Rajeev Namdeo Rana lidhorI

रविवार, 31 दिसंबर 2023

Bundelkhand ka itihas - samgarh By Ramgopal raikwar,vijay mehra and Rajeev namdeo rana lidhori Tikamgarh

1-जमड़ार: उद्गम से संगम तक 
 2-नरवर चढ़ै न बेड़नी........... (यात्रा वर्णन) 

  1-जमड़ार: उद्गम से संगम तक 
घुमक्कड़ी दिनांक 25.11.2023 शनिवार- 

बुन्देलखण्ड के ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात कुण्डेश्वर जमड़ार नदी के तट पर स्थित होने के कारण जमड़ार नदी का नाम किसी से अपरिचित नहीे है। बहुत दिनों से इसके उद्गम के बारे में जानने की इच्छा थी सो आज की घुमक्कड़ी में जमड़ार के उद्गम स्थल तक जाने का मन था। जिसके बारे में सुना था कि मड़ावरा के निकट कहीं है। साथ ही समय रहा तो सीयाडोणी (सीरौन) जाने की भी इच्छा थी। 
             नामकरण-कारण - जमड़ार नदी के बारे में कई लोक और भद्र मान्यताएँ प्रचलित हैं। लोक मान्यता के अनुसार इसमें स्नान करने से यम की डाढ़ से मुक्ति मिल जाती है। हो सकता है इसी लोक मान्यता के कारण इसे जमबिड़ार (यम को भगानेवाली) कहते हों जो बाद में जमड़ार हो गया हो। आचार्य दुर्गाचरण जी शुक्ल के अनुसार जामनी या जामनेर नदी का पौराणिक नाम ‘जम्बुला’ तथा इसकी सहायक नदी जमड़ार का पौराणिक नाम ‘यमदंष्टा’ है। यमदंष्टा शब्द ही बिगड़कर कालान्तर में जमडाढ़ और अंततः जमड़ार बन गया। माना जाता है कि प्राचीन समय में इन नदियों के पास ‘जृम्भला’ नामक राक्षसी रहती थी। उसका नाम सुनकर ही गर्भवती स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे। 
           आचार्य शुक्ल जी के अनुसार प्रसूता स्त्री की प्रसव-पीड़ा कम करने या सुरक्षित और कठिनाई रहित प्रसव के लिए थाली में निम्नाकिंत मंत्र लिखकर उसे पानी में घोलकर पिलाया जाता था। पुरातु जम्बुलातीरे जृम्भला नाम राक्षसी। तस्याः स्मरेणमात्रेण विषल्य गर्भिणी भवेत।। यह भी संभव है कि बाढ़ और तेज प्रवाह के समय इसे पार करना यम की डाढ़ (मौत के मुँह) में जाने जैसा हो इसलिए इसे जमडाढ़ कहते हों जो मुख सुख के कारण जमड़ार हो गया हो। अस्तु, पाठकगण नामकरण का जो भी कारण सटीक लगे, मान सकते हैं।        
           खोजबीन- रास्ते में बावरी के पास एक ग्रामीणजन से पूछा तो उन्होंने भी बताया कि जमड़ार मड़ावरा के पास एक बँधिया से निकलती है। सैदपुर के कमलसिंह (जिनकी दुकान पर मैं प्रायः रुकता हूँ) ने अंदाज से बताया कि गिरार रोड पर किसी गाँव के पास जमड़ार नदी निकली है। गिरार रोड पर पता चला कि जमड़ार नदी का उद्गम मड़ावरा (जिला ललितपुर) कस्बे के पास महरौनी रोड पर मण्डी के पास ही है और जमड़ार का मूल माने जानेवाले नाले पर एक पुल बना है। सो वापस लौटना पड़ा। उद्गम - जमड़ार का उद्गम स्थल रनगाँव और साढ़ूमल ग्रामों की सीमा पर रोड के किनारे ‘इमला बाबा’ के पास मतवारा के एक नाले से माना जाता है जिसमें आस-पास के खेतों का पानी सिमटकर नाले का रूप धारण कर लेता है। इस नाले पर एक बड़ा-सा बँधान या बँधिया बनी है जिसे मलखान का बंधा कहते हैं। ये सब स्थान जमड़ार नदी का उद्गम क्षेत्र हैं। उद्गम स्थान देखकर फिर गिरार रोड पर जाना पड़ा क्योंकि सीरौन जाने का रास्ता वहीं से जाता है। पर सीरौन की यात्रा से पहले आप लोगों को जमड़ार की उद्गम से लेकर संगम तक की जमड़ार यात्रा करा देना चाहता हूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे। विकास - बँधान के पास कुछ और नालों के मिलने से बनी कुछ बड़ी जलधारा जमड़ार नदी के रूप में केवलारी ग्राम जा पहुँची है। 
