अनुक्रमणिका :-
1-जमड़ार: उद्गम से संगम तक 2-नरवर चढ़ै न बेड़नी........... (यात्रा वर्णन)
3-देवगढ़ (ललितपुर)भ्रमण
‘अभियान असंभव’
घुमक्कडी दिनांक 10/11/2024, कगर-कचनेव की गुफा, किला और धनुषधारी हनुमान जी------
महाराज छत्रसाल से संबंधित कुछ लेखों में उनका जन्म स्थान कगर-कचनेव (उत्तरप्रदेश) दिया गया है जबकि उनका वास्तविक जन्म स्थान वहां से बीस पच्चीस किमी दूर मोर पहाडी़ (तहसील लिधौरा विकासखण्ड जतारा जिला टीकमगढ़) है । कगर कचनेव महाराज छत्रसाल के पिता महाराज चंपतराय की जागीर नुना महेबा के अंतर्गत ही था। यह जागीर ओरछा राज्य अंतर्गत थी। इसे महाराजा रुद्रप्रताप (सन् 1501 -1531) द्वारा अपने तीसरे पुत्र उदयादित्य को दिया गया था। उनके पुत्र प्रेमचन्द्र ने इसे अपने तीन पुत्रों में बांट दिया था। भगवंतसिंह को महेबा (वर्तमान महेबा चक्र 3 ), मानसिंह को शाहपुर और कुंवरसिंह को सिमरा जागीर दी गई। चंपतराय भगवंतसिंह के चौथे पुत्र थे। जो बाद में महेबा के जागीरदार रहे। ये बुन्देला नरेश महाराजा वीरसिंह, जुझारसिंह तथा मुगल बादशाह शाहजहां, जहांगीर औरंगजे़ब के समकालीन रहे हैं। पहले औरंगजे़ब के समर्थक रहे पर बाद में उससे नहीं बनी और विद्रोह कर बुन्देलखण्ड में अपनी जागीर में लौट आए। औरंगजे़ब ने उन्हेंं दबाने का भरसक प्रयास किया अंतत अपने सजातीयों के विश्वाखसघात के कारण शत्रुओं द्वारा घेर लिए जाने पर महारानी लालकुंवरि और महाराज चंपतराय ने सन् 1664 में आत्म्घात कर अपना जीवन समाप्त कर लिया। उस समय छत्रसाल की आयु मात्र 14 साल थी। उनकी आकांक्षाएं महेबा की छोटी – सी जागीर से बहुत बडी़ थीं। बुन्देलखण्ड में स्वराज की स्थापना का स्व्प्न जो महाराज चंपतराय ने देखा था उन्हें उसे पूरा करना था। औरंगज़ेब के जबडो़ं से बुन्देडलखण्ड के एक बड़े भू-भाग को छीनकर स्वतंत्र पन्ना राज्य की स्थापना कर इस स्व़प्न को महाराज छत्रसाल ने जिस तरह पूरा किया वह अलग चर्चा का विषय है। कगर-कचनेव की ऐतिहासिक पृष्ठाभूमि जानने के लिए इतनी चर्चा आवश्यक थी । मैं और विजय अपनी घुमक्कड़ी पर साढ़े आठ बजे अपने अभियान असंभव को संभव बनाने कगर-कचनेव के लिए निकल पड़े।
कगर-कचनेव वास्ताव में दो अलग-अलग गांव हैं। महेबा से बंगरा जानेवाले मार्ग पर कटेरा से आगे ये दोनों गांव स्थित हैं। कगर छोटा है पर यहां एक किले के अवशेष उसके सामरिक महत्व को प्रदर्शित करते हैं। सन् 2021 को मैं और विजय जी कगर आए थे पर उस समय कगर की गुफा देखने के लिए चले गए थे और समयाभाव में किला देखने नहीं जा पाए थे। उस समय गुफा भी कहां देख पाए थे। आज उस मिशन इम्पाेसीबिल को पूरा करने का मन बनाकर ही आए थे। गांव में एक खण्डहर गढी़ है। जो तिवारियों की गढी़ कहलाती है। इसी के पास एक चबूतरे पर एक प्रौढ़ ग्रामीण बैठे थे उनसे गुफा के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा वहां पहुंचने का कोई रास्ताा नहीं है। एक संभावित रास्ता उपर से है पर जान का भय है। उन्होंंने कुछ चरवाहों के नाम बताए जो गुफा के मुहाने के नीचे ले जा सकते थे। उन्होंने कटेरा के पास कपिलनाथ की गुफा और एक अन्य गुफा के बारे में बताया जो हम पिछली बार देख चुके थे। उनसे मिली सलाह को गांठ में बांधकर हम किले की पहाड़ी की कगार के नीचे पहुंचे। यहां एक तालाब है जिसके तटबंध पर एक छोटा-सा मैदान है । यहां एक खंडहर हो चुका दरवाजा है। यहां