछा के अन्य कवियों ने भक्तिकाव्य को बहुत लिखा है बुन्देलखण्ड के राजाओं ने भी उस समय के कवियों को बहुत प्रोत्साहन दिया है उन्हें उचित मान व सम्मान दिया है।
             महाराज छत्रसाल ने तो कवि भूषण की पालकी को स्वयं उठाया था। लाल कवि और छत्रसाल जहाँ हिन्दुत्व और स्वाधीन बुन्देलखण्ड का समर्थन करते है तथा पृथक अस्तित्व बनाते है। 
      अक्षर अनन्य भक्ति और उपासना के क्षेत्र में निर्गुण काव्य धारा का समर्थन कबीर की भाँति करते है। प्रेममार्गी काव्य धारा में कवि हरिसेवक मिश्र तथा सगुण कृष्ण भक्ति काव्य में कवि बख्शी हंसराज के द्वारा ‘मधुराभक्ति का प्रतिपादन हुआ। राम काव्य धारा में महाकवि केशव के उपरांत अनेक कवियों ने काव्य रचनाकी लेकिन वे सभी केशव की तुलना में अधिक प्रभाव नहीं डाल पाये।
          हिन्दी साहित्य में बुन्देलखण्ड के ‘कबीर’ कवि अक्षर अनन्य को, ‘सूर’ कवि बख्शी हंसराज को ‘जायसी’ कवि हरिसेवक मिश्र को एवं राष्ट्रीय कवि ‘लाल’ को कहा जाता है। कवि बख्तबली महाचार्य ने चम्पतराय बुंदेला के युद्धों का वर्णन किया तो उनके पुत्र भानुभ (संवत्-1701वि.) ने भी महाराजा छत्रसाल बुंदेला के युद्धों का वर्णन और राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया है। इन्हीं के दूसरे पुत्र गुलाब भी इसी धारा के कवि थे।
            कवि लाल का प्रदेय इस काल में इसलिए अधिक था कि उन्होंने छत्रसाल बुंदेला को नायक बनाकर उनके समस्त घटनाओं का यथार्थ चित्रण किया है लाल की पंक्तियाँ को तत्कालीन राजाओं ने धर्म वाक्य के रूप में लिया था। ‘छत्रप्रकाश’ ग्रंथ में इन युद्धों का धारावाहिक विवरण लाल कवि ने लिखा है। 
       गजाधर भट्ट:- गजाधर भट्ट ने राजा इन्द्रजीत की ब्रज यात्रा का वर्णन ‘ब्रज विलास’ गं्रथ में किया। ‘विजय ब्रज विलास’ सर्ग 6 छंद 33 देखे- 
गदाधर कहै वेद विधि सौ पुरान सुनै,
 पूरन पुरान पूजे प्रेम सौ प्रतीत है।
 पृथु से, पारीक्षत से, पारथ, प्रियब्रत से,
 सत्यव्रत धारै प्रजा पालै राजनीति है। 
वैरिन को भीत लोक‘-लोकन अजलीत,
 राजै रायन के राजा राउ इंद्रजीत है।।
           बुन्देलखण्ड की अधिकांश रियासतों के राजा अपने रनिवास सहित तीर्थयात्रा पर जया करते थे यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक रम्परा थी। राजा के लिए अन्य कार्यो के साथ तीर्थयात्रा करना,मठों में दान करना मंदिरेां का निर्माण कराना आदि धार्मिक कार्य किया करते थे जिससे उसकी यश व कीर्ति में वृद्धि होती थी। 
        दतिया के राजा विजय बहाुदर ने संवत् 1904वि. (सन् 1847ई.) में ब्रज की तीर्थयात्रा की जिसका वर्णन उसने साथ गए प्रसिद्ध कवि पद्माकर भट्ट के पौत्र कवि गदाधर भट्ट की थी। सवंत 1904वि की भाद्र कृष्ण पंचमी सोमवार को शुभ मुहूर्त में राजा विजय बहादुर अपने विश्वस्त लोगों के साथ ब्रज यात्रा पर चले उसका वर्णन लिखते हुए- श्री राधा गोविन्द्र के प्रगटन भक्ति प्रभाव। श्री ब्रज मण्डल दरस हित, विजय नृपति किय चाव।। (विजय ब्रज विलास सर्ग 7 छंद 73) बहु भांति वर्ण सुवर्ण सुंदर मुद्रिका पचमेर की। कासी, उदैपुर, जोधपुर, जैपुर सु बीकानेर की। कलदार,दिल्ली, अकबरी, अजमेी, अलवर की बनी। ग्वालेर,पट्टन कालपी, उज्जैन ,सूरत की धनी।। (विजय ब्रज विलास सर्ग 7 छंद 75) गदाधर भट्ट रचित ‘विजय विलास’अप्रकाशित ग्रंथ है। 
        इसी प्रकार से प्रतीतराम लक्ष्मण सिंह ने अपने आश्रयदाता दतिया के राजा भवानी सिंह की ब्रज यात्रा का विवरण लिखा है और उसका नाम ‘लोकेन्द्र ब्रजोत्सव’ (लोकेन्द्र ब्रजोत्वस ग्रंथ) सन् 1890ई. में प्रकाशित हुआ था इनका शासन काल सन् 1865-1925ई. तक था।

 कवयित्री पासवान खवासिन:-
         ब्रज की यात्रा के अतिरिक्त भवानी सिंह ने चारों धाम की यात्रा की थी इस यात्रा में उनकी प्रेयसी पासवान खवासिन उनके साथ थी। अपनी पुस्तक ‘तीर्थ यात्रा’ में पासवान खवासिन ने यात्रा का संक्षिप्त में वर्णन किया है। तीर्थ यात्रा की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कवयित्री पासवान ने लिखा- पग पवित्र तीरथ किये,मुख पवित्र किये नाम।
 तन पवित्र तिन नरन को, करैं धर्म के काम।। 

प्रवीण राय:-
        प्रवीण राय का जन्म ओरछा में अनुमानतः संवत-1630 वि.(सन् 1573ई.) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री माधवलुहार था प्रवीण राय ओरछेश रामशाह के भाई इन्द्रजीत ‘धीरज नरिन्द्र’ की पे्रयसी थी इनका निधन अनुमानतः संवत् 1690वि. में हुआ था। 
 प्रवीण राय की प्रमुख रचनाएँ -
1-नायिका भूषण(सत्रह छन्द), 2- प्रवीन विनोद(खण्डित प्रति) है। उपरोक्त रचनाओं का उल्लेख तो कई संदर्भ ग्रंथों में है पर किसी ने भी उनमें के छंदों का रंचमात्र भी वर्णन नहीं किया है। प्रवीण राय कुशल नृत्यांगना,उच्चकोटि की सुमधुर गायिका एवं कवयित्री थी।
          आचार्य केशवदास ने ‘कवि प्रिया’ ग्रंथ में राय प्रवीण की प्रंशसा में लिखा है- 
राय प्रवीन की सारदा,सुचि रुचि रंजित अंग। 
 बीना पुस्तक धारिनी, राजहंस जुत संग।।
 बृषभ बाहिनी अंगयुत,वासुकि लसति प्रवीन। 
सिव संग सोहे सर्वदा,सिवा की राय प्रवीन। 
          आचार्य केशवदास द्वारा प्रवीन राय को काव्य शिक्षा दी गई थी। फलस्वरूप आगे चलकर वह एक श्रेष्ठ कवयित्री सिद्ध हुई। राय प्रवीन की नृत्यकला,संगीत एवं काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर तत्कालीन ओरछेश रामशाह (1592-1605ई.) के भाई इन्द्रजीत जो स्वयं ‘‘धीरज नरिन्द्र’‘ नाम से काव्य सृजन करते थे तथा रामशाह की अनुपस्थिति में कार्यकारी ओरछेश रहते थे ने राय प्रवीन को अपनी प्रेयसी के रूप में स्वीकार कर ओरछा दुर्ग के अन्दर ही उसके निवास हेतु एक महल का निर्माण कराया। जो आज भी ‘प्रवीन राय महल’ के नाम से अच्छी स्थिति में विद्यमान है। महल के सामने एक विशाल बाग के चिन्ह अभी भी है।
         केशवदास ने लिखा है- 
तंत्री तुंवरू सारिका,सुद्ध सुरन सोंलीन। 
 देव सभा-सी सोभिजै,राय प्रवीन प्रवीन।।45।। 
सत्या राय प्रवीन जुत,सुरतरु सुरतरु गेह। 
इन्द्रजीत तासों बंधे,‘केशवदास’हि देह।।46।।। 
         श्री कन्हैया लाल जी शर्मा ‘कलश’ ने अपने एक आलेख ‘‘दिव्य नृत्यांगना रायप्रवीन’’ में रायप्रवीन द्वारा रचित एक पद सखी सम्प्रदाय में मिलने का उल्लेख किया है।
 जो निम्नानुसार है- 
टेक- उरझ गई को सुरझाय दिओ माधव।
 धु. अन्तरा- मोरे कर मंहदी लगी,सारी उघर गई। 
कैसे ओढूँ ओढ़नी,मैं अति विवस भई,
 उधर गई को अंगयाय लइयो माधव। उरझ गई.... 
रायप्रवीन हिये की बीना,तोरइ हात बजै, 
औरउ हाॅत लगै तो सबरे सुर आलाप तजै अपनोइ गुन गववाय जइयो माधन। उरझ गई........... 
     श्री ‘कलश’ ने प्रवीनराय के दो ग्रंथ 1-नायिका भूषण(सत्रह छन्द) 2- प्रवीन विनोद (खण्डित प्रति) प्राप्त होने तथा इसके अतिरिक्त कुछ फुटकर छंद प्राप्त होने का उल्लेख किया है। रायप्रवीण के जन्म के बारे में कलश जी लिखते है कि-
‘‘वरद्वारे (कछौआ पिछोर) में ‘रत्नाकर’ की लालित,सत्याराई प्रापलित,तोताराम पांडेय द्वारा परिवर्द्धित और ललता सखी नामधारी स्वामी हरिदास वैष्णव द्वारा संगीत कला में प्रस्फुटित ‘सावित्री’ नामी रूपोद्यान कलिका ही ओरछा राज्य दरवार की प्रवीण राई नाम से विख्यात हुई । वह आर्येतर पातुर कुल में संवत् 1642 में जन्मी थीं। इस विवरण हेतु कलश जी ने (राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली का लेख दृष्टव्य ) संदर्भ दिया है। इधर कलश जी यह भी लिखते है कि-
        ‘महाराज ओरछेश इन्द्रजीत की वह प्रेमिका थी’ तथा- ‘कवीन्द्र केशव की वह शिस्या थी’।