           सन् 2017 में यहाँ ‘जमरार’ बाँध बना दिया गया है। अपने पूर्ण भराव पर जमरार बाँध की झील बहुत ही सुन्दर दिखाई देती है। भराव क्षेत्र में जल में डूबे सूखे-अधसूखे पेड़ों पर बैठे बगुले और अन्य पक्षी देखते ही बनते हैं। केवलारी के बाद जमड़ार घाट खिरिया और अस्तोन ग्रामों के बीच से बहती हुई नीमखेरा के पूर्व में पहुँचती है। बीच में इसके पास पांड़ेर और नचनवारा ग्राम भी बसे हैं। 
              कुण्डेश्वर के पास इसके दाँए तट पर जमड़ार ग्राम बसा है। पहाड़ीतिलवारन की ओर से एक बड़ा-सा ‘उरदौरा’ नाला इसमें आकर मिलता है। जमड़ार नदी कुण्डेश्वर में सड़क पुल के बाद और उषा कुण्ड के पहले दो धाराओं में बँट जाती है। एक पतली जल धारा सिद्ध टेकरी के पीछे से बहती हुई ‘अजयपार की दहर’ (अजय अपार हृद) के सामने जामनी नदी में मिल जाती है। दूसरी मुख्य जलधारा उषा कुण्ड में गिरकर एक छोटा-सा प्रपात बनाती है। 
              उषा की साधना स्थलीः कुण्डेश्वर- लोक मान्यता है कि जमड़ार और जामनी के संगम और जमड़ार की एक शाखा के टापू पर स्थित ‘खैराई वन’ (खदिर वन) के दूसरी ओर जामनी नदी के बाएँ किनारे पर बसा बानपुर बाणासुर की राजधानी था। बाणासुर की पुत्री उषा खैराई से आकर जमड़ार नदी द्वारा बनाए गए एक गहरे कुण्ड में भगवान शिव की साधना करती थी। उषा के आने पर कुण्ड फटकर दो भागों में बँट जाता था जिससे उषा कुण्ड के भीतर प्रवेश कर भगवान शिव की आराधना में प्रातःकाल तक लीन हो जाती थी। 
                 एक दिन संदेह होने पर बाणासुर ने उषा का पीछा किया पर वह कुण्ड में प्रवेश नहीे कर सका। उषा के कुण्ड से बाहर आने पर बाणासुर ने इसका रहस्य पूछा तो उषा ने बताया कि कुण्ड में भगवान शिव का निवास है और वह उनका पूजन करने ही यहाँ आया करती है। यह जानकर बाणासुर ने भगवान शिव के दर्शन पाने के लिए एक पैर पर खड़े होकर घोर तपस्या की। उसके तप से प्रसन्न होकर शिव जी ने उसे दर्शन दिए और वहीं शिवलिंग के रूप में स्थित हो गए। कालान्तर में उनके पुनः प्रकट होने की कथा से पाठकगण परिचित ही हैं। कुण्डेश्वर मंदिर आज एक प्रसिद्ध तीर्थ है। शिवरात्रि और मकर संक्रांति के विशाल मेलों के अतिरिक्त सोमवार, श्रावण मास और अन्य त्योहारों के अतिरिक्त नित्य ही बड़ी संख्या में दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं। संगम - जमड़ार के ‘उषा-कुण्ड’ के पास एक चालीस फुट ऊँची चट्टान पर एक सुन्दर कोठी का निर्माण महाराजा प्रतापसिंह ‘बब्बा जू’ ने कराया था। इसे कुण्ड कोठी कहते हैं। 
          महाराजा वीरसिंह जू देव ‘द्वितीय’ इसे ‘ईगल नेस्ट’ या ‘गरुड़-वास’ कहते थे। सन् 1937 से सन् 1952 तक साढ़े चौदह साल इस कोठी में दादा पं. बनारसीदास चतुर्वेदी रहे। आजकल इसमें ‘पापट संग्रहालय’ स्थापित है। कुण्ड के कृत्रिम जलप्रपात के रपटे के नीचे छह छिद्रों से पानी की धार कुण्ड में गिरती है। इसे देखकर आचार्य वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने इसे ‘षडानन प्रपात’ का नाम दिया था। वृद्धजन बताते हैं कि इस कुण्ड में बड़ी-बड़ी मछलियाँ थीं जिन्हे राज्य की ओर से आटे की गोलियाँ बनाकर खिलाई जाती थीं। 
              रपटे के दूसरी ओर ‘सिद्ध टेकरी’ है। जिसके बारे में कई चमत्कार कथाएँ प्रचलित हैं। खैराई वन को बनारसी दास जी ‘मधुवन’ कहते थे। आज भी इसमें हिरण, चीतल, नीलगाय, शूकर, लाल और काले मुँहवाले बंदर, मोर आदि सहित बड़ी संख्या में अजगर विचरण करते देखे जा सकते हैं। इस खैराई वन में चंदन, खैर (कत्था), पारस-पीपल, बेल, सागौन, केम, पलाश, सियारी (शेफाली) और अर्जुन (कवा) आदि के पेड़ हैं।               राजाशाही काल में यहाँ कत्था भी बनाया जाता था। कुण्ड के बाद कुछ आगे एक रमणीक स्थान है जिसे ‘अमरनाथ’ कहते हैं। खैराई के उत्तर-पश्चिम में जमड़ार नदी की मुख्य धारा भी बरी घाट के आगे जामनी नदी से मिल जाती है और इस तरह अपनी यात्रा पूरी करती है। 