हनुमान जी का एक मंदिर भी है जहां चार-पांच लोग चबूतरे पर बैठे थे। उन्होंने बताया कि यह दरवाजा प्राचीन कटेरा-कचनेव के रास्ते में पड़ता था और यहां टैक्स वसूला जाता था। एक साधु महाराज चूल्हे पर मोटे-मोटे गक्कड़ सेंक रहे थे। गुफा के बारे उन सबका भी यही मत था कि वहां तक पहुंचना असंभव है। हमने पूछा कि शायद उपर से जा सकें पर उन्होंने मना किया और गुफा जाने का इरादा छोड़ने के लिए कहा। पर हम कहां माननेवाले थे। सोचा कि पिछली बार नीचे से लौट आए थे आज उपर से प्रयास करते हैं। साथ कोई जाने के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि गक्कड़ सिक चुके थे। साग भी तैयार था। उन्हें भोजन करना था। हमें भी गक्कंड़ खाने का न्यौता दिया पर अभी हमें भोजन नहीं करना था। अपना पाथेय हम लिए भी थे।
हम अपनी मोटर साइकिल और हेलमेट वहीं छोड़कर किले को विजय करने के लिए सीढि़यों की ओर बढ़ गए। नीचे एक मजार बनी है। एक मंदिर भी है। उसी के पास किले पर जाने के लिए पुराने समय की सीढि़यां बनी हैं। कगार पर तीन-चार मोड़ लेती और चट्टानों के बीच से गुजरती इन सीढि़यों की संख्या दो-तीन सौ के बीच होगी। दो-तीन जगह बैठना भी पड़ा। रास्ते में लंगूर सैनिक किले की रक्षा कर रहे थे पर अपना सजातीय और मित्र समझकर अलग हट गए। उपर पूर्व की ओर सफेद पत्थेरों की एक प्राचीर है। पत्थर ऋतु अपक्षय की भेंट चढ़कर टुकड़ों में बदल चुके हैं। नीचे चूने पत्थसर से बने दो बुर्ज अभी खड़े हैं जो पहले परकोटे के हिस्से होंगे। पहाड़ी के उपर चूने पत्थदर की कुछ दीवारें किसी महल का संकेत देती हैं। जहां पहाड़ी नीची है वहां पत्थर के परकोटे बने हैं। लगता है बुन्देलों के अधिकार में आने से पहले यह गौंड़ों का किला था। आगे एक टीले पर एक मजार अभी हाल में बनाई गई है। कुछ पुरानी ईंटों और पत्थरों के टुकड़े किले के भीतर बने महलों/भवनों या घरों के साक्षी हैं। आगे एक गहरा गड्ढा है जिसे जिसके पूर्वी छोर पर दीवार बनी है। शायद इसमें पानी का संग्रह किया जाता होगा। हम लोग गुफा वाली पहाड़ी खोजने के लिए उसके पश्चिमी किनारे पर चल रहे थे। दक्षिणी हिस्से में एक प्रस्तर प्राचीर किले की दक्षिणी सीमा हैा इस ओर पहाड़ी के कुछ उंचे शिखर हैं। यहां से हम वापस लौटे। एक बार फिर अनुमान के सहारे पहाड़ी के कगार पर गए। यहां से नीचे का वह रास्ता और बड़ा पेड़ दिख रहा था जहां से पिछली बार हम पहाड़ी पर चढ़े थे। मैं विजय जी के रोकते-रोकते काफी किनारे चला गया पर गुफा के नीचेवाले कठवर के पेड़ के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा। कगार पचास-साठ फुट तक बिल्कुल खड़ी थी। निराश होकर यहां से भी लौटने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था। अब तो फिर नीचे जाकर कुछ करना पड़ेगा। जैसे-तैसे नीचे आए तो पहले मिले कुछ लोग ही मिले। उन्हींं में एक थे रामबाबू। वे हमारा निश्चेय जानकर हमारे साथ जाने को तैयार हो गए। कुछ खा-पीकर रामबाबू के साथ चल पड़े। आशा थी कि शायद हमारा ‘मिशन इम्पॉेसीबिल या अभियान असंभव’ आज संभव हो जाएगा।