 रत्नावली:- 
रत्नावली का जन्म राजापुर में अनुमानित सं. 1605 (सन् 1548ई.) माना गया है। रत्नावली तुलसीदास की पत्नी थीं। रत्नावली का कवयित्री के रूप में किसी साहित्य इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता। सोरो सामग्री में रत्नावली सम्बन्धी तीन ग्रथ्ंा मिलते हैं-1-रत्नावली, 2-रत्नावली लघु दोहा संग्रह, 3-दोहा रत्नावली। 
      इनका अवलोकन तथा विश्लेषण करने से रत्नावली के 201 उपलब्ध दोहों में से 88 दोहों ‘रत्नावली या ‘रत्नावती’ और 82 में ‘रतन’ का पर्ण संकेत मिलता है। शेष दोहों में कोई नाम नहीं है विषय की दृष्टि से इनमें पति-श्रृद्धा,पति पे्रम तथा नीति को प्रस्तुत किया गया है। काव्य कला की दृष्टि से इन दोहों में उपलब्ध उपमानों सादृश्यमूलक व्यंजनाओं, उपमा, रूपक आदि का सराहनीय प्रयोग मिलता है। अभिव्यक्ति की सरसता सरलता ब्रजभाषा में व्यक्त हुई है। इस ब्रजभाषा में तत्सम तद्भव शब्दों का प्रयोग तो मिलता है,परन्तु अरबी-फारसी आदि के शब्दों का अभाव है। भाषा में कहंीं भी व्याकरण दोष नहीं मिलता और शब्द-चयन की सुष्ठुता श्लाघ बनी है। छंद प्रयोग में सीमित रहने के कारण कवयित्री ने केवल दोहा का ही प्रयोग किया है। गोस्वामी जी से रत्नावली द्वारा कहे गए दो दोहा तो बहुत ही प्रसिद्ध है। यथा- 
लाज न लागत आपुको, दोरे आयहु साथ।
 धिक-धिक ऐसे पे्रम को, कहा कहहँू मैं नाथ।। 
अस्थि चर्म मय देह यह, तामें जैसी प्रीति। 
तैसी जौं श्रीराम हैं, होत न तौ भयभीत।। 

      तीन तरंग:- 
कवयित्री तीन तंरग का जन्म-ओरछा में संवत- 1610 वि. (सन् 1553 ई.) में हुआ था। तीन तंरग ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के आश्रित ओरछा दरबार की आश्रित वेश्या थी। उनका कविता काल-संवत् 1640वि. माना गया है। उन्होंने ‘संगीत अखाड़ा’ नाम से एक ग्रंथ की रचना की थीं। मधुर अली:- कवयित्री मधुर अली का जन्म ओरछा में संवत- 1615 वि. (सन् 1558 ई.) हुआ था इनका कविता काल संवत् 1640वि.माना गया है। 
कवयित्री मधुर अली -
        राम काव्यधारा की सर्वप्रथम कवयित्री हैं। इनके द्वारा 1-राम चरित्र 2-गनेस देव लीला ग्रंथों की रचना की गयी थी। ये भी ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के आश्रित ओरछा दरबार की आश्रित वेश्या थी। 

 महाकवि बलभद्र:- 
      महाकवि बलभद्र मिश्र अत्यंत प्रतिभाशाली कवि थे इनके प्रमुख ग्रंथों में ‘सिखनख’, भाषा-भाष्य, बलभद्री व्याकरण, हनुमानाष्टक टीका, गोवर्द्धन समसई आदि बहुत प्रसिद्ध हुए। इनके समय में बुन्देलखण्ड में ओरछा, पन्ना, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, दतिया एवं सागर एक प्रमुख केन्द्रों के रूप मंे स्थापित होने लगे थे और यहाँ कवियों द्वारा बहुत से ग्रंथों की रचना की गयी।

 कवि चन्द्र सखी:- 
         भक्ति रस सिद्ध कवि ‘चन््रदसखी’ हुए है इनका जन्म ओरछा में संवत्1589वि. में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जो ओरछा में महाराज उदैत सिंह के राज्याश्रय में राज-कवि रहे थे। इनके नाम को लेकर अनेक विद्वानों में मत-भेद था कि ये कवि है अथवा कवियत्री आदि इनका नाम दीवान प्रतिपाल सिंह के बुदेलखण्ड का बृहद इतिहास तथा पं. गौरी शंकर द्विवेदी के ‘बुंदेल वैभव’- में नहीं होने कारण ओरछा राज्य के पराभव के बाद‘चन्द्र सखी’ अन्य समकालीन कवियों की भांति राजस्थान चले गये थे। राजस्थान पत्रिका (राजस्थान- भारती) में अप्रैल सन् 1950 के अंक में अपने भजन छपे है। कवि चन्द्र सखी की मृत्यु वि.सं. 1656 में हुई थी। चन्द्र सखी बाल कृष्ण छवि की छाप वाले थे उनके भक्ति रस सिद्ध गये पद बहुत लोकप्रिय हुए। 
जैसे- कहन लागे मोहन मैया मैया। 
नंद बाबा जू से बावई बाबा बल्दाऊ से भैया। 
दूर खिलन जिन जाओं मोहन,मारैगी काहू की गैया।। 
ऊँचे अटा टेरौ जसौदा, लै लै नाम कन्हैया। 
एकन के दो-चार खेलत हैं, मेरा अकेलौ छैया। 
चंद्रसखी भज बाल कृष्ण छवि, जसुदा लेत बलैया।। 

कवि कन्हरदास:-
 कवि कन्हरदास का जन्म ग्राम पाथरेड़ी ओरछा राज्य में संवत् 1580 में हुआ था। पं. कन्हारदास महाराज मधुकर शाह (सं.1611-49वि.) प्रथम के गुरुदेव व वीर सिंह जू देव (1649-1675वि.) के मंत्री थे। जो श्रीरामराजा की ओरछा में प्रतिष्ठापना के अवसर दिए कंहरदास को पादाराघ रूप में ग्राम भसनेह की 311 बीघा जमीन देने के ताम्रपत्र से प्रमाणित है। अनेक पदों में इनकी छाप ‘कंहर’ लगी है। 
यथा- भजु सीयारामै कहौ करि मेरौ। 
अधम अधिक तरि गये नाम कहि लगौ नहीं दै देरौ। 
चढ़ी विमान गइी है गनिका अजामेल स्तुत टेरौ। 
कंहर राम नाम के कहत ही मिटि गयौ अंधेरौ।। 

कवि विक्रम:- 
      कवि विक्रम का जन्म संवत् 1624-30वि.अनुमानित ग्राम चंदेरा में हुआ था। बाद में उनके वंशज जीरोन जिला टीकमगढ ़(म.प्र) में बस गये थे। इनके पिता का नाम श्री प्रानसुख था। आपका प्रमुख ग्रंथ ‘सुदामा चरित्र’ है जिसमें 208 छंद है।

 स्वामी अग्रदास:- 
      स्वामी अग्रदास का जन्म संवत 1632वि. में हुआ था। ये स्वामी रामानंद के शिष्य थे। इनके प्रमुख ग्रंथ अष्टयाम संस्कृति में ‘ध्यान मंजरी पदावली’ हिन्दी में एवं अनेक हस्त लिखित कुण्डलियाँ बुंदेली में प्राप्त हुई है। 

 नवल सिंह प्रधान:-
       बुन्देल राजाओं की ब्रज यात्राओं पर स्वतंत्र रूप से विस्तार पूर्वक सबसे पहले ग्रंथ लिखने का श्रेय बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध कवि नवल सिंह प्रधान को हैं जिन्होंने सवंत 1879 (सन् 1822ई.) में अपने आश्रयदाता दतिया से राजा पारीक्षत की ब्रजयात्रा का वर्णन कर उसे ब्रज भूमि प्रकाश की संज्ञा दी। इस यात्रा में कवि स्वयं राजा के साथ थे अतः उन्होंने राजा पारीक्षत की तीर्थ यात्रा के दौरान प्रतिदिन का विवरण काव्यमय लिखा है और ब्रज मण्डल के तीर्थो का आँखों देख हाल लिखा। 