      (संदर्भ- सिद्धतीर्थः श्री कुण्डेश्वर धाम, लेखक पं गुणसागर ‘सत्यार्थी’) अगले भाग में जैन क्षेत्र सीरौन -रामगोपाल रैकवार
नरवर चढ़ै न बेड़नी........... (यात्रा वर्णन) -रामगोपाल रैकवार

              घुमक्क्ड़ी दिनांक 09.12.2023: ऐतिहासिक उपन्यास सम्राट वृन्दावनलाल वर्मा के सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास ‘मृगनयनी’ में दी गईं बुन्देलखण्ड में प्रचलित ये पंक्तियाँ ‘‘नरवर चढ़ै न बेड़नी, बूँदी छपै न छींट। गुदनौटा भोजन नहीं, एरच पकै न ईंट’’ दीर्घ काल से स्मृति पटल पर अंकित थीं तो इन पंक्तियों से जुड़े नरवर किले की एक अनदेखी छवि भी मानस पटल पर अक्सर उभर आती थी। 
            इस मानस छवि को साकार करने का अयाचित आमंत्रण 4-8 दिसम्बर को भोपाल में आयोजित कार्यशाला में मिला तो कुछ समस्याओं के रहते हुए भी उससे इंकार न कर सका। वैसे भी आमंत्रण औपचारिक न होकर प्रबल आत्मीयता से संपृक्त हो तो ‘तो कोई कैसे करे इंकार’ वाली स्थिति मेरे साथ रहती है। मेरे पुराने कार्यशाला सहयोगी और मित्र मनीष जी जैन (शिवपुरी) के पैतृक निवास ‘नरवर’ में नौ दिसम्बर को शान्ति पाठ का आयोजन था। उन्होंने कार्यशाला में उपस्थित और अनुपस्थित सभी महानुभावों और महानुभावाओं को आमंत्रित किया पर मेरे, विजय शर्मा और लोकेश जी (सपत्नीक) के सिवा विभिन्न कारणों से अन्य कोई उसे स्वीकार नहीं कर पाया। (बहन रामसेवी भी सम्मिलित होना चाहती थीं पर उन्हें कुछ बाधाएँ थी। वैसे भी देर रात ग्वालियर पहुँचना फिर सुबह नरवर आना सरल नहीं था। वैसे तय यही हुआ कि वे सुबह डबरा आकर विजय-परिवार के साथ नरवर आ जाएँगीं।) मनीष जी ने भी देर नहीं की और तत्काल 8.12.23 की रात में एक स्लीपर बस में हम लोगों की सीट सुरक्षित करवा दी। 
                  अस्तु, आठ तारीख को रात 10 बजे भोपाल से शिवपुरी के लिए प्रस्थान और सुबह लगभग 5 बजे हम वहाँ के एक शानदार होटल में ‘चैक इन’ कर चुके थे। जहाँ हमें दो घण्टे अपनी रात की आधी-अधूरी नींद की कुछ क्षतिपूर्ति करने और ब्रेकफास्ट करने के बाद कार द्वारा दोपहर तक नरवर पहुँचना था। साथ ही विजय जी द्वारा बनाए गए कार्यक्रम के अनुसार रास्ते में हमें सिंध नदी पर निर्मित अटल सागर बाँध (मढ़ीखेड़ा) को देखना था और टपकेश्वर महादेव के दर्शन करने थे। कुछ सामान्य से विलम्ब के बाद हम तीनों ( डॉ.लोकेश खरे, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती माधुरी और लेखक) नरवर गढ़ पर चढ़ाई करने करने के लिए चल पड़े। अटल सागर बाँध (मढ़ीखेड़ा) - शिवपुरी से अटल सागर की दूरी लगभग 35 किमी है। नरवर मार्ग पर दाई ओर दो किमी की दूरी पर सिंध नदी पर बना यह बहुउद्देशीय बाँध इस अंचल का सबसे बड़ा बाँध है जो सिंचाई, जल विद्युत और पेयजल की आपूर्ति के लिए 2008 में बनकर तैयार हुआ था। इसकी 20-20 मेघावाट की तीन यूनिटों में 60 मेघावाट बिजली बनाने की क्षमता है। बरसात के दिनों में गेट खुलने पर इसे देखने भीड़ उमड़ पड़ती है। फिलहाल इस साल यह पूरा नहीं भरा है। गेट खुलने पर उद्यान के ऊपरवाले व्यू प्वांइट से अच्छा दृश्य दिखाई देता होगा पर अभी ऐसा कुछ नहीं था। 