रामबाबू हमें किले की सीढि़यों वाले रास्ते पर ले गए जहां पहले मोड़ के बाद पहाड़ी के किनारे एक पथरीली और कंटकीली पगडंडी से आगे बढ़े। रामबाबू ने एक गुफा दिखाते हुए बताया कि यहां से किले में जाने का द्वार था। बात सही थी क्यों कि उस गुफा के पास से पत्थरों की चौड़ी सीढि़यां नीचे तालाब तक गई थीं। सीढि़यों के पत्थर भी किले के परकोटे के पत्थरों की तरह टूट-फूट चुके थे पर अपनी प्राचीनता की कहानी साफ-साफ सुना रहे थे। रामबाबू ने बताया कि नीचे एक शिव मंदिर था जहां रानी जल चढ़ाने यहीं से आती-जाती थीं। गुफा को बंद कर दिया गया है। यह कहानी कितनी सच थी पता नहीं पर संभव है कि यहां से कोई गुप्त रास्ता हो। पहाड़ी की ढाल पर हम रामबाबू के साथ बढ़ते जा रहे थे। रास्तें में पता चला कि रामबाबू जड़ी-इूटियों के अच्छे जानकार भी हैं। उन्होंने कुछ रोगों की जड़ी-इूटियों को तोड़कर दिखाया भी। एक ‘ऐंठी’ नामक जड़ी तोड़कर दी जिसके बारे में उनका कहना था कि इसे घर में रखने से बिगड़े काम बन जाते हैं। शुगर की दवा भी उन्हों ने मेरे लिए तोड़कर रख ली। इस तरह जड़ी-बूटियों से परिचय करते हुए और रामबाबू के सहारे आखिरकार उस गुफा के नीचे पहुंच ही गए। हमें लगा कि आसमान से गिरे खजूर में अटके वाली स्थिति में हैं। यहां से गुफा का ‘ग’ भी नहीं दिख रहा था।
यह वही जगह थी जहां हम सन् 2021 में आ चुके थे। तब भी हमने इसके अगल-बगल खोजबीन की थी पर उपर जाने का कोई रास्ता नहीं मिला था। विजय जी कठवर के पेड़ पर कुछ फुट चढ़े भी थे पर थकान और शरीर में पानी की कमी के कारण मेरी हिम्मंत जवाब दे चुकी थी, मैंने उन्हें अकेले चढ़ने से रोक दिया था। आज वही चालीस-पचास फुट की सीधी चट्टान हमें फिर चुनौती दे रही थी। यही नहीं इस बार ततैयों का झुंड भी मंडरा रहा था। काश हमने पर्वतारोहण का कुछ प्रशिक्षण ले लिया होता। हमने रामबाबू से कहा-भाई यहां तक तो हम पहले आ चुके हैं, गुफा तक कैसे पहुंचे रामबाबू ने बताया कि वह भी यहीं तक आया है। गुफा तक जाने का कोई रास्ता नहीं है। मैंने पूछा-क्याक पेड़ के सहारे पहुंच सकते हैं रामबाबू ने पेड़ के पास जाकर देखा तो बोला मैं तो नहीं चढ़ सकता। विजय भी बोले-मुश्किल है उपर से ततैयां है एक ने भी काट लिया तो गजब हो जाएगा। मैंने कहा-पर मैं चढ़ू्ंगा। रामबाबू ने मेरी तरफ ऐसे देखा मानो मैं पागल हो गया हूं। उसे लगा यह व्यक्ति जो सीधे रास्ते पर उसके हाथ का सहारा लेकर इधर तक आया है, इस सीधी चट्टान पर पेड़ की जड़ों के सहारे चालीस-पचास फुट चढ़ने की सोच भी कैसे रहा है मैं चट्टान और कठवर की जड़ों और शाखाओं को आंखों से स्के़न कर एक रास्ता़ बना रहा था। मस्तिष्क में रास्ता बनते ही मैंने जूते-मोजे उतारे और विजय से पूछा-रस्सी है उन्होंने कहा-हां। अब मैं अपनी उम्र और थकान तथा परवाह-ए-जान सब भूल चुका था। मैंने कठवर की जड़ों और शाखाओं को थामा और चट्टान जिस पर पांव रखने के लिए कहीं-कहीं तीन-चार इंच जगह थी, के सहारे लगभग आठ-दस फुट चढ़ गया। अब तो रामबाबू को शर्म के साथ जोश भी आ गया और वह कठवर के मूल तने को पकड़ कर ही मुझसे आगे निकल गया। विजय मेरे पीछे थे। अब मुझे आगे चढ़ने के लिए रस्सी की आवश्यकता थी। विजय से रस्सी लेकर मैंने रामबाबू को एक जड़ में फंसाने को कहा। उसने रस्सी को दोनों ओर से जड़ के सहारे लटका दिया। मैं रस्सी् को एक हाथ में लपेट कर जड़ों के सहारे और उपर पहुंच गया। विजय से बैग लेकर मैंने उपर रख दिया। रस्सी के सहारे विजय भी आ गए। आधा रास्ता पार हो गया था। अब गुफा का कुछ हिस्सा दिखने लगा था। अब जड़ें अधिक सहायता कर रहीं थी। मैं धीरे-धीरे गुफा के सामने कुछ चौड़े स्थान में पहुंच गया। रामबाबू तने के सहारे आ गया। विजय मेरे रास्ते उपर आ गए। अभियान असंभव अभियान संभव बन गया था। विजय और मेरी खुशी का ठिकाना न था। दो साल बाद हम उस गुफा के सामने थे जो नीचे से बेताल गुफा की तरह दिखती है पर पास आने पर गढ़ कुडार के किले की तरह गायब हो जाती है और एक सीधी कगार चुनौती बनकर सामने खड़ी नज़र आती है। गुफा के पास जाकर देखा की चमगादड़ों के मल से भरी है। पत्थर टूटकर गिरे हैं। गुफा भीतर की ओर संकरी होती गई है और उपर चली गई है। पानी के बहाव और कटाव तथा पत्थरों के अपक्षय से बनी गुफा में कुछ भी खास नहीं था। स्थानीय लोग इसके साथ कई चमत्कारी बातें जोड़ते हैं पर शायद ही कोई वहां आया हो। रामबाबू स्वयं वहां तक आने का श्रेय मुझे दे रहा था। चौंसठ साल की आयु में इस खतरनाक स्थिति को पार करना कई लोगों की दृष्टि में मूर्खता होगी पर हमें जो रोमांच अनुभव हो रहा वह मेरे और विजय के लिए किसी एवरेस्ट विजय से कम न था। कठवर और रामबाबू के साथ ने इसे संभव बना दिया था।
अब उतरना था जो कि ऐसी जगहों पर चढ़ने से अधिक खतरनाक और जोखिम भरा होता है। पर उतरना जो वहीं से था। रामबाबू को तो उतरने में देर नहीं लगी उसकी उम्र भी क्या थी, कोई पैतीस-चालीस साल, मैं और विजय बड़ी सावधानी के साथ फूंक-फूंक कर कदम रखते हुए नीचे उतरे। आज मुझे इस मुहावरे का सही अर्थ समझ में आया। मैंने विजय के बैग को नीचे फेंक दिया था जिसके गिरने की आवाज सुनकर रामबाबू को लगा कि कहीं हम दोनों में से (मेरी संभावना अधिक थी) कोई टपक गया है। उसने आवाज दी तो मैंने कहा- घबराओ मत, हम धीरे-धीरे उतर रहे हैं। कुछ परेशानी तो आई पर बिना घबराए सावधानी रखते हुए नीचे आ गए। रामबाबू तो मेरे फैन हो गए थे। विजय भी मान गए थे कि ‘अभी न बूड़ौ भऔ बेंदुला, अबै न जंग खाई तरवार। वैसे ये सब मेरे मानसिक बल से संभव हुआ था, शारीरिक रूप से अब मैं थका अनुभव कर रहा था। लौटने के लिए हमने पहाड़ी का सीधा ढाल चुना। झाडि़यों और पत्थरों के कारण यहां उतरना भी सरल नहीं था पर चिछली बार भी हम यहीं से चढ़े और उतरे थे। खैर रफ्ता-रफ्ता नीचे आ गए। यहां रास्ते और तालाब के किनारे एक देव स्थान है और हेण्ड पंप लगा है। विजय ने नीचे से उस गुफा के कुछ फोटो लिएा पानी पीकर और कुछ आराम करके हम कच्चे रास्तेे से तालाब के किनारे-किनारे चलकर साधु जी कुटिया तक आ गए। रामबाबू से बातचीत में पता चला कि बह कटेरा के निवासी है और केवट हैं और जब मैंने अपना परिचय दिया तो वे और आत्मीय हो गए। मैंने एक अल्प राशि उन्हें दी जो उन्हों ने प्रसन्नचतापूर्वक ग्रहण करली पर उन्होंने कहा’ अभी आप को एक और चीज दिखाउंगा। थका तो बहुत था पर सोचा चलो देखते हैं।
रामबाबू ने अपनी मोटरसाइकिल पर साधु जी को भी बैठा लिया और उत्तर दिशा की ओर तालाब एवं पहाड़ी के बीच बनी एक ढालू पगडंडी पर चल दिए। उस पर मोटरसाइकिल चलाना गुफा पर चढ़ने से भी अधिक मुश्किल और खतरनाक था। जैसे-तैसे विजय ने सिंगल बैठकर सौ-डेढ़ सौ मीटर पार किए। रामबाबू ने लौटकर देखा कि हम कहीं तालाब में गोते तो नहीं लगा रहे हैं पर इस बार भी उसका अनुमान गलत निकला। मैंने उसे धीरे चलने को कहा। कुछ देर बाद आगे रास्ते के किनारे घने पेड़ों के बीच रखी दो शिलाओं के पास हम रुके। ग्रेनाइट की इन एक साथ रखी दो शिलाओं पर धनुष पर बाण संधान करती दो मानव आकृतियां उत्कीर्ण हैं। स्थानीय लोग इन्हें ‘राम-लक्ष्मेण’ कहते हैं। आस-पास