 लाला परमानंद प्रधान:- 
      लाला परमानंद प्रधान का जन्म तत्कालीन ओरछा राज्य की राजधानी टीकमगढ़ में फाल्गुन माह में कृष्ण पक्ष की दसवीं को संवत् 1907वि. में हुआ था। आपके पिता श्री जानकीदास एक प्रतिभाशाली रचनाकार थे ये ओरछा राज्य के महाराजा हम्मीद सिंह (1854-74ई.) के दरबारी कवि थे। जो कि जानकीदास उर्फ हरिदास ‘हरिजन’ नाम से कविता किया करते थे। इनके द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ काव्य ग्रंथ ‘तुलसी चिंता मणि’ हैं। जिसका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में किया है। उक्त ग्रंथ अप्रकाशित है लेकिन उसकी पांडुलिपि अभी तक सुरक्षित है।
         लाला परमानंद प्रधान ने 32 काव्य ग्रंथों की रचना की थी जिसमें अधिकांश ग्रंथ उनके अप्रकाशित है इन्हीं 32 ग्रंथों पर टीकमगढ़ के डाॅ. देवीप्रसाद खरे ने शोध कार्य कर पी-एच.डी. की थी। लाला परमानंद प्रधान द्वारा रचित 32 ग्रंथों में से 14 ग्रंथ भक्ति संबंधी ग्रंथ है। एवं 5 ग्रंथ नीति संबंधी भी लिखे है। लाला परमानंद प्रधान जी तुलसीदास की तरह सगुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि थे। उन्होंने श्री राम के विविध स्वरूपों को बहुत सुदर ढ़ंग से चित्रित किया हैं हिन्दी साहित्य में उन गिने चुने ऐसे कवियों में से है जो श्री राम का मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप चित्रित करने के साथ-साथ श्री राम का रसिक शिरोमणि प्रदर्शित करने वाला स्वरूप भी चित्रित करने ने नहीं हिचकिचाए। 
         लाला परमानंद प्रधान ने अपने अद्वितीय महाकाव्य ‘प्रमोद रामायण’ में श्री राम का रसिक शिरोमणि स्वरूप वणर््िात किया है। ‘प्रमोद रामायण’ में 62 सर्ग है। चतुर्थ सर्ग(विलास) में रामचन्द्र जी का लोक भोगानन्द वर्णित किया गया है- 1-चंद्रद्वीप, 2-भद्रद्वीप, 3-पंगक द्वीप, 4-प्रभा द्वीप, 5-हय द्वीप, 6-गज द्वीप, 7-भोगानन्द। 
    इसी भोगानंद में कौशल देश, मैथिल देश है जिनमें अयोध्या और मिथिलापुर नगर क्रमशः है। 
सप्तम द्वीप,सुभग सुख दाता। 
भोगानंद नाम अवदाता। 
कौशल देस मध्य तिहि केरे। 
तिमि मैथिल जुत देस घनेरे। 
नगर अयोध्या कौशल माहीं। 
मिथल मध्य मिथिला जाही।। 
       लाला परमानंद प्रधान की ‘रामचरित मानस’ में अगाध श्रद्धा थी उन्होंने ‘मानस’ को आधार मानकर ही ‘मंजु रामायण, रामायण मानस दर्पण, रामायण मानस चंद्रिका एवं रामायण मानस तरंगिण(प्रकशित) आदि की गं्रथों की रचना की थी। इन चारों ग्रंथों की कथा ‘मानस’ की तरह सातों काण्डों में है। ‘रामायण मानस तरंगिणी’ तो लघु आकार की है जिसे एक घंटे में पूरा पढ़ा जा सकता है।
         श्री लाला परमांनंद जी मूलतः भक्ति भावना केकवि थे इसीलिए उनके काव्य में अधिकांशतः भक्ति भावमय दृष्टांतों की भरमार रही है। वर्ण चैंतीसी काव्य में एक-एक वर्ण से बनने वाले शब्दों से दोहा छंद में उन्होंने अनुपम प्रयोग करते हुए काव्य की रचना की है छन्द दृष्टव्य है- 
पावन परम प्रभाव प्रिय, प्रेम पियूष प्रवीन। 
पद पंकज पूरक प्रमुद, परमानंद पन पीन।। 
         इनके अलावा अनेक कवि है कवि राजबली (सं.1580-90वि.),बीरबल (महेशदास) सं.1590विं., गोविंद स्वामी (स.ं1595वि.), कवि अमरेश (1600वि.), कवि परमेश (1590वि.),नरोत्तम दास (सं.1502वि.), आलम (सं. 1683वि.), राम मिश्र (1630वि.), आदि भक्तिकाल में बुंदेली धरा पर हुए है। 
         इस प्रकार से भक्ति काल में बुन्देलखण्ड के अनेक कवियों द्वारा श्रेष्ठ ग्रंथ रचे गये थे जो कि हिन्दी साहित्य मे अपना विशेष महत्व रखते हैं। कालजयी होने के साथ-साथ वे आज भी उतने ही लोकप्रिय है जितने पूर्व में थे। इसीलिए भक्ति काल को ‘स्वर्णकाल’ या ‘स्वर्ण युग’ भी कहा जाता है। 
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        - राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका 
 संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका 
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़ 
 जिलाध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र,टीकमगढ़ 
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail- ranalidhori@gmail.com 
 Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com 

 संदर्भ ग्रंथ:- 

1-‘बुन्देली इतिहास और संस्कृति(2005)-संपादक-कपिल तिवारी,आलेख-डाॅ.काशी प्रसाद त्रिपाठी पेज-119 प्रकाशक आदिवासी लोक कला अकादमी,मध्यप्रदेश परषिद् भोपाल 

2-बुन्देलखण्ड का बृहद इतिहास-डाॅ.काशीप्रसाद त्रिपाठी, (1991) पेज-152-154 

3-हिंदंी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-संपादक-मीधा एन.सीरी, सन् 2018 पेज 47

 4-‘ईसुरी’ अंक-22 (सन्-2019)-डाॅ. राजेन्द्र यादव (सागर) 

5-‘बुन्देली इतिहास और संस्कृति(2005)-संपादक-कपिल तिवारी,आलेख-उदय शंकर दुवे पेज-189 प्रकाशक आदिवासी लोक कला अकादमी,मध्यप्रदेश परषिद् भोपाल

 6-तुलसी ग्रंथावली- तृतीय खंड (वि.स.2033) नागरी प्रचारिणी सभा,वाराणसी 

7-भक्ति का विकाप्त-संपादक- डाॅ. मुंशीराम शर्मा, चैखंडा सीरीज वाराणसी, सन् 2022ई. 

8-बुन्देलखण्ड के अज्ञात रचनाकार-संपादक- डाॅ. गंगा प्रसाद बरसैया, पेज-28 

9-बुन्देलखण्ड के रचनाकार ग्रंथ (2011)- संपादक-डाॅ. रमनारायण शर्मा (झाँसी) पेज-18 

10-बुन्देलखण्ड़ की कवयित्रियाँ- संकलन एवं संपादन-हरिविष्णु अवस्थी प्रकाशक-आदिवासी लोक कला अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल 

11- 11वी एवं 12वीं हिंदी नोट्स इन हिंदी-गूगल से साभार 

12-कुछ सामग्री इंटरनेट गूगल से साभार

 -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका 
 संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका 
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़ 
 शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail- ranalidhori@gmail.com 
 Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com

Articals-rajeev namdeo rana lidhori (All Samagra)


1 आलेख -
भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान’
 -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
          हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है। आदिकाल के बाद आये इस काल को‘ ‘मध्यकाल’ के नाम से भी जाना जाता है। भक्ति काल का इतिहास छठीं शताब्दी से है। उस समय के कवियों का मूल उद्देश्य ऐसी रचनओं का सृजन करना था जो समाज और हिंदू धर्म में सुधार तथा इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच समन्वय स्थापित कर सके। उस समय अलवार,नयनार विष्णु रामानंद आदि ने उत्तर भारत में भक्ति के इस आंदोलन को शुरू किया 786 से 820 ई. तक शंकराचार्य जी ने इस दिशा में अनेक कार्य किये। भक्तिकाल का समय सन् 1375ई. से 1700ई. है तथा कुछ विदवानों द्वारा सन्-1350 से 1650 ई. तक का माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार भक्तिकाल का आरंभ 1375ई. से हुआ है। ग्रियर्सन जैसे अनेक विद्वानों से इसे स्वर्णकाल, स्वर्णयुग भी कहा है। उत्तर ही नहीं अपितु दक्षिण भारत में भी आलवार बंधु,रामानुजाचार्य ,रामानंद आदि जैसे विदवान हुए हैं तथा उनके बाद वहाँ के अनेक आचार्ये द्वारा श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी गयी है। भक्तिकाल में अनेक कालजयी ग्रंथ रचे गये है जो कि आज भी लोकप्रिय है। बुन्देलखण्ड की भूमि प्राचीन काल से रणभूमि के साथ-साथ लोक संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रही हैं बुन्देली लोक संस्कृति भारत की प्राचीन क्षेत्रीय संस्कृति मानी जाती है यहाँ पर अनेक स्थानों मानव द्वारा निर्मित शैल चित्रों मिलते है जिससे यह सिद्ध होता है कि यहाँ आदिम युग से मानवनिवास कर रहे हैं। गुप्तकालीन,चंदेलकालीन, बुन्देलकालीन एवं मुगलकालीन स्थापत्य कला के अभेद दुर्ग,प्राचीन मंदिर,मूर्तियाँ, बौद्धमठ,जैन तीर्थंकरों के अनेक सिद्ध स्थान तथा अनेक दरगाहे देखने को मिल जाती है। बुन्देली लोक संस्कृति और समाज का जरूरी हिस्सा है बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति बिना किसी भेदभाव सदियों से अनेक प्रकार की आध्यात्मिकता को धारण किए अनवरत रूप से गतिशील रही है। बुन्देलखण्ड की भूमि महाकाव्य काल में काल पुरुषों की विश्राम स्थली एवं कर्मस्थली भी रही है। साधु‘संतों, महंतों एवं ऋषियों ने यहाँ के वनाच्छादित और प्रकाकृतिक सौंदर्य को अपनी साधना एवं तपस्या के लिए उपयुक्त स्थान माना हैं यहीं कारण है कि यहाँ पर अगस्त ऋषि, महर्षि अत्रि,वाल्मिकि एवं सनकनंदन जैसे प्रसिद्ध ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाएँ और यहाँ साधना की। यहाँ तक कि भगवान श्री राम भी अपने प्रवास काल में चित्रकूट में कुछ समय रहे। श्री राम के पुत्र लव लवपुरी लौड़ी वर्तमान में (लवकुशनगर) एवं कुश कुशावती जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता है। वहाँ पर रहे। महाभारत में कौरवों-पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का द्रोण क्षेत्र सैवढ़ा जिला दतिया रहा है। महाभारत कालीन शिशुपाल की राजधानी चंदेरी थी। पांडव अपने वनवास काल में बुन्देलखण्ड में रहे थे। आज भी पांडव फाल, भीमकुंड, भीम बैठका, पाडंव कुंड आदि स्थान भी बुन्देलखण्ड में स्थित है। बौद्ध युग में यह बुन्देलखण्ड ‘मज्झम’ प्रान्त के नाम से प्रसिद्ध था। उज्जैन से भेलसा (विदिशा) होकर कौशाम्बी को जाने वाला रास्ता बुन्देलखण्ड से होकर ही जाता था। जबकि पटिलपुत्र से उज्जैन जाने वाला मार्ग दतिया,चंदेरी होकर था। जिस कारण से यहाँ पर बौद्ध धर्म के अनेक धार्मिक केन्द्रांे का निर्माण बुन्देलखण्ड में हुआ था। उस समय बौद्ध धर्म के केन्द्रों में जतकरी (खजुराहों),अजयगढ़, महोबा, गुजर्रा (दतिया),मोहनगढ़ (टीकमगढ़),एरण, भरहुत प्रमुख थे। बुन्देलखण्ड में नागौद एवं पन्ना क्षेत्र में किलकिल नदी के किनारे के क्षेत्रों में नागवंशीय सत्ता का आविर्भाव हुआ था। नाग यादव जाति की एक उप शाखा थे वे शिव के परम भक्त थे। कालिंजर(बाँदा) में नीलकंठ गुफा मंदिर नागकालीन ही है। भक्तिकाल में हुए प्रमुख कवियों को दो प्रमुख भागों मे ंबाँटा गया है- सगुण भक्तिकाल एवं निर्गुण भक्तिकाल। फिर इन दोनों की भी दो-दो शाखाएँ है- सगुण भक्ति में -रामाश्रयी शाखा और कृष्णाश्रयी शाखा एवं निर्गुण भक्ति में ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य धारा) और सूफी काव्य धारा (प्रेमाश्रयी शाखा)। निर्गुण काव्य धारा के प्रमुख कवियों में कवि रैदास, कबीरदास, गुरूनानक,मलूक दास आदि है। जबकि सगुण काव्य धारा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास(राम चरित मानस,विनय पत्रिका), स्वामी रामानंद(राम आरती), स्वामी अग्रदास (राम भजन मंजरी,रामाष्टयाम), नाभादास (भक्तमाल), ईश्वरदास(भरत मिलाप, अंगद पेज), केशवदास (रामचन्द्रिका), नरहरि दास (पौरुषेय रामायण) आदि है। इनके अलावा, नंद दास (भँवर गीत,रास पंचाध्यायी), कृष्णदास(जुगलमान चरित्र), परमानंद दास (परमानंद सागर), कुभनदास (फुटकल पद), चतुर्भुजदास, छीत स्वामी(फुटकल पद), गोविन्द्र स्वामी (फुटकल पद), हित हरिवंश,गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास(हरिदास के पद), मदनमोहन, श्री भट्ट(युगल शतक) ,व्यास जी, रसखान(प्रेम वाटिका, दानलीला), ध्रुवदास (रसलावनी, भक्त नामावली) तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास आदि कवि प्रमुख रूप से है। भक्तिकाल में संत काव्य धारा जिसे ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहते हंै इस काल में हुए प्रमुख कवियों के बारे में सक्षिप्त में जानकारी दे रहे है ताकि हम बुन्देलखण्ड के साथ-साथ पूरे देश में हुए कवियों के बारे में थोड़ा बहुत जान सके। इनमें प्रमुख रूप से कबीरदास जिनका जन्म सन् -1398 में हुआ था एवं उनकी रचनाएँ साखी,सबद एवं रमैनी का ‘बीजक’ नाम से उनके शिष्य धर्मदास ने संकलित किया था। इनकी पत्नी का नाम लुई एवं बच्चों के नाम कमाल एवं कमाली था। कबीर दास ने अपनी रचनाओं में अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, जात-पात माया छुआछूत का उग्र विरोध किया। उनकी मृत्यु लगभग-1528 में मानी जाती है। कवि रैदास जिनका पूरा नाम रविदास था इनका जन्म सन्-1398ई. में उत्तरप्रदेश के काशी में हुआ था उनकी प्रमख कृति ‘रविदास की बानी’ है। इनकी माता का नाम कर्मादेवी एवं पिताजी का नाम संतोष दास था ये रामानंद के शिष्य थे। इन्होंने अपने दोहे और पदों के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया। उनकी मृत्यु सन् -1448 में हुई थी। गुरूनानक जी का जन्म सन् 1469ई. में हुआ था उनकी प्रमुख कृति-जपुजी, रहिरास, असा-दी-वार, सोहिला-गुरु ग्रंथ साहब में नानक के पद संकलित है। उनकी मृत्यु सन् सन् 1543ई. में हुई थी। हरिदास निरंजनी का जन्म सन् 1455ई. में हुआ था उन्होंने अष्टपदी, जोगग्रंथ, ब्रह्यस्तुति,हंस प्रबोध आदि की रचना की थी उनकी मृत्यु सन् 1543ई. में हुई थी। कवि दादू दयाल का जन्म सन् 1944ई. में हुआ था अपकी प्रमुख कृतियाँ- हरडै वाणी एवं अंगवधू है। आपकी मृत्यु सन् 1603ई. में हुई थी। कवि मलूकदास का जन्म सन् 1574ई. में हुआ था इनके द्वारा प्रमुख रूप से ज्ञानदीप, रतनखान, भक्तिविवेक, राम अवतार लीला,ध्रुव चरित आदि ग्रंथों की रचना की गयी थीं इनकी मृत्यु सन्- 1682ई. में हुई थी। कवि सुंदरदास का जन्म सन् 1596ई. में हुआ था अपने द्वारा ‘ज्ञानसमुद एवं सुंदर विलास आदि ग्रंथों की रचना की गयी थी। इनकी मृत्यु सन् 1689ई. में हुई थी। कृष्ण भक्ति धारा के प्रमुख कवि:- कृष्ण भक्ति काव्यधारा में लिखने वाले कवियों ने भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया,प्रेम लक्षणा भक्ति,सौन्दर्य चित्रण, प्रकृति चित्रण, रीति तत्व का समावेश करते हुए ब्रज भाषा का उपयोग किया है। वहीं उद्धव-गोपी संवाद को ‘भ्रमर गीत’ नाम दिया गया है। महाकवि सूरदास का जन्म सन् 1478ई. में हुआ था सूरदास की प्रमुख रचनाएँ- सूरसागर, सूरसावली, साहित्य लहरी है। इनकी मृत्यु सन् 1583ई. में हुई थी। कवि नंददास का जन्म सन् 1533ई. में हुआ था इन्होंने रस संजरी, अनेकार्थ मंजरी, भ्रमरगीत,रास, एवं पंचाध्यायी आदि की ग्रंथों की रचना की थी। कवि ध्रुवदास का जन्म सन् 1573ई. में हुआ था आपने ब्रजलीला, विचार लीला,दान लीला,मान लीला,सिद्धांत आदि की रचना की थी। आपकी मृत्यु सन् 1643ई. में हुई थी। कवि स्वामी हरिदास का जन्म सन् 1478ई. में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियाँ-केलिमाल, सिद्धांत के पद आदि हैं इनकी मृत्यु सन् 1573ई. में हुई थी। राम भक्ति धारा के प्रमुख कवि:- राम भक्ति धारा के प्रमुख कवियों में प्रमुख रूप से गोस्वमी तुलसीदास, ईश्वरदास, लालदास, अग्रदास,आदि है इन्होंने श्री राम पर केन्द्रित काव्य का सृजन किया। हिन्दी राम थ्भक्ति का मूल स्रोत संस्कृत में बाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ महाकाव्य है। इसमें श्री सम्प्रदाय (रामानुजाचार्य), ब्रम्ह सम्प्रदाय (मध्वाचार्य) राम भक्ति के दो सम्प्रदाय थे। रामानुजाचार्य की परम्परा में राघवानंदन और रामानंद हुए। धनुष-वाण धारी राम के लोक रक्षक स्वरूप की उपासना का प्रारम्भ उन्होंन ही किया था। राम शक्तिशाली, सौंदर्य से युक्त मर्यादा पुरुषोत्तम है तथा भगवान विष्णु के अवतार है।,दास्य भा की भक्ति,नारी विषयक दृष्टिकोण नौतिक एवं पारिवारिक मूल्यों का समर्थन का विषयों पर प्रमुखता से अपी रचनाओं में वर्णन किया है। तुलसीदास ने ‘राम चरित मानस’,विनय पत्रिका,रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्नावली जानकीमंगल ,आदि रचनाएँ श्री राम पर केन्द्रित ही लिखी गयी है। कवि ईश्वर दास ने भरत मिलाप एवं अंगद पैज आदि का रचना की। कवि लालदास ने ‘अवध विलास’ ग्रंथ की रचना की, कवि अग्रदास ने ध्यानमंजरी, रामभजन मंजरी, उपासना बावनी, पदावली आदि ग्रंथों की रचना की। भक्तिकाल में सूफी काव्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ:- भक्तिकाल में सूफी काव्य के अनेक कवि हुए है जो कि अधिकांश मुसलमान थे एवं मसनवी शैली में उन्होंने अरबी भाषा का प्रयोग करते हुए काव्य ग्रंथों की रचना कि थी। जिसमें लोक पक्ष एवं हिन्दू संस्कृति का चित्रण किया था। उनकी रचनाओं में वियोग वर्णन की प्रधानता रही थी। मुल्ला दाउद (चंदायान) सन् 1379ई., कुतुबन (मृगावती)- सन् 1503ई., जायसी (पद्यावत) -1540ई., मंझन (मधुमालती) -1545ई., शेखनवी (ज्ञानदीन)-1619ई., नूर मुहम्मद (अनुराग बाँसुरी)-1764ई., नूर मुहम्मद (इन्द्रावती) सन् 1744ई. आदि प्रमुख है। भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान:- अधिकांश विद्वानों ने हिंदी के प्रथम कवि सरहपा को माना है इन्हें भक्ति युग के दौरान कविता के बीज बोने का श्रेय दिया जाता है इनका जन्म आठवीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने काव्य में ढेर सारे दोहे लिखे थे। इसी प्रकार बुन्देलखण्ड में कवि जगनिग को प्रथम कवि माना जाता हैं। जगनिग के बाद विष्णुदास जी ने चैदहवीं शताब्दी में दो कथा काव्य महाभारत एवं रामायण कथा लिखी थी। बुन्देलखण्ड में अनेक कवियों ने जन्म लिया है और अनेक कवियों ने इसे अपनी कर्मस्थली बनाया उनमें बुन्देलखण्ड भक्तिकाल में हुए कुछ प्रमुख कवियों के बारे में जितनी जानकारी बहुत खोजबीन करने के बाद मिली उसे हम यहाँ उल्लेखित कर है- गोस्वामी तुलसीदास:- भक्ति काल में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि तुलसीदास जी हैं तुलसी दास का जन्म उत्तरप्रदेश के बांदा जनपद के ग्राम राजापुर में तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी संवत्-1589 ई. में ंहुआ था। इनकी माता का नाम हुलसी था एवं इनके पिता का नाम श्री आत्माराम दुवे था जो कि प्रतिष्ठित सरयूपाररीण ब्रह्यण थे। इनका विवाह रत्नावली से सं. 