              वहाँ से हम बाँध के ऊपर आए और कुछ क्या ढेर सारे फोटोग्राफ्स लिए जैसा कि ऐसे स्थानों पर लिए ही जाते हैं। धुंध होनेे कारण कितने साफ आते हैं यह बाद में देखेंगे। टपकेश्वर महादेव- बाँध देखने के बाद मुख्य सड़क पर वापस आकर हम नरवर की ओर बढ़े। सिंध नदी घूमकर हमारे रास्ते में आ गई थी पर बाधक नहीं बनी क्योंकि उस पर पुल बना था। पास में ही विद्युत उत्पादन संयंत्र है। सिंध नदी हमारे बाईं ओर थी और उसका निर्मल कल-कल बहता जल तथा किनारों पर हरी-भरी वृक्षावलि अत्यंत मनमोहक दृश्य का निर्माण कर रही थी। अगर पाठक इसे अतिशयोक्ति न मानें तो सिंध नदी की यह घाटी कश्मीर की सिंध नदी (सिंधु नदी दूसरी है) की घाटी से कुछ कम रमणीक नहीं थी। नदी की कल-कल बहती धारा को देखकर माधुरी की इच्छा तो कुछ देर उसके किनारे बैठने की थी। 
              नदी की ओर निगाह होने से ह़म टपकेश्वर मंदिर वाला रास्ता छोड़ आगे बढ़ गए तभी मेरी नज़र एक पुराने बोर्ड पर पड़ी जिस पर टपकेश्वर महादेव लिखा था। मैंने ड्राइवर मुकेश जी को बताया। हमने रुककर वहाँ से गुजर रहे एक सज्जन से पता किया तो उन्होंने बताया कि हम कुछ आगे आ गए हैं। खैर लौटकर हम बगल की पहाड़ियों पर डामरवाली एक सँकरी सड़क से तीन-चार सौ मीटर ऊपर गए जहाँ से एक सीढ़ीदार रास्ता टपकेश्वर महादेव गुफा-मंदिर की ओर गया था। नीचे एक शिला पर भगवान शिव की मानवाकृति स्थापित है। जब हम लोग सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे तभी शिवपुरी के डीपीसी महोदय अपने कुछ साथियों के साथ नीचे उतरते मिले। ये लोग भी मनीष जी के यहाँ आमंत्रित थे और नरवर जा रहे थे। उनके दो-तीन साथी एक बार फिर मंदिर जाने और मार्गदर्शन के लिए हमारे साथ साथ हो लिए। 
                सीढ़ियों की शुरुआत में ही एक बोर्ड लगा है जिस पर यहाँ आनेवाले श्रद्धालुओं से अनुरोध किया गया है कि वे मंदिर आते समय नीचे रखे ईंट/गुम्मों को यथाशक्ति उठाकर ले आएँ। श्रमदान का यह अच्छा तरीका था पर वहाँ उस समय ले जाने योग्य कोई सामग्री नहीं थी। इन घुमावदार सीढ़ियों की संख्या लगभग 300 है जिनकी ऊँचाई कम होने से आसानी से चढ़ा जा सकता है। ऊपर पहाड़ी की शिलाओं ने टूटकर एक कगार बना दी है। इस कगार पर नीचे कुछ शिलाएँ क्षरित हो गई हैं जिससे लगभग सौ-डेढ़ सौ फुट लम्बी कंदरा बन गई है। इसी कंदरा के एक भाग में पहाड़ से पानी टपकता है जो यहाँ स्थापित शिवलिंग के ऊपर गिरता है। जल की बूँदों के निरन्तर टपकने से ही इन्हें टपकेश्वर महादेव कहा जाता है।
                 ऐसी लोक मान्यता है कि इन्हें स्वयं भगवान श्री राम ने स्थापित किया था। प्रांगण में श्री हनुमान जी की विशाल प्रतिमा भी स्थापित है। कंदरा की एक गुहा में माँ दुर्गा सहित नौ देवियों की स्थापना भी की गई है। नौ देवी मंदिर की गुफा की छत को सीलिंग लगाकर सुसज्जित कर दिया है। इसी के बगल में सूर्य भगवान को समर्पित एक गुफा मंदिर है। परिसर में राम-जानकी और ब्रह्मा जी के मंदिर भी हैं। हमें बताया गया कि पहाड़ के ऊपर तीन कुंड भी है जो भैरव कुंड, गणेश कुंड और शेर कुंड कहलाते हैं। 
                 भक्तों का कहना है कि यहाँ एक शेर भगवान शिव की आराधना के लिए आता है और इसी कुंड में पानी पीता है। यहाँ कुछ साधु और तपस्वीगण रहते हैं। तपस्वी महाराज ओमकारनंद जी वर्षाकाल में निरन्तर चार महीने (चातुर्मास) एक अँधेरी गुफा में रहकर साधना करते हैं और दीपावली पर बाहर आते हैं। ऐसी मान्यता है कि टपकेश्वर महादेव से की कामना पन्द्रह दिनों में अवश्य पूरी होती है। 
                धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ टपकेश्वर महादेव एक प्राकृतिक रमणीय स्थल है। विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे और लताएँ मन मोह लेती हैं। नीचे आते समय सीढ़ियों पर एक शेफाली या सियारी वृक्ष बहुत ही सुन्दर लग रहा था तो उसके सामने खड़े होकर कुछ फोटोग्राफ्स लेना बनते ही थे। सफेद छाल और चिकने पत्तों वाले इस वृक्ष को इस तरफ क्या कहते पता नहीं। 