आठ-दस मीटर लंबे-चौड़े चबूतरे के होने के निशान हैं। जिसके कुछ पत्थर अभी भी देखे जा सकते हैं। मैंने इस तरह की आकृति पगारा (मवई) की के पास देखा है। लगता है ये किसी गौंड़ सैनिकों के सम्मान में उनकी किसी युद्ध में मृत्यु के बाद लगाए गए स्मृति चिहन है। उन पर कोई सती चिह्न नहीं था। रामबाबू ने बताया कि पहाड़ी पर किसी किले के अवशेष हैं और पुरानी ईंटों के ढेर पड़े हैं। अभी वहां जाने का न तो समय बचा था न हिम्मत। वहां से वापस कगर लौटने की बजाए हम रामबाबू के पीछे-पीछे रानीपुर जानेवाली सड़क पर पहुंच गए। रास्ते। में एक हनुमान जी का मंदिर है, आश्चर्य की बात यह थी कि यहां प्रतिष्ठित हनुमान जी की प्रतिमा के हाथ में गदा नहीं धनुष-बाण है। अब उन राम-लक्ष्मण कही जानेवाली प्रतिमाओं और धनुषधारी हनुमान जी की प्रतिमा में क्या संबंध है, राम ही जानें। चार बज चुके थे, अब अंधेरा जल्दी हो जाता है। हम जितना हो सके उजाले में सफ़र करना चाहते थे पर कुछ चक्कर तो लग ही गया था। वैसे हम टीकमगढ़ जिले के पलेरा विकासखण्डष की जेवर ग्राम पंचायत में थे। अस्तुप, हम नहीं चाहते कि हमारे पाठक अंधेरे में देर तक यात्रा करें। मंदिर से हम लोग जेवर ग्राम और वहां से पटगुवां तक आए। रामबाबू और साधु महाराज यहीं रुक गए। उन्हों ने आगे का रास्ता समझा दिया जिसे मैं जानता था। सिद्धेश्वर मंदिर वाले रास्तेे से हम फिर महेबा आए और वहां से लिधौरा और फिर दिगौड़ा में चाय पीकर साढ़े छह बजे टीकमगढ़ आ गए। इति ‘अभियान असंभव’ सम्पन्न।
विजय जी मेहरा के साथ रामगोपाल रैकवार
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1-जमड़ार: उद्गम से संगम तक
घुमक्कड़ी दिनांक 25.11.2023 शनिवार-
बुन्देलखण्ड के ज्योतिर्लिंग के नाम से विख्यात कुण्डेश्वर जमड़ार नदी के तट पर स्थित होने के कारण जमड़ार नदी का नाम किसी से अपरिचित नहीे है। बहुत दिनों से इसके उद्गम के बारे में जानने की इच्छा थी सो आज की घुमक्कड़ी में जमड़ार के उद्गम स्थल तक जाने का मन था। जिसके बारे में सुना था कि मड़ावरा के निकट कहीं है। साथ ही समय रहा तो सीयाडोणी (सीरौन) जाने की भी इच्छा थी।
नामकरण-कारण - जमड़ार नदी के बारे में कई लोक और भद्र मान्यताएँ प्रचलित हैं। लोक मान्यता के अनुसार इसमें स्नान करने से यम की डाढ़ से मुक्ति मिल जाती है। हो सकता है इसी लोक मान्यता के कारण इसे जमबिड़ार (यम को भगानेवाली) कहते हों जो बाद में जमड़ार हो गया हो। आचार्य दुर्गाचरण जी शुक्ल के अनुसार जामनी या जामनेर नदी का पौराणिक नाम ‘जम्बुला’ तथा इसकी सहायक नदी जमड़ार का पौराणिक नाम ‘यमदंष्टा’ है। यमदंष्टा शब्द ही बिगड़कर कालान्तर में जमडाढ़ और अंततः जमड़ार बन गया। माना जाता है कि प्राचीन समय में इन नदियों के पास ‘जृम्भला’ नामक राक्षसी रहती थी। उसका नाम सुनकर ही गर्भवती स्त्रियों के गर्भ गिर जाते थे।
आचार्य शुक्ल जी के अनुसार प्रसूता स्त्री की प्रसव-पीड़ा कम करने या सुरक्षित और कठिनाई रहित प्रसव के लिए थाली में निम्नाकिंत मंत्र लिखकर उसे पानी में घोलकर पिलाया जाता था।
पुरातु जम्बुलातीरे जृम्भला नाम राक्षसी।
तस्याः स्मरेणमात्रेण विषल्य गर्भिणी भवेत।।
यह भी संभव है कि बाढ़ और तेज प्रवाह के समय इसे पार करना यम की डाढ़ (मौत के मुँह) में जाने जैसा हो इसलिए इसे जमडाढ़ कहते हों जो मुख सुख के कारण जमड़ार हो गया हो। अस्तु, पाठकगण नामकरण का जो भी कारण सटीक लगे, मान सकते हैं।