1680ई. में हुआ था। इनकी मृत्यु संवत 1680वि. में श्रावण कृष्ण तृतीय शनिवार को हुई थी। गोस्वामी तुलसी दास ने ‘राम चरित मानस’ रचकर जो ख्याति प्राप्त की है वह उनके अन्य समकालीन कवियों ने नहीं पा पायी। हालाकि रामयण’ तुलसीदा सकेअलावा अन्य कवियों ने भी लिखी है लेकिन तुलसीदास रचित रामायण सरल शब्दों में लिखी गयी है जो कि आम आदमी को आसानी से समझ में आ जाती है। इनके अलावा तुसलीदास ने विनय पत्रिका,दोहावली, कवितावली, गीतावली,कृष्ण गीतावली, पार्वती मंगल,जानकी मंगल,वैराग्य संदीपनी, रामलला नहछू,रामाज्ञा प्रश्नावली, बरवै रामायण। आदि ग्रंथों की रचना की। तुलसीदास द्वारा संवत्- 1631वि. में ‘रामचरित मानस’ कीरचना कि गयी थी जो कि अवधी भाषा में लिखी गयी थी लेकिन इसमें बहुत से बुन्देली शब्दों का प्रयोग भी किया गया है अर्थात हम कह सकते है कि अवधी और बुन्देली का मिश्रित रूप राम चरित मानस में देखने को मिल जाता है। इस महाकाव्य की रचना दो साल सात माह एवं छब्बीस दिन में की गयी थी। जो कि तुलसीदास द्वारा अयोध्या,काशी एवं चित्रकूट आदि स्थानों में रहकर लिखा गया था। जिसमें सात काण्ड है- बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड,किष्किनधाकाण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड, एवं उत्तरकाण्ड। तुलसीदास द्वारारचित ‘विनय पत्रिका’ काव्य ग्रंथ मुक्तक शैली में ब्रज भाषा में लिखी गयी है। जिसमें 269 पद है। केशवदास (संवत् 1612):- केशवदास का जन्म ओरछा में संवत्-1612वि. में हुआ था। इनके पिता का नाम पिता का नाम श्री काशी नाथ जी था। केशवदास कि मूल विधा दोहा छंद,चैपाई आदि थी केशवदास ने ‘राम चन्द्रिका’ का रचना की थी जिससे उन्हें भक्तिकाल का कवि भी माना जाता है लेकिन वे मूल रूप से वे रीतिकाल के कवि है। उन्होंने रामचन्द्रिका के अलावा वीर सिंह देव चरित्र, विज्ञान गीता,रतन वावनी,कवि प्रिया,रसिक प्रिया,जहाँगीर जसचन्दिका आदि प्रमुख ग्रंथों की रचना कि हैं। उन्नकी व्यापक काव्य भाषा प्रयोगशीलता एवं बुन्देल भूमि की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों सेकेशव बुदेली के हीप्रमुख कवि है। रीति और भक्ति का समन्वित रूप केशव के काव्य में देखने को मिलता है। जहाँ केशदास ने रीतिवादी कवि के रूप में कवि प्रिया एवं रसिक प्रिया की रचना की है वहीं रामचन्द्रिका एवं विज्ञान गीता में अपने भक्ति तत्व को बखूबी उजागर किया है। केशवदास की मृत्यु- अनुमानित सं 1674 में मानी गयी है। प्रवीण राय महाराज इन्द्रजीत के दरबार में थी महाराज इन्द्रजीत स्वयं ‘धीरेन्द्र नरेन्द्र’ उपनाम से कविता करते थे। पं. गौरी शंकर द्विवेदी ने इनका समय संवत् 1620वि. माना है। इन्हीं के समय में कल्याण मिश्र (संवत् 1635वि.) कविता लेखन में श्रेष्ठ माने गये थे। इसी प्रकार बालकृष्ण मिश्र तथा गदाधर उस समय के प्रसिद्ध कवि हुए है। बुन्देली के अनेक मुहावरों का प्रयोग ‘बिहारी सतसई’ में पढ़ने को मिलता है। बलभद्र के पौत्र श्री शिवलाल मिश्र (संवत 1660वि.) ने ठेठ बुन्देली के क्रिया पदों का प्रयोग किया है इसी प्रकार से स्वामी अग्रदास की कुण्डलियों बुन्दली लोकोक्तियों का सुदर प्रयोग किया गया है तथा उनमें लोक संदेश दिया गया है। कवि सुंदरदास ने ‘सुंदर शृंगार’ कि रचना की हैं रीतिभक्ति काव्य में खेमदास रसिक सुवंश कायस्थ, पोहनदास मिश्र तथा ओरछा के अन्य कवियों ने भक्तिकाव्य को बहुत लिखा है बुन्देलखण्ड के राजाओं ने भी उस समय के कवियों को बहुत प्रोत्साहन दिया है उन्हें उचित मान व सम्मान दिया है। महाराज छत्रसाल ने तो कवि भूषण की पालकी को स्वयं उठाया था। लाल कवि और छत्रसाल जहाँ हिन्दुत्व और स्वाधीन बुन्देलखण्ड का समर्थन करते है तथा पृथक अस्तित्व बनाते है। अक्षर अनन्य भक्ति और उपासना के क्षेत्र में निर्गुण काव्य धारा का समर्थन कबीर की भाँति करते है। प्रेममार्गी काव्य धारा में कवि हरिसेवक मिश्र तथा सगुण कृष्ण भक्ति काव्य में कवि बख्शी हंसराज के द्वारा ‘मधुराभक्ति का प्रतिपादन हुआ। राम काव्य धारा में महाकवि केशव के उपरांत अनेक कवियों ने काव्य रचनाकी लेकिन वे सभी केशव की तुलना में अधिक प्रभाव नहीं डाल पाये। हिन्दी साहित्य में बुन्देलखण्ड के ‘कबीर’ कवि अक्षर अनन्य को, ‘सूर’ कवि बख्शी हंसराज को ‘जायसी’ कवि हरिसेवक मिश्र को एवं राष्ट्रीय कवि ‘लाल’ को कहा जाता है। कवि बख्तबली महाचार्य ने चम्पतराय बुंदेला के युद्धों का वर्णन किया तो उनके पुत्र भानुभ (संवत्-1701वि.) ने भी महाराजा छत्रसाल बुंदेला के युद्धों का वर्णन और राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया है। इन्हीं के दूसरे पुत्र गुलाब भी इसी धारा के कवि थे। कवि लाल का प्रदेय इस काल में इसलिए अधिक था कि उन्होंने छत्रसाल बुंदेला को नायक बनाकर उनके समस्त घटनाओं का यथार्थ चित्रण किया है लाल की पंक्तियाँ को तत्कालीन राजाओं ने धर्म वाक्य के रूप में लिया था। ‘छत्रप्रकाश’ ग्रंथ में इन युद्धों का धारावाहिक विवरण लाल कवि ने लिखा है। गजाधर भट्ट:- गजाधर भट्ट ने राजा इन्द्रजीत की ब्रज यात्रा का वर्णन ‘ब्रज विलास’ गं्रथ में किया। ‘विजय ब्रज विलास’ सर्ग 6 छंद 33 देखे- गदाधर कहै वेद विधि सौ पुरान सुनै, पूरन पुरान पूजे प्रेम सौ प्रतीत है। पृथु से, पारीक्षत से, पारथ, प्रियब्रत से, सत्यव्रत धारै प्रजा पालै राजनीति है। वैरिन को भीत लोक‘-लोकन अजलीत, राजै रायन के राजा राउ इंद्रजीत है।। बुन्देलखण्ड की अधिकांश रियासतों के राजा अपने रनिवास सहित तीर्थयात्रा पर जया करते थे यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक रम्परा थी। राजा के लिए अन्य कार्यो के साथ तीर्थयात्रा करना,मठों में दान करना मंदिरेां का निर्माण कराना आदि धार्मिक कार्य किया करते थे जिससे उसकी यश व कीर्ति में वृद्धि होती थी। दतिया के राजा विजय बहाुदर ने संवत् 1904वि. (सन् 1847ई.) में ब्रज की तीर्थयात्रा की जिसका वर्णन उसने साथ गए प्रसिद्ध कवि पद्माकर भट्ट के पौत्र कवि गदाधर भट्ट की थी। सवंत 1904वि की भाद्र कृष्ण पंचमी सोमवार को शुभ मुहूर्त में राजा विजय बहादुर अपने विश्वस्त लोगों के साथ ब्रज यात्रा पर चले उसका वर्णन लिखते हुए- श्री राधा गोविन्द्र के प्रगटन भक्ति प्रभाव। श्री ब्रज मण्डल दरस हित, विजय नृपति किय चाव।। (विजय ब्रज विलास सर्ग 7 छंद 73) बहु भांति वर्ण सुवर्ण सुंदर मुद्रिका पचमेर की। कासी,उदैपुर,जोधपुर,जैपुर सु बीकानेर की। कलदार,दिल्ली, अकबरी, अजमेी, अलवर की बनी। ग्वालेर,पट्टन कालपी, उज्जैन ,सूरत की धनी।। (विजय ब्रज विलास सर्ग 7 छंद 75) गदाधर भट्ट रचित ‘विजय विलास’अप्रकाशित ग्रंथ है। इसी प्रकार से प्रतीतराम लक्ष्मण सिंह ने अपने आश्रयदाता दतिया के राजा भवानी सिंह की ब्रज यात्रा का विवरण लिखा है और उसका नाम ‘लोकेन्द्र ब्रजोत्सव’ (लोकेन्द्र ब्रजोत्वस ग्रंथ) सन् 1890ई. में प्रकाशित हुआ था इनका शासन काल सन् 1865-1925ई. तक था। कवयित्री पासवान खवासिन:- ब्रज की यात्रा के अतिरिक्त भवानी सिंह ने चारों धाम की यात्रा की थी इस यात्रा में उनकी प्रेयसी पासवान खवासिन उनके साथ थी। अपनी पुस्तक ‘तीर्थ यात्रा’ में पासवान खवासिन ने यात्रा का संक्षिप्त में वर्णन किया है। तीर्थ यात्रा की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कवयित्री पासवान ने लिखा- पग पवित्र तीरथ किये,मुख पवित्र किये नाम। तन पवित्र तिन नरन को, करैं धर्म के काम।। प्रवीण राय:- प्रवीण राय का जन्म ओरछा में अनुमानतः संवत-1630 वि.(सन् 1573ई.) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री माधवलुहार था प्रवीण राय ओरछेश रामशाह के भाई इन्द्रजीत ‘धीरज नरिन्द्र’ की पे्रयसी थी इनका निधन अनुमानतः संवत् 1690वि. में हुआ था। प्रवीण राय की प्रमुख रचनाएँ -1-नायिका भूषण(सत्रह छन्द), 2- प्रवीन विनोद(खण्डित प्रति) है। उपरोक्त रचनाओं का उल्लेख तो कई संदर्भ ग्रंथों में है पर किसी ने भी उनमें के छंदों का रंचमात्र भी वर्णन नहीं किया है। प्रवीण राय कुशल नृत्यांगना,उच्चकोटि की सुमधुर गायिका एवं कवयित्री थी। आचार्य केशवदास ने ‘कवि प्रिया’ ग्रंथ में राय प्रवीण की प्रंशसा में लिखा है- राय प्रवीन की सारदा,सुचि रुचि रंजित अंग। बीना पुस्तक धारिनी, राजहंस जुत संग।। बृषभ बाहिनी अंगयुत,वासुकि लसति प्रवीन। सिव संग सोहे सर्वदा,सिवा की राय प्रवीन। आचार्य केशवदास द्वारा प्रवीन राय को काव्य शिक्षा दी गई थी। फलस्वरूप आगे चलकर वह एक श्रेष्ठ कवयित्री सिद्ध हुई। राय प्रवीन की नृत्यकला,संगीत एवं काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर तत्कालीन ओरछेश रामशाह (1592-1605ई.) के भाई इन्द्रजीत जो स्वयं ‘‘धीरज नरिन्द्र’‘ नाम से काव्य सृजन करते थे तथा रामशाह की अनुपस्थिति में कार्यकारी ओरछेश रहते थे ने राय प्रवीन को अपनी प्रेयसी के रूप में स्वीकार कर ओरछा दुर्ग के अन्दर ही उसके निवास हेतु एक महल का निर्माण कराया। जो आज भी ‘प्रवीन राय महल’ के नाम से अच्छी स्थिति में विद्यमान है। महल के सामने एक विशाल बाग के चिन्ह अभी भी है। केशवदास ने लिखा है- तंत्री तुंवरू सारिका,सुद्ध सुरन सोंलीन। देव सभा-सी सोभिजै,राय प्रवीन प्रवीन।।45।। सत्या राय प्रवीन जुत,सुरतरु सुरतरु गेह। इन्द्रजीत तासों बंधे,‘केशवदास’हि देह।।46।।। श्री कन्हैया लाल जी शर्मा ‘कलश’ ने अपने एक आलेख ‘‘दिव्य नृत्यांगना रायप्रवीन’’ में रायप्रवीन द्वारा रचित एक पद सखी सम्प्रदाय में मिलने का उल्लेख किया है। जो निम्नानुसार है- टेक- उरझ गई को सुरझाय दिओ माधव। धु. अन्तरा- मोरे कर मंहदी लगी,सारी उघर गई। कैसे ओढूँ ओढ़नी,मैं अति विवस भई, उधर गई को अंगयाय लइयो माधव। उरझ गई.... रायप्रवीन हिये की बीना,तोरइ हात बजै, औरउ हाॅत लगै तो सबरे सुर आलाप तजै अपनोइ गुन गववाय जइयो माधन। उरझ गई........... श्री ‘कलश’ ने प्रवीनराय के दो ग्रंथ 1-नायिका भूषण(सत्रह छन्द) 2- प्रवीन विनोद (खण्डित प्रति) प्राप्त होने तथा इसके अतिरिक्त कुछ फुटकर छंद प्राप्त होने का उल्लेख किया है। रायप्रवीण के जन्म के बारे में कलश जी लिखते है कि-‘‘वरद्वारे (कछौआ पिछोर) में ‘रत्नाकर’ की लालित,सत्याराई प्रापलित,तोताराम पांडेय द्वारा परिवर्द्धित और ललता सखी नामधारी स्वामी हरिदास वैष्णव द्वारा संगीत कला में प्रस्फुटित ‘सावित्री’ नामी रूपोद्यान कलिका ही ओरछा राज्य दरवार की प्रवीण राई नाम से विख्यात हुई । वह आर्येतर पातुर कुल में संवत् 1642 में जन्मी थीं। इस विवरण हेतु कलश जी ने (राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली का लेख दृष्टव्य ) संदर्भ दिया है। इधर कलश जी यह भी लिखते है कि-‘महाराज ओरछेश इन्द्रजीत की वह प्रेमिका थी’ तथा- ‘कवीन्द्र केशव की वह शिस्या थी’। रत्नावली:- रत्नावली का जन्म राजापुर में अनुमानित सं. 1605 (सन् 1548ई.) माना गया है। रत्नावली तुलसीदास की पत्नी थीं। रत्नावली का कवयित्री के रूप में किसी साहित्य इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता। सोरो सामग्री में रत्नावली सम्बन्धी तीन ग्रथ्ंा मिलते हैं-1-रत्नावली, 2-रत्नावली लघु दोहा संग्रह, 3-दोहा रत्नावली। इनका अवलोकन तथा विश्लेषण करने से रत्नावली के 201 उपलब्ध दोहों में से 88 दोहों ‘रत्नावली या ‘रत्नावती’ और 82 में ‘रतन’ का पर्ण संकेत मिलता है। शेष दोहों में कोई नाम नहीं है विषय की दृष्टि से इनमें पति-श्रृद्धा,पति पे्रम तथा नीति को प्रस्तुत किया गया है। काव्य कला की दृष्टि से इन दोहों में उपलब्ध उपमानों सादृश्यमूलक व्यंजनाओं, उपमा, रूपक आदि का सराहनीय प्रयोग मिलता है। अभिव्यक्ति की सरसता सरलता ब्रजभाषा में व्यक्त हुई है। इस ब्रजभाषा में तत्सम तद्भव शब्दों का प्रयोग तो मिलता है,परन्तु अरबी-फारसी आदि के शब्दों का अभाव है। भाषा में कहंीं भी व्याकरण दोष नहीं मिलता और शब्द-चयन की सुष्ठुता श्लाघ बनी है। छंद प्रयोग में सीमित रहने के कारण कवयित्री ने केवल दोहा का ही प्रयोग किया है। गोस्वामी जी से रत्नावली द्वारा कहे गए दो दोहा तो बहुत ही प्रसिद्ध है। यथा- लाज न लागत आपुको, दोरे आयहु साथ। धिक-धिक ऐसे पे्रम को, कहा कहहँू मैं नाथ।। अस्थि चर्म मय देह यह, तामें जैसी प्रीति। तैसी जौं श्रीराम हैं, होत न तौ भयभीत।। तीन तरंग:- कवयित्री तीन तंरग का जन्म-ओरछा में संवत- 1610 वि. (सन् 1553 ई.) में हुआ था। तीन तंरग ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के आश्रित ओरछा दरबार की आश्रित वेश्या थी। उनका कविता काल-संवत् 1640वि. माना गया है। उन्होंने ‘संगीत अखाड़ा’ नाम से एक ग्रंथ की रचना की थीं। मधुर अली:- कवयित्री मधुर अली का जन्म ओरछा में संवत- 1615 वि. (सन् 1558 ई.) हुआ था इनका कविता काल संवत् 1640वि.माना गया है। कवयित्री मधुर अली राम काव्यधारा की सर्वप्रथम कवयित्री हैं। इनके द्वारा 1-राम चरित्र 2-गनेस देव लीला ग्रंथों की रचना की गयी थी। ये भी ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के आश्रित ओरछा दरबार की आश्रित वेश्या थी। महाकवि बलभद्र:- महाकवि बलभद्र मिश्र अत्यंत प्रतिभाशाली कवि थे इनके प्रमुख ग्रंथों में ‘सिखनख’, भाषा-भाष्य, बलभद्री व्याकरण, हनुमानाष्टक टीका, गोवर्द्धन समसई आदि बहुत प्रसिद्ध हुए। इनके समय में बुन्देलखण्ड में ओरछा, पन्ना, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, दतिया एवं सागर एक प्रमुख केन्द्रों के रूप मंे स्थापित होने लगे थे और यहाँ कवियों द्वारा बहुत से ग्रंथों की रचना की गयी। कवि चन्द्र सखी:- भक्ति रस सिद्ध कवि ‘चन््रदसखी’ हुए है इनका जन्म ओरछा में संवत्1589वि. में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जो ओरछा में महाराज उदैत सिंह के राज्याश्रय में राज-कवि रहे थे। इनके नाम को लेकर अनेक विद्वानों में मत-भेद था कि ये कवि है अथवा कवियत्री आदि इनका नाम दीवान प्रतिपाल सिंह के बुदेलखण्ड का बृहद इतिहास तथा पं. गौरी शंकर द्विवेदी के ‘बुंदेल वैभव’- में नहीं होने कारण ओरछा राज्य के पराभव के बाद‘चन्द्र सखी’ अन्य समकालीन कवियों की भांति राजस्थान चले गये थे। राजस्थान पत्रिका (राजस्थान- भारती) में अप्रैल सन् 1950 के अंक में अपने भजन छपे है। कवि चन्द्र सखी की मृत्यु वि.सं. 1656 में हुई थी। चन्द्र सखी बाल कृष्ण छवि की छाप वाले थे उनके भक्ति रस सिद्ध गये पद बहुत लोकप्रिय हुए। जैसे- कहन लागे मोहन मैया मैया। नंद बाबा जू से बावई बाबा बल्दाऊ से भैया। दूर खिलन जिन जाओं मोहन,मारैगी काहू की गैया।। ऊँचे अटा टेरौ जसौदा, लै लै नाम कन्हैया। एकन के दो-चार खेलत हैं, मेरा अकेलौ छैया। चंद्रसखी भज बाल कृष्ण छवि, जसुदा लेत बलैया।। कवि कन्हरदास:- कवि कन्हरदास का जन्म ग्राम पाथरेड़ी ओरछा राज्य में संवत् 1580 में हुआ था। पं. कन्हारदास महाराज मधुकर शाह (सं.1611-49वि.) प्रथम के गुरुदेव व वीर सिंह जू देव (1649-1675वि.) के मंत्री थे।जो श्रीरामराजा की ओरछा में प्रतिष्ठापना के अवसर दिए कंहरदास को पादाराघ रूप में ग्राम भसनेह की 311 बीघा जमीन देने के ताम्रपत्र से प्रमाणित है। अनेक पदों में इनकी छाप ‘कंहर’ लगी है। यथा- भजु सीयारामै कहौ करि मेरौ। अधम अधिक तरि गये नाम कहि लगौ नहीं दै देरौ। चढ़ी विमान गइी है गनिका अजामेल स्तुत टेरौ। कंहर राम नाम के कहत ही मिटि गयौ अंधेरौ।। कवि विक्रम:- कवि विक्रम का जन्म संवत् 1624-30वि.अनुमानित ग्राम चंदेरा में हुआ था। बाद में उनके वंशज जीरोन जिला टीकमगढ ़(म.प्र) में बस गये थे। इनकेपिता का नाम श्री प्रानसुख था। आपका प्रमुख ग्रंथ ‘सुदामा चरित्र’ है जिसमें 208 छंद है। स्वामी अग्रदास:- स्वामी अग्रदास का जन्म संवत 1632वि. में हुआ था। ये स्वामी रामानंद के शिष्य थे। इनके प्रमुख ग्रंथ अष्टयाम संस्कृति में ‘ध्यान मंजरी पदावली’ हिन्दी में एवं अनेक हस्त लिखित कुण्डलियाँ बुंदेली में प्राप्त हुई है। नवल सिंह प्रधान:- बुन्देल राजाओं की ब्रज यात्राओं पर स्वतंत्र रूप से विस्तार पूर्वक सबसे पहले ग्रंथ लिखने का श्रेय बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध कवि नवल सिंह प्रधान को हैं जिन्होंने सवंत 1879 (सन् 1822ई.) में अपने आश्रयदाता दतिया से राजा पारीक्षत की ब्रजयात्रा का वर्णन कर उसे ब्रज भूमि प्रकाश की संज्ञा दी। इस यात्रा में कवि स्वयं राजा के साथ थे अतः उन्होंने राजा पारीक्षत की तीर्थ यात्रा के दौरान प्रतिदिन का विवरण काव्यमय लिखा है और ब्रज मण्डल के तीर्थो का आँखों देख हाल लिखा। लाला परमानंद प्रधान:- लाला परमानंद प्रधान का जन्म तत्कालीन ओरछा राज्य की राजधानी टीकमगढ़ में फाल्गुन माह में कृष्ण पक्ष की दसवीं को संवत् 1907वि. में हुआ था। आपके पिता श्री जानकीदास एक प्रतिभाशाली रचनाकार थे ये ओरछा राज्य के महाराजा हम्मीद सिंह (1854-74ई.) के दरबारी कवि थे। जो कि जानकीदास उर्फ हरिदास ‘हरिजन’ नाम से कविता किया करते थे। इनके द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ काव्य ग्रंथ ‘तुलसी चिंता मणि’ हैं। जिसका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में किया है। उक्त ग्रंथ अप्रकाशित है लेकिन उसकी पांडुलिपि अभी तक सुरक्षित है। लाला परमानंद प्रधान ने 32 काव्य ग्रंथों की रचना की थी जिसमें अधिकांश ग्रंथ उनके अप्रकाशित है इन्हीं 32 ग्रंथों पर टीकमगढ़ के डाॅ. देवीप्रसाद खरे ने शोध कार्य कर पी-एच.डी. की थी। लाला परमानंद प्रधान द्वारा रचित 32 ग्रंथों में से 14 ग्रंथ भक्ति संबंधी ग्रंथ है। एवं 5 ग्रंथ नीति संबंधी भी लिखे है। लाला परमानंद प्रधान जी तुलसीदास की तरह सगुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि थे। उन्होंने श्री राम के विविध स्वरूपों को बहुत सुदर ढ़ंग से चित्रित किया हैं हिन्दी साहित्य में उन गिने चुने ऐसे कवियों में से है जो श्री राम का मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप चित्रित करने के साथ-साथ श्री राम का रसिक शिरोमणि प्रदर्शित करने वाला स्वरूप भी चित्रित करने ने नहीं हिचकिचाए। लाला परमानंद प्रधान ने अपने अद्वितीय महाकाव्य ‘प्रमोद रामायण’ में श्री राम का रसिक शिरोमणि स्वरूप वणर््िात किया है। ‘प्रमोद रामायण’ में 62 सर्ग है। चतुर्थ सर्ग(विलास) में रामचन्द्र जी का लोक भोगानन्द वर्णित किया गया है- 1-चंद्रद्वीप, 2-भद्रद्वीप, 3-पंगक द्वीप, 4-प्रभा द्वीप, 5-हय द्वीप, 6-गज द्वीप, 7-भोगानन्द। इसी भोगानंद में कौशल देश, मैथिल देश है जिनमें अयोध्या और मिथिलापुर नगर क्रमशः है। सप्तम द्वीप,सुभग सुख दाता। भोगानंद नाम अवदाता। कौशल देस मध्य तिहि केरे। तिमि मैथिल जुत देस घनेरे। नगर अयोध्या कौशल माहीं। मिथल मध्य मिथिला जाही।। लाला परमानंद प्रधान की ‘रामचरित मानस’ में अगाध श्रद्धा थी उन्होंने ‘मानस’ को आधार मानकर ही ‘मंजु रामायण, रामायण मानस दर्पण, रामायण मानस चंद्रिका एवं रामायण मानस तरंगिण(प्रकशित) आदि की गं्रथों की रचना की थी। इन चारों ग्रंथों की कथा ‘मानस’ की तरह सातों काण्डों में है। ‘रामायण मानस तरंगिणी’ तो लघु आकार की है जिसे एक घंटे में पूरा पढ़ा जा सकता है। श्री लाला परमांनंद जी मूलतः भक्ति भावना केकवि थे इसीलिए उनके काव्य में अधिकांशतः भक्ति भावमय दृष्टांतों की भरमार रही है। वर्ण चैंतीसी काव्य में एक-एक वर्ण से बनने वाले शब्दों से दोहा छंद में उन्होंने अनुपम प्रयोग करते हुए काव्य की रचना की है छन्द दृष्टव्य है- पावन परम प्रभाव प्रिय, प्रेम पियूष प्रवीन। पद पंकज पूरक प्रमुद, परमानंद पन पीन।। इनके अलावा अनेक कवि है कवि राजबली (सं.1580-90वि.),बीरबल (महेशदास) सं.1590विं., गोविंद स्वामी (स.ं1595वि.), कवि अमरेश (1600वि.), कवि परमेश (1590वि.),नरोत्तम दास (सं.1502वि.), आलम (सं. 1683वि.), राम मिश्र (1630वि.), आदि भक्तिकाल में बुंदेली धरा पर हुए है। इस प्रकार से भक्ति काल में बुन्देलखण्ड के अनेक कवियों द्वारा श्रेष्ठ ग्रंथ रचे गये थे जो कि हिन्दी साहित्य मे अपना विशेष महत्व रखते हैं। कालजयी होने के साथ-साथ वे आज भी उतने ही लोकप्रिय है जितने पूर्व में थे। इसीलिए भक्ति काल को ‘स्वर्णकाल’ या ‘स्वर्ण युग’ भी कहा जाता है। ---0000----  राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़ जिलाध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र,टीकमगढ़ शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail- ranalidhori@gmail.com Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com संदर्भ ग्रंथ:- 1-‘बुन्देली इतिहास और संस्कृति(2005)-संपादक-कपिल तिवारी,आलेख-डाॅ.काशी प्रसाद त्रिपाठी पेज-119 प्रकाशक आदिवासी लोक कला अकादमी,मध्यप्रदेश परषिद् भोपाल 2-बुन्देलखण्ड का बृहद इतिहास-डाॅ.काशीप्रसाद त्रिपाठी, (1991) पेज-152-154 3-हिंदंी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-संपादक-मीधा एन.सीरी, सन् 2018 पेज 47 4-‘ईसुरी’ अंक-22 (सन्-2019)-डाॅ. राजेन्द्र यादव (सागर) 5-‘बुन्देली इतिहास और संस्कृति(2005)-संपादक-कपिल तिवारी,आलेख-उदय शंकर दुवे पेज-189 प्रकाशक आदिवासी लोक कला अकादमी,मध्यप्रदेश परषिद् भोपाल 6-तुलसी ग्रंथावली- तृतीय खंड (वि.स.2033) नागरी प्रचारिणी सभा,वाराणसी 7-भक्ति का विकाप्त-संपादक- डाॅ. मुंशीराम शर्मा, चैखंडा सीरीज वाराणसी, सन् 2022ई. 8-बुन्देलखण्ड के अज्ञात रचनाकार-संपादक- डाॅ. गंगा प्रसाद बरसैया, पेज-28 9-बुन्देलखण्ड के रचनाकार ग्रंथ (2011)- संपादक-डाॅ. रमनारायण शर्मा (झाँसी) पेज-18 10-बुन्देलखण्ड़ की कवयित्रियाँ- संकलन एवं संपादन-हरिविष्णु अवस्थी प्रकाशक-आदिवासी लोक कला अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल 11- 11वी एवं 12वीं हिंदी नोट्स इन हिंदी-गूगल से साभार 12-कुछ सामग्री इंटरनेट गूगल से साभार -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़ शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail- ranalidhori@gmail.com Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com Date- 29-12-2023 Tikamgarh 00000000000000000000000000000000000000000000000000000000######### 2- आलेख -परसाई जी आज भी प्रासंगिक हैं:-         -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’         हिन्दी साहित्य में खासकर व्यंग्य साहित्य में जो स्थान हरिशंकर परसाई जी का है वह शायद अब तक किसी और का नहीं है उनके व्यंग्य आज भी प्रासंगिक हैं। परसाई जी को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है और इतना आसान भी नहीं है उनके व्यंग्य आप जितने बार पढ़ेगें वे हर बार कुछ नया सोचने पर विवश कर देते है। उनकी कलम की धार हर बार अंदर तक घाव कर देती हैं और पाठक को झकझोर देती हैं। परसाई जी के हर व्यंग्य विशिष्ट है चाहे वे ‘विकलांग श्रद्धा का दौर हो’ या ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’,भोलाराम का जीव या ‘सुनो भाई साधु’ हो सभी एक से बढकर एक हैं ये व्यंग्य किसी विश्वविद्यालयांे ंके पाठ्यक्रमों में शामिल होकर किसी अध्ययनरत छात्रों के लिए ही नहीं वरन् आम पाठक के लिए भी बहुत कुछ देते है जहाँ एक ओर वे वर्तमान किसी समस्या की ओर इंगित करते है तो वहीं उस समय की शासन व्यवस्था व राजनीति पर भी गहरी चोट करने से नहीं चूकते हैं। परसाई जी के व्यंग्य ऐसे लगते है जैसे चिकोटी काट ली, सुई चुभो दी गयी हो। उनके कुछ व्यंग्यों से लिए गए तीक्ष्ण कटाक्ष देखें- ‘गणतंत्र को उन्हीं हाथों की तालियाँ मिलती हैं जिनके मालिक के पास हाथ गरमाने के लिए गर्म कोट नहीं है।’’ ‘‘जिनकी हैसियत होती है वे एक से अधिक बाप रखते हैं एक घर में, एक दफ्तर में एक-दो बाजार में,एक-एक हर राजनीति दल में।’’ ‘‘हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं। संस्कारों से समांमवादी है, जीवन मूलय अर्द्ध-पूंजीवादी है, और बाते समाजवाद की करते हैं।’’ हिंदी के उफान का दौर जब-जब आता है। कुकुर की सब्जी पक जाती है और भाप निकलने लगती है। तब एकाध आंदोलन एक-दो दिन चल जाता है। ‘आत्म विश्वास कई प्रकार का होता है धन का, बल का, ज्ञान का लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता हैं।’ परसाई जी ने अपने व्यंग्यों में समाज में व्याप्त समस्याओं को एवं विसंगतियों का बखूबी चित्रित किया हैं जो कि सीधे चोट करती हंै। उन्होंने अपने स्तंभ लेखन में अनेक व्यंग्यों में राजनीति पर गहरी चोट की है जैसे ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ उनकी एक बेहतरीन व्यंग्य है जो कि उस समय की राजनीति पर गहरा व्यंग्य करता है। परसाई के व्र्यंग्य कालम ‘सुन भाई साधु’ एवं ‘माजरा क्या है’ आदि बहुत चर्चित रहे। भले ही उन्होंने उस समय समाचार पत्रों के लिए तत्कालीन समय एवं घटनाओं पर कलम चलायी हो लेकिन उनके लिखे वे व्यंग्य आज भी प्रासंगिक हैं। परसाई ने जहाँ माक्र्सवादी चिंतन दर्शन आदि को भारतीय दृष्टिकोण से देखा तो, वहीं सामान्य ग्रामीण जन के अंतर्विरोधों को भी अपने व्यंग्य में बखूबी ढाला है। परसाई जी ने अपने जीवन में एकमात्र व्यंग्य लघु उपन्यास ‘रानी नागफनी’ लिखा है, जो कि एक फेंटेसी है। परसाई ने अपनी कहानियों एवं व्यंग्यों ंमें विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया गया ‘जैसे उनके दिन फिरें, वहीं, राग-विराग, निठल्ले की डायरी, देश भक्ति का पालिस. आदि प्रमुख है। परसाई जी ने उस समय भारत में अंधविश्वास, ढोंग,पाखंड, धर्मिक कट्टरता, कर्मकांड, शोषण, दमन,अन्याय,दुराग्रहों, एवं विसंगतियों आदि पर व्यंग्य लिखकर समाज को चेताया है कि ये सभी देश के आर्थिक विकास में अवरोध है इन्हें दूर करना चाहिए। यही कारण है कि परसाई जी ने उस समय के लोगों की दुखती रग को जाना है और अपने व्यंग्य के माध्यम से उसे उजागर किया है। तभी तो उनके व्यंग्य सीधे पाठकों के असर करते थे यही गुण कहानी सम्राट प्रेमचन्द्र जी में था उन्होंने भी अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण जीवन का बहुत बारीकी से वर्णन किया है। आज के अधिकांश लेखक चाहे वे किसी भी विधा में लिखते हों, वो वामपंथी एवं दक्षिणपंथी दो खेमों में बँटे हुए दिखाई देते हैं। वे अपने खेमों के प्रबल पक्षणर होते है जबकि एक अच्छे व्यंग्यकार को किसी भी खेमें दल या राजनीति से प्रभावित नहीं होना चाहिए उसका लेखन स्पष्ट होना चाहिए दूसरों की कमियों के बताने हुए उसे स्वयं के भीतर भी छाँंककर देखना चाहिए। एक लेखक की दृष्टि साफ होनी चाहिए उसमें पक्षपात नहीं होना चाहिए तभी वह लेखन सार्थक होता है यही कारण है कि परसाई जी ने उस समय जो देखा उसे बेझिझक बिना किसी से डरे अपने व्यंग्यों मे व्यक्त कर दिया है।ं यही कारण है कि परसाई जी माक्र्सवादी होने के बाद भी माक्र्सवादियों के अंतर्विरोधों का समय-समय पर उजागर करने से भी नहीं चूकते थे। उनके अनेक व्यंग्य आप खुद समझ जाएँगें। आज भले ही अपने स्वार्थ के लिए एवं सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कुछ तथाकथिक आलोचक परसाई जी को बौना साबित करने में लगे हैं लेकिन वे परसाई जी की बराबरी कभी नहीं कर सकते। परसाई जी के सामने वे मात्र उस दिये के सामान है, जो एक व्यंग्य के सूरज के सामने रखा है। --0000---- आलेख   राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका   संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़   जिलाध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र,टीकमगढ़ शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail-   ranalidhori@gmail.com       Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com Date-31-12-2023 Tikamgarh  

आलेख -परसाई जी आज भी प्रासंगिक हैं-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’

आलेख -   परसाई जी आज भी प्रासंगिक हैं  
                                  -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’     

    हिन्दी साहित्य में खासकर व्यंग्य साहित्य में जो स्थान हरिशंकर परसाई जी का है वह शायद अब तक किसी और का नहीं है उनके व्यंग्य आज भी प्रासंगिक हैं। परसाई जी को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है और इतना आसान भी नहीं है उनके व्यंग्य आप जितने बार पढ़ेगें वे हर बार कुछ नया सोचने पर विवश कर देते है। उनकी कलम की धार हर बार अंदर तक घाव कर देती हैं और पाठक को झकझोर देती हैं। 
             परसाई जी के हर व्यंग्य विशिष्ट है चाहे वे ‘विकलांग श्रद्धा का दौर हो’ या ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, भोलाराम का जीव या ‘सुनो भाई साधु’ हो सभी एक से बढकर एक हैं ये व्यंग्य किसी विश्वविद्यालयांे ंके पाठ्यक्रमों में शामिल होकर किसी अध्ययनरत छात्रों के लिए ही नहीं वरन् आम पाठक के लिए भी बहुत कुछ देते है जहाँ एक ओर वे वर्तमान किसी समस्या की ओर इंगित करते है तो वहीं उस समय की शासन व्यवस्था व राजनीति पर भी गहरी चोट करने से नहीं चूकते हैं। परसाई जी के व्यंग्य ऐसे लगते है जैसे चिकोटी काट ली, सुई चुभो दी गयी हो। 
          उनके कुछ व्यंग्यों से लिए गए तीक्ष्ण कटाक्ष देखें- 
 ‘गणतंत्र को उन्हीं हाथों की तालियाँ मिलती हैं जिनके मालिक के पास हाथ गरमाने के लिए गर्म कोट नहीं है।’’ 

 ‘‘जिनकी हैसियत होती है वे एक से अधिक बाप रखते हैं एक घर में, एक दफ्तर में एक-दो बाजार में,एक-एक हर राजनीति दल में।’’ 

 ‘‘हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं। संस्कारों से समांमवादी है, जीवन मूलय अर्द्ध-पूंजीवादी है, और बाते समाजवाद की करते हैं।’’
 हिंदी के उफान का दौर जब-जब आता है। कुकुर की सब्जी पक जाती है और भाप निकलने लगती है। तब एकाध आंदोलन एक-दो दिन चल जाता है। 

 ‘आत्म विश्वास कई प्रकार का होता है धन का, बल का, ज्ञान का लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता हैं।’
                परसाई जी ने अपने व्यंग्यों में समाज में व्याप्त समस्याओं को एवं विसंगतियों का बखूबी चित्रित किया हैं जो कि सीधे चोट करती हंै। उन्होंने अपने स्तंभ लेखन में अनेक व्यंग्यों में राजनीति पर गहरी चोट की है जैसे ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ उनकी एक बेहतरीन व्यंग्य है जो कि उस समय की राजनीति पर गहरा व्यंग्य करता है। 
                   परसाई के व्र्यंग्य कालम ‘सुन भाई साधु’ एवं ‘माजरा क्या है’ आदि बहुत चर्चित रहे। भले ही उन्होंने उस समय समाचार पत्रों के लिए तत्कालीन समय एवं घटनाओं पर कलम चलायी हो लेकिन उनके लिखे वे व्यंग्य आज भी प्रासंगिक हैं। 
             परसाई ने जहाँ माक्र्सवादी चिंतन दर्शन आदि को भारतीय दृष्टिकोण से देखा तो, वहीं सामान्य ग्रामीण जन के अंतर्विरोधों को भी अपने व्यंग्य में बखूबी ढाला है। परसाई जी ने अपने जीवन में एकमात्र व्यंग्य लघु उपन्यास ‘रानी नागफनी’ लिखा है, जो कि एक फेंटेसी है। 
             परसाई ने अपनी कहानियों एवं व्यंग्यों ंमें विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया गया ‘जैसे उनके दिन फिरें, वहीं, राग-विराग, निठल्ले की डायरी, देश भक्ति का पालिस. आदि प्रमुख है। परसाई जी ने उस समय भारत में अंधविश्वास, ढोंग,पाखंड, धर्मिक कट्टरता, कर्मकांड, शोषण, दमन,अन्याय,दुराग्रहों, एवं विसंगतियों आदि पर व्यंग्य लिखकर समाज को चेताया है कि ये सभी देश के आर्थिक विकास में अवरोध है इन्हें दूर करना चाहिए। 
           यही कारण है कि परसाई जी ने उस समय के लोगों की दुखती रग को जाना है और अपने व्यंग्य के माध्यम से उसे उजागर किया है। तभी तो उनके व्यंग्य सीधे पाठकों के असर करते थे यही गुण कहानी सम्राट प्रेमचन्द्र जी में था उन्होंने भी अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण जीवन का बहुत बारीकी से वर्णन किया है। 
            आज के अधिकांश लेखक चाहे वे किसी भी विधा में लिखते हों, वो वामपंथी एवं दक्षिणपंथी दो खेमों में बँटे हुए दिखाई देते हैं। वे अपने खेमों के प्रबल पक्षणर होते है जबकि एक अच्छे व्यंग्यकार को किसी भी खेमें दल या राजनीति से प्रभावित नहीं होना चाहिए उसका लेखन स्पष्ट होना चाहिए दूसरों की कमियों के बताने हुए उसे स्वयं के भीतर भी छाँंककर देखना चाहिए। 
          एक लेखक की दृष्टि साफ होनी चाहिए उसमें पक्षपात नहीं होना चाहिए तभी वह लेखन सार्थक होता है यही कारण है कि परसाई जी ने उस समय जो देखा उसे बेझिझक बिना किसी से डरे अपने व्यंग्यों मे व्यक्त कर दिया है।ं 
         यही कारण है कि परसाई जी माक्र्सवादी होने के बाद भी माक्र्सवादियों के अंतर्विरोधों का समय-समय पर उजागर करने से भी नहीं चूकते थे। उनके अनेक व्यंग्य आप खुद समझ जाएँगें। आज भले ही अपने स्वार्थ के लिए एवं सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कुछ तथाकथिक आलोचक परसाई जी को बौना साबित करने में लगे हैं लेकिन वे परसाई जी की बराबरी कभी नहीं कर सकते। 
       परसाई जी के सामने वे मात्र उस दिये के सामान है, जो एक व्यंग्य के सूरज के सामने रखा है।
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आलेख  - राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
 संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका 
  संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका 
 अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़  
 जिलाध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र,टीकमगढ़ 
 शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail-   ranalidhori@gmail.com       
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