              बंदरों की भी भरमार है जब हम नीचे आए तो वे हमारी कार पर बैठकर उसकी रखवाली करते मिले। वैसे वे करने को तो बहुत कुछ कर सकते थे पर हमारी कार के शीशे बंद थे। दोपहर हो चुकी थी और अभी हमारी खास मुहीम बाकीं थी सो टपकेश्वर महादेव को प्रणाम कर हम नरवर की ओर चल पड़े।
              नरवर यहाँ 5 किमी ही रह गया था। नरवर पहुँचकर मनीष जी को फोन किया और कार्यक्रम स्थल की सही स्थिति पता कर बस स्टेण्ड के निकट जैन मंदिर पहुँच गए। तभी डबरा से विजय भाई भी अपनी कार में पत्नी और पुत्र सहित आ गए। जैन मंदिर में शान्ति पाठ का संगीतमय आयोजन चल रहा था। मनीष जी हम लोगों का आत्मीय स्वागत कर अंदर ले गए। 
             कुछ देर हमने भी शान्ति पाठ में सहभागिता की। चूँकि नरवर गढ़ पर चढ़ाई करने से पहले मुझे अपने एक घाव की ड्रेसिंग भी करानी थी (पता नहीं चढ़ाई कितनी कठिन हो और कितने घाव खाने पड़ें।) इसलिए मैंने विजय जी पकड़ा और उन्होंने एक स्थानीय मित्र को मेरे साथ कर दिया जिन्होंने अपनी मोटर साइकिल से ले जाकर अपने मित्र डॉक्टर के क्लीनिक पर अच्छी तरह से ड्रेसिंग करा दी। इस ‘अतिथि सत्कार’ के लिए मुझे उनका और डॉक्टर साहब का मात्र धन्यवाद ही ज्ञापित करना पड़ा। ड्रेसिंग के बाद वापस जैन मंदिर पहुँचा तो सब लोग मेवा-मिष्ठान का नाश्ता कर रहे थे बल्कि ये कहिए कि कर चुके थे। गनीमत यह थी कि समाप्त नहीं किया था (मेरा मतलब सामग्री को) अतः यह काम मुझे करना पड़ा।
                अब हम नरवर किले पर चढ़ाई के लिए पूरी तरह तैयार थे। लोकेश जी के सेनापतित्व में हमने नगरकोट के द्वार पर आक्रमण कर दिया पर नगरवासियों ने ट्रेक्टर ट्राली, कार, मोटरसाइकिल आदि अड़ाकर (जाम लगाकर) हमारा रास्ता रोक दिया। आखिरकार हम उन्हें धकेलकर आगे किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ ही गए।

               पिसनहारी दरवाजा- पाठकों को याद होगा कि नरवर दुर्ग पर चढ़ाई करते समय नरवर के नागरिकों ने जाम लगाकर हमें कुछ देर के लिए रोक लिया था पर हम भी कुछ कम नहीं थे इस बाधा को पार कर हम किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ गए। सँकरी गलियों से होते हुए हम अपने रथ (कार) और घोड़ों (मोटरसाइकिलों) पर सवार होकर मुख्य दरवाजे के लगभग 100 मीटर नीचे तक पहुँच गए। अब हमें पैदल सेना के रूप में आगे बढ़ना था। 
                एक ढलवाँ रास्ते पर चढ़कर हम पिसनहारी दरवाजे तक आ गए। माधुरी खरे और सविता शर्मा दोनों वीरांगनाएँ भी बड़ी बहादुरी से आगे बढ़ रही थीं। दूर से बोर्ड पर पिसनहारी दरवाजा पढ़कर लगा कि कहीं इसका संबंध ‘पिसनहारी के कुएँ’ की तरह किसी अनाज पीसनेवाली बूढ़ी माँ से तो नहीं है ? पर ऐसा नहीं था पास आकर पता चला कि उषाकाल में जब महिलाएँ हाथ-चक्की पर अनाज पीसने लगती थीं उस समय यह दरवाजा खोल दिया जाता था। इसलिए इसे पिसनहारी दरवाजा कहते हैं।
                  बात कुछ गले में अटक-सी गई थी सो उसे दो घूँट पानी पीकर नीचे उतारना पड़ा क्योंकि ऐसा वहाँ लिखा था। यह भी लिखा था कि इस दरवाजे को औरंग़ज़ेब ने इसके मूल ढाँचे को तोड़कर मुगल शैली में फिर से बनवाया था। और इसे आलमगीर दरवाजा नाम दिया था जैसा कि वह अपने विजित किलों के दरवाजों को दे दिया करता था इसीलिए चाहे माण्डवगढ़ हो या कालिंजर आपको आलमगीर दरवाजा मिल ही जाएँगे। 
             पता नहीं नाम परिवर्तन के क्रम में इन्हें इनका मूल नाम कब मिलेगा ? इस दरवाजे का उल्लेख विलियम फिंज (1610 ई.) तेवर्नियर (1640 ई.) और कनिंघम (1867 ई.) किया है। खैर औरंगज़ेब को इसे फ़तह करने में भले समय लगा हो पर हमें नहीं। सीढ़ियों को साफ करनेवाले दो सफाईवीरों ने भी हमारा कोई विरोध नहीं किया। आगे सत्तर-अस्सी सीढ़ियाँ चढ़नी थीं पर उसके पहले कुछ ग्रुप फोटोग्राफ्स लिए गए। सीढ़ियों के मोड़ पर दो खंडित आदमकद प्रतिमाएँ दीवार के सहारे रखी हैं। पहली नज़र में लगा कि वे हनुमान जी की हैं पर एक प्रतिमा के नीचे एक पशु (संभवतः श्वान या कुत्ता) को उनके वाहन के रूप में उत्कींर्ण किया गया है और पैरों तक एक मुण्डमाल पड़ी है तो फिर यह भैरव प्रतिमा हो सकती है। यही दूसरी प्रतिमा के बारे में कह सकते हैं। दोनों प्रतिमाएँ बुरी तरह से खंडित की गई हैं। 
          मुख मंडल तो बचा ही नहीं है। लगता है जिसे आजकल पीरन पौर (सैय्यदों का दरवाजा) कहते हैं उसे भैरव दरवाजा कहा जाता हो और ये प्रतिमाएँ इसके दोनों ओर लगी होगीं। मोड़ के बाद ही यह पीरन पौर द्वार है। इसके पास एक कब्र है जिस पर लिखे एक शिलालेख के अनुसार यह कब्र शेरशाह सूरी के किलेदार सैय्यद दिलावर खान (हिजरी संवत 960 सन् 1545 ईं) की है। सन् 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया था संभवतः उसी समय उसने नरवर को हस्तगत कर लिया था। 
              कनिंघम के अनुसार सैय्यद दिलावर खान ने इसका पुनर्निर्माण या मरम्मत करवाई थी इसलिए इसे सैय्यदों का दरवाजा कहा जाने लगा। इसके पास कोतवाली भवन है। यहाँ किए गए निर्माण में कई पुराने भवनों और मंदिरों के वास्तुखण्डों का उपयोग किया गया है। इस दरवाजे में सैनिकों के रहने के लिए बहुमंजिला कक्ष हैं। इस द्वार को फतह करते हुए हम गणेश दरवाजे तक आ गए जिसमें अभी एक पुराना कीलोंवाला फाटक लगा हुआ है। 
         फाटक में लगे ये कीले हाथियों के आक्रमण को रोकने के लिए लगाए जाते थे। गणेश द्वार के बाद हम हवा पौर जा पहुँचे। इस विशाल द्वार की बनावट कुछ गैलरीनुमा है। दोनों ओर बैठने के लिए पत्थर की लम्बी चौकी है। इसके अंदर ऊपर की ओर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं। 
            सीढ़ियों के साथवाली दीवार पर कुछ प्राचीन लाल बलुआ पत्थर के स्तम्भ जड़े हैं जिन पर उत्कींर्ण प्रतिमाएँ बहुत ही सुन्दर हैं। यहाँ एक शिलालेख भी है जिसका कुछ हिस्सा टूट गया है। द्वार की संरचना कुछ इस तरह की है कि ऊपर से ठंडी हवा नीचे आती है। इसीलिए इसे हवा पौर कहा जाता है। इसे सार्थक करने के लिए हम भी हवा खाने बैठ गए। पर हम यहाँ हवा खाने नहीं आए थे इसलिए जल्द ही किले में प्रवेश करने को उठ गए। हवा पौर पहले गौमुखी द्वार कहलाता था। सन् 1800 ई. में ग्वालियर महाराज दौलतराव सिंधिया के सूबेदार अंबा जी ने इसका पुनर्निर्माण कराया। 
          हवा पौर के ऊपर 13 वीं शताब्दी का विष्णु मंदिर और ऊदल बख्शी है। चारों द्वार तोड़ने के बाद अब कोई बाधा नहीं बची थी। सीढ़ियों के समाप्त होने पर हम एक पठारनुमा मैदान में आ गए जिसमें इमारतों का और पेड़ों का जंगल फैला हुआ था। हमारे दाँए तरफ अनेक महल-दुमहले थे और बाँए तरफ किले का परकोटा था जिसके किनारे कोरियों का महल, जेल और पसर देवी मंदिर जाने का रास्ता गया था। भग्न दीवारों पर चूने से पसर देवी मंदिर जाने का रास्ता बतानेवाला तीर का निशान बना है। आगे एक ऊँची दीवारों वाली इमारत मिली हमारे स्थानीय मित्रों ने उसका परिचय नरवर की पुरानी जेल के रूप में दिया। हमें जेल जाने का शौक तो था नहीं इसलिए हम उसको दरकिनार करते हुए आगे बढ़ गए। रास्ते में एक सुन्दर महल था। शायद यही ‘कोरियों का महल’ हो। 
           यहाँ कपड़े बुने जाते थे। इसके बाद एक और भवन था। अंदर प्रांगण में कई कक्ष और बरामदे हैं हो सकता है यह किलेदार का महल हो। मुख्य द्वार और जेल के निकट होने से इस धारणा को बल मिलता है। लोग कहते हैं कि तर्ज पर कहते हैं कि यह मधुशाला भवन था। अच्छा होता यदि इसके बारे में कुछ सूचना पट लगा होता। आगे रास्ता दो भागों में बँट गया था। तिराहे पर मंशा देवी मंदिर था। बाँईं ओर परकोटे में एक छोटा-सा दरवाजा था जो पसर देवी मंदिर और पुरानी नरवर बस्ती के परकोटे के भीतर खुलता है। 
             अब पसर देवी के दर्शन कराने से पहले नरवर किले के इतिहास के पन्ने खोलने का उचित अवसर जान पड़ता है तो अब वर्तमान को छोड़कर अतीत की यात्रा में चलते हैं। नरवरः इतिहास के झरोखों में- आधुनिक इतिहास के अनुसार नरवर का किला नवीं-दसवीं शताब्दी में कछवाह राजाओं ने बनवाया था। क्षेत्रफल और ऊँचाई की दृष्टि से यह भारत का तीसरा बड़ा किला है। (पहला मेहरानगढ़, दूसरा कुंभलगढ़ पाठकगण,कृपया पुष्टि कर लें) इतिहास पर पड़ी राख को कुछ और कुरेदा जाए तो ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र मौर्यकाल में पांचाल महाजनपद अंतर्गत कन्नौज के प्रतिहार राजाओं के अधीन था जो सिंध नदी से केन तक फैला था। 
           कालान्तर में शुंग, कण्व, सातवाहन के अतिरिक्त विदेशी शकों और कुषाण राजाओं का शासन दक्षिण-पश्चिम बुन्देलखण्ड में रहा है। उन्नाव (दतिया) में बाला जी का सूर्य मंदिर कुषाण काल में बनाया गया था। कुषाणों से इस क्षेत्र को मुक्ति दिलाने का काम नागवंशीय राजाओं ने किया था जिनके संघ राज्य विदिशा, नागौद, पद्मावती, कांतिपुरी और नरवर में स्थापित थे। नरवर में नागवंशीय राजाओं के सिक्के बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। नरवर किले के भवनों में लगे कलश चिह्न युक्त स्तम्भ प्रतिमाएँ तथा अन्य पुरा चिह्न इस क्षेत्र में नाग, गुप्त, प्रतिहार और चंदेल युग का संकेत देते हैं। नरवर और चंदेल- चरखारी से मिले एक ताम्रपत्र (सन् 1254ई) के अनुसार सन् 1254ई. में नलपुरा (नरवर) के राजा गोविन्द और गोपगिरि (ग्वालियर) के राजा ने हरिदेव ने राजा वीरवर्मा (सन् 1246-1285ई.) के समय चंदेल राज्य पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण का सामना चंदेल राज्य के गोंड़ सेनापति राउत आभी ने पपावनी (टीकमगढ़) के मैदान में किया था और उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया था। इस विजय का प्रतीक विजय स्तम्भ (जैत खम्ब) पपावनी में देखा जा सकता है। सन् 1182 ई. में दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल राजा परमर्दि वर्मा या परमालदेव के समय बुन्देलखण्ड पर आक्रमण कर बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम भाग पर अधिकार कर इस क्षेत्र को हाड़ा चौहान सरदारों को दे दिया था। चौहानों के पश्चात के बाद लगता है यह क्षेत्र तब तक कछवाहों के अधीन बना रहा जब तक कि इसे ग्वालियर के तोमरों द्वारा छीन नहीं लिया गया। ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह (सन् 1486-1516 ई.)के समय नरवर में उसका किलेदार रहता था। 
         मालवा के खिलजी शासकों से सामना करने का पहला मोर्चा नरवर ही था। मानसिंह के समय माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने नरवर पर असफल आक्रमण किया था। नरवर को सन् 1507 ई. में सिकन्दर लोदी (सन् 1489-1517 ई.) ने मानसिंह तोमर से छीना था। नरवर किले में मौजूद सिकन्दर लोदी की मस्जिद इस बात की पुष्टि करती है जो किसी मंदिर या भवन को तोड़कर बनाई गई है। उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास ‘मृगनयनी’ में सिकन्दर लोदी के आक्रमण और उसके द्वारा नरवर में छह महीने स्वयं रहकर मंदिरों और मूर्तियों के विनाश का विस्तृत वर्णन किया किया है। सिकन्दर लोदी ने अपने किलेदार के रूप में इसे राजसिंह कछवाह को सौंप दिया था।
              नरवर और बुन्देला- नरवर और उसके आसपास का क्षेत्र बुन्देला राज्य का हिस्सा भी रहा है। ओरछा राजवंश के संस्थापक रुद्रप्रताप (सन् 1501-1531 ई.) ने अपने पुत्र चंदनदास को करैरा की जागीर दी थी। उनके बड़े पुत्र भारतीचंद ( सन् 1531-1554 ई.) हुमायुँ (सन् 1530-1556 ई.) और शेरशाह सूरी (सन् 1540-1545 ई. दिल्ली पर अधिकार से लेकर मृत्यु तक) के समकालीन थे। इन दोनों के मध्य चल रहे सत्ता संघर्ष का लाभ उठाते हुए भारतीचंद ने सिंध से टमस (टोंस) और यमुना से नर्मदा तक अपना राज्य विस्तार कर लिया था। 
             प्रतीत होता है कि शेरशाह की मृत्यु (सन् 1545 ई.) के बाद भारतीचंद ने शेरशाह के किलेदार सैय्यद दिलावर खान से या उसके उत्तराधिकारी से नरवर छीन लिया था जैसे पूर्वी बुन्दंलखण्ड से शेरशाह सूरी के लड़के इस्लामशाह सूरी को खदेड़कर जतारा छीन लिया था। उनके बाद उनके भाई मधुकरशाह ( सन् 1554-1592 ई.) ओरछा के राजा बने जो शिवपुरी के जागीरदार थे। जो बाद में उनके पुत्र रणवीरसिंह देव को मिली। अकबर (सन् 1542-1605 ई.) के लड़के मुराद से हुए एक युद्ध (सन् 1591 ई.) के बाद जब मधुकरशाह को ओरछा छोड़ना पड़ा तब वे कुछ समय नरवर में ही रहे थे। उनके एक पुत्र होरलदेव पिछोर के जागीरदार थे। उनके बाद जब रामदास (सन् 1592-1605 ई.) ओरछा के राजा हुए तब ओरछा राज्य 22 जागीरों में विभक्त था इनमें एक जागीर नरवर भी थी। 
            महाराजा वीरसिंह जू देव प्रथम (सन् 1605-1627ई.) जब बड़ौनी के जागीरदार थे तब उन्होंने नरवर पर भी अधिकार कर लिया था। सन् 1599 ई में अकबर नरवर (नलपुरा) आया था। सन् 1602 ई. में जब अबुलफजल नरवर होकर दिल्ली जा रहा था तब वीरसिंह जू देव प्रथम ने नरवर और आँतरी के बीच परायछे नामक ग्राम में उसका सिर काट लिया था। जहाँगीर के समय नरवर वीरसिंह जू देव प्रथम के अधिकार में रहा होगा।
           महाराजा छत्रसाल ने भी औरंगजेब के समय ग्वालियर और नरवर को आक्रांत किया था। नरवरः मुगल और मराठा- बुन्देलों के बाद नरवर मुगलों के हाथ में रहा। आगरा से बुरहानपुर जानेवाला मार्ग जिसे सिल्क रूट कहा जाता था नरवर होकर ही गुजरता था। नरवर का जंगल हाथियों के शिकार के लिए प्रसिद्ध था। अकबर के समय यहाँ जंगली हाथियों को पकडकर पालतू बनाया जाता था और सेना में रखा जाता था। 
             शेर तो आज भी पाए जाते हैं। बाद में यह ग्वालियर के सिंधिया घराने (मराठों) के अधिकार में आ गया और स्वतंत्रता प्राप्ति तक उनके अधिकार में बना रहा है। (इसका संक्षिप्त उल्लेख बाद में) ऊपर दो बार नरवर का नलपुरा के रूप में उल्लेख पाठकों को याद होगा। बहुत-से इतिहास और पुराण प्रेमी पाठक जानते हैं कि नरवर का संबंध राजा नल से है जी हाँ वही महाभारतकालीन नल-दमयंती वाले राजा नल। राजा नल निषध देश के राजा थे और नलपुर या नरवर उनकी राजधानी थी।
नरवर से जुड़ी तीन प्रेमकथाओं में पहली कथा नल-दमयंती की है।..................... क्रमशः भाग 3 में नल दमयंती की प्रेम कथा और पसर देवी मंदिर के दर्शन अभिन्न डॉ. लोकेश जी, विजय जी और स्थानीय मित्रों के साथ रामगोपाल रैकवार 

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