खोजबीन- रास्ते में बावरी के पास एक ग्रामीणजन से पूछा तो उन्होंने भी बताया कि जमड़ार मड़ावरा के पास एक बँधिया से निकलती है। सैदपुर के कमलसिंह (जिनकी दुकान पर मैं प्रायः रुकता हूँ) ने अंदाज से बताया कि गिरार रोड पर किसी गाँव के पास जमड़ार नदी निकली है। गिरार रोड पर पता चला कि जमड़ार नदी का उद्गम मड़ावरा (जिला ललितपुर) कस्बे के पास महरौनी रोड पर मण्डी के पास ही है और जमड़ार का मूल माने जानेवाले नाले पर एक पुल बना है। सो वापस लौटना पड़ा।
उद्गम - जमड़ार का उद्गम स्थल रनगाँव और साढ़ूमल ग्रामों की सीमा पर रोड के किनारे ‘इमला बाबा’ के पास मतवारा के एक नाले से माना जाता है जिसमें आस-पास के खेतों का पानी सिमटकर नाले का रूप धारण कर लेता है। इस नाले पर एक बड़ा-सा बँधान या बँधिया बनी है जिसे मलखान का बंधा कहते हैं। ये सब स्थान जमड़ार नदी का उद्गम क्षेत्र हैं। उद्गम स्थान देखकर फिर गिरार रोड पर जाना पड़ा क्योंकि सीरौन जाने का रास्ता वहीं से जाता है। पर सीरौन की यात्रा से पहले आप लोगों को जमड़ार की उद्गम से लेकर संगम तक की जमड़ार यात्रा करा देना चाहता हूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आवे।
विकास - बँधान के पास कुछ और नालों के मिलने से बनी कुछ बड़ी जलधारा जमड़ार नदी के रूप में केवलारी ग्राम जा पहुँची है।
सन् 2017 में यहाँ ‘जमरार’ बाँध बना दिया गया है। अपने पूर्ण भराव पर जमरार बाँध की झील बहुत ही सुन्दर दिखाई देती है। भराव क्षेत्र में जल में डूबे सूखे-अधसूखे पेड़ों पर बैठे बगुले और अन्य पक्षी देखते ही बनते हैं। केवलारी के बाद जमड़ार घाट खिरिया और अस्तोन ग्रामों के बीच से बहती हुई नीमखेरा के पूर्व में पहुँचती है। बीच में इसके पास पांड़ेर और नचनवारा ग्राम भी बसे हैं।
कुण्डेश्वर के पास इसके दाँए तट पर जमड़ार ग्राम बसा है। पहाड़ीतिलवारन की ओर से एक बड़ा-सा ‘उरदौरा’ नाला इसमें आकर मिलता है।
जमड़ार नदी कुण्डेश्वर में सड़क पुल के बाद और उषा कुण्ड के पहले दो धाराओं में बँट जाती है। एक पतली जल धारा सिद्ध टेकरी के पीछे से बहती हुई ‘अजयपार की दहर’ (अजय अपार हृद) के सामने जामनी नदी में मिल जाती है। दूसरी मुख्य जलधारा उषा कुण्ड में गिरकर एक छोटा-सा प्रपात बनाती है।
उषा की साधना स्थलीः कुण्डेश्वर- लोक मान्यता है कि जमड़ार और जामनी के संगम और जमड़ार की एक शाखा के टापू पर स्थित ‘खैराई वन’ (खदिर वन) के दूसरी ओर जामनी नदी के बाएँ किनारे पर बसा बानपुर बाणासुर की राजधानी था। बाणासुर की पुत्री उषा खैराई से आकर जमड़ार नदी द्वारा बनाए गए एक गहरे कुण्ड में भगवान शिव की साधना करती थी। उषा के आने पर कुण्ड फटकर दो भागों में बँट जाता था जिससे उषा कुण्ड के भीतर प्रवेश कर भगवान शिव की आराधना में प्रातःकाल तक लीन हो जाती थी।
एक दिन संदेह होने पर बाणासुर ने उषा का पीछा किया पर वह कुण्ड में प्रवेश नहीे कर सका। उषा के कुण्ड से बाहर आने पर बाणासुर ने इसका रहस्य पूछा तो उषा ने बताया कि कुण्ड में भगवान शिव का निवास है और वह उनका पूजन करने ही यहाँ आया करती है। यह जानकर बाणासुर ने भगवान शिव के दर्शन पाने के लिए एक पैर पर खड़े होकर घोर तपस्या की। उसके तप से प्रसन्न होकर शिव जी ने उसे दर्शन दिए और वहीं शिवलिंग के रूप में स्थित हो गए। कालान्तर में उनके पुनः प्रकट होने की कथा से पाठकगण परिचित ही हैं। कुण्डेश्वर मंदिर आज एक प्रसिद्ध तीर्थ है। शिवरात्रि और मकर संक्रांति के विशाल मेलों के अतिरिक्त सोमवार, श्रावण मास और अन्य त्योहारों के अतिरिक्त नित्य ही बड़ी संख्या में दर्शनार्थी यहाँ पहुँचते हैं।
संगम - जमड़ार के ‘उषा-कुण्ड’ के पास एक चालीस फुट ऊँची चट्टान पर एक सुन्दर कोठी का निर्माण महाराजा प्रतापसिंह ‘बब्बा जू’ ने कराया था। इसे कुण्ड कोठी कहते हैं।
महाराजा वीरसिंह जू देव ‘द्वितीय’ इसे ‘ईगल नेस्ट’ या ‘गरुड़-वास’ कहते थे। सन् 1937 से सन् 1952 तक साढ़े चौदह साल इस कोठी में दादा पं. बनारसीदास चतुर्वेदी रहे। आजकल इसमें ‘पापट संग्रहालय’ स्थापित है। कुण्ड के कृत्रिम जलप्रपात के रपटे के नीचे छह छिद्रों से पानी की धार कुण्ड में गिरती है। इसे देखकर आचार्य वासुदेवशरण जी अग्रवाल ने इसे ‘षडानन प्रपात’ का नाम दिया था। वृद्धजन बताते हैं कि इस कुण्ड में बड़ी-बड़ी मछलियाँ थीं जिन्हे राज्य की ओर से आटे की गोलियाँ बनाकर खिलाई जाती थीं।
रपटे के दूसरी ओर ‘सिद्ध टेकरी’ है। जिसके बारे में कई चमत्कार कथाएँ प्रचलित हैं। खैराई वन को बनारसी दास जी ‘मधुवन’ कहते थे। आज भी इसमें हिरण, चीतल, नीलगाय, शूकर, लाल और काले मुँहवाले बंदर, मोर आदि सहित बड़ी संख्या में अजगर विचरण करते देखे जा सकते हैं। इस खैराई वन में चंदन, खैर (कत्था), पारस-पीपल, बेल, सागौन, केम, पलाश, सियारी (शेफाली) और अर्जुन (कवा) आदि के पेड़ हैं।
राजाशाही काल में यहाँ कत्था भी बनाया जाता था। कुण्ड के बाद कुछ आगे एक रमणीक स्थान है जिसे ‘अमरनाथ’ कहते हैं। खैराई के उत्तर-पश्चिम में जमड़ार नदी की मुख्य धारा भी बरी घाट के आगे जामनी नदी से मिल जाती है और इस तरह अपनी यात्रा पूरी करती है।
(संदर्भ- सिद्धतीर्थः श्री कुण्डेश्वर धाम, लेखक पं गुणसागर ‘सत्यार्थी’)
अगले भाग में जैन क्षेत्र सीरौन
-रामगोपाल रैकवार
2-नरवर चढ़ै न बेड़नी........... (यात्रा वर्णन)
-रामगोपाल रैकवार
घुमक्क्ड़ी दिनांक 09.12.2023: ऐतिहासिक उपन्यास सम्राट वृन्दावनलाल वर्मा के सर्वश्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास ‘मृगनयनी’ में दी गईं बुन्देलखण्ड में प्रचलित ये पंक्तियाँ ‘‘नरवर चढ़ै न बेड़नी, बूँदी छपै न छींट। गुदनौटा भोजन नहीं, एरच पकै न ईंट’’ दीर्घ काल से स्मृति पटल पर अंकित थीं तो इन पंक्तियों से जुड़े नरवर किले की एक अनदेखी छवि भी मानस पटल पर अक्सर उभर आती थी।
इस मानस छवि को साकार करने का अयाचित आमंत्रण 4-8 दिसम्बर को भोपाल में आयोजित कार्यशाला में मिला तो कुछ समस्याओं के रहते हुए भी उससे इंकार न कर सका। वैसे भी आमंत्रण औपचारिक न होकर प्रबल आत्मीयता से संपृक्त हो तो ‘तो कोई कैसे करे इंकार’ वाली स्थिति मेरे साथ रहती है। मेरे पुराने कार्यशाला सहयोगी और मित्र मनीष जी जैन (शिवपुरी) के पैतृक निवास ‘नरवर’ में नौ दिसम्बर को शान्ति पाठ का आयोजन था। उन्होंने कार्यशाला में उपस्थित और अनुपस्थित सभी महानुभावों और महानुभावाओं को आमंत्रित किया पर मेरे, विजय शर्मा और लोकेश जी (सपत्नीक) के सिवा विभिन्न कारणों से अन्य कोई उसे स्वीकार नहीं कर पाया। (बहन रामसेवी भी सम्मिलित होना चाहती थीं पर उन्हें कुछ बाधाएँ थी। वैसे भी देर रात ग्वालियर पहुँचना फिर सुबह नरवर आना सरल नहीं था। वैसे तय यही हुआ कि वे सुबह डबरा आकर विजय-परिवार के साथ नरवर आ जाएँगीं।)
मनीष जी ने भी देर नहीं की और तत्काल 8.12.23 की रात में एक स्लीपर बस में हम लोगों की सीट सुरक्षित करवा दी।
अस्तु, आठ तारीख को रात 10 बजे भोपाल से शिवपुरी के लिए प्रस्थान और सुबह लगभग 5 बजे हम वहाँ के एक शानदार होटल में ‘चैक इन’ कर चुके थे। जहाँ हमें दो घण्टे अपनी रात की आधी-अधूरी नींद की कुछ क्षतिपूर्ति करने और ब्रेकफास्ट करने के बाद कार द्वारा दोपहर तक नरवर पहुँचना था। साथ ही विजय जी द्वारा बनाए गए कार्यक्रम के अनुसार रास्ते में हमें सिंध नदी पर निर्मित अटल सागर बाँध (मढ़ीखेड़ा) को देखना था और टपकेश्वर महादेव के दर्शन करने थे। कुछ सामान्य से विलम्ब के बाद हम तीनों ( डॉ.लोकेश खरे, उनकी धर्मपत्नी श्रीमती माधुरी और लेखक) नरवर गढ़ पर चढ़ाई करने करने के लिए चल पड़े।
अटल सागर बाँध (मढ़ीखेड़ा) - शिवपुरी से अटल सागर की दूरी लगभग 35 किमी है। नरवर मार्ग पर दाई ओर दो किमी की दूरी पर सिंध नदी पर बना यह बहुउद्देशीय बाँध इस अंचल का सबसे बड़ा बाँध है जो सिंचाई, जल विद्युत और पेयजल की आपूर्ति के लिए 2008 में बनकर तैयार हुआ था। इसकी 20-20 मेघावाट की तीन यूनिटों में 60 मेघावाट बिजली बनाने की क्षमता है। बरसात के दिनों में गेट खुलने पर इसे देखने भीड़ उमड़ पड़ती है। फिलहाल इस साल यह पूरा नहीं भरा है। गेट खुलने पर उद्यान के ऊपरवाले व्यू प्वांइट से अच्छा दृश्य दिखाई देता होगा पर अभी ऐसा कुछ नहीं था।
वहाँ से हम बाँध के ऊपर आए और कुछ क्या ढेर सारे फोटोग्राफ्स लिए जैसा कि ऐसे स्थानों पर लिए ही जाते हैं। धुंध होनेे कारण कितने साफ आते हैं यह बाद में देखेंगे।
टपकेश्वर महादेव- बाँध देखने के बाद मुख्य सड़क पर वापस आकर हम नरवर की ओर बढ़े। सिंध नदी घूमकर हमारे रास्ते में आ गई थी पर बाधक नहीं बनी क्योंकि उस पर पुल बना था। पास में ही विद्युत उत्पादन संयंत्र है। सिंध नदी हमारे बाईं ओर थी और उसका निर्मल कल-कल बहता जल तथा किनारों पर हरी-भरी वृक्षावलि अत्यंत मनमोहक दृश्य का निर्माण कर रही थी। अगर पाठक इसे अतिशयोक्ति न मानें तो सिंध नदी की यह घाटी कश्मीर की सिंध नदी (सिंधु नदी दूसरी है) की घाटी से कुछ कम रमणीक नहीं थी। नदी की कल-कल बहती धारा को देखकर माधुरी की इच्छा तो कुछ देर उसके किनारे बैठने की थी।
नदी की ओर निगाह होने से ह़म टपकेश्वर मंदिर वाला रास्ता छोड़ आगे बढ़ गए तभी मेरी नज़र एक पुराने बोर्ड पर पड़ी जिस पर टपकेश्वर महादेव लिखा था। मैंने ड्राइवर मुकेश जी को बताया। हमने रुककर वहाँ से गुजर रहे एक सज्जन से पता किया तो उन्होंने बताया कि हम कुछ आगे आ गए हैं। खैर लौटकर हम बगल की पहाड़ियों पर डामरवाली एक सँकरी सड़क से तीन-चार सौ मीटर ऊपर गए जहाँ से एक सीढ़ीदार रास्ता टपकेश्वर महादेव गुफा-मंदिर की ओर गया था। नीचे एक शिला पर भगवान शिव की मानवाकृति स्थापित है। जब हम लोग सीढ़ियों पर चढ़ रहे थे तभी शिवपुरी के डीपीसी महोदय अपने कुछ साथियों के साथ नीचे उतरते मिले। ये लोग भी मनीष जी के यहाँ आमंत्रित थे और नरवर जा रहे थे। उनके दो-तीन साथी एक बार फिर मंदिर जाने और मार्गदर्शन के लिए हमारे साथ साथ हो लिए।
सीढ़ियों की शुरुआत में ही एक बोर्ड लगा है जिस पर यहाँ आनेवाले श्रद्धालुओं से अनुरोध किया गया है कि वे मंदिर आते समय नीचे रखे ईंट/गुम्मों को यथाशक्ति उठाकर ले आएँ। श्रमदान का यह अच्छा तरीका था पर वहाँ उस समय ले जाने योग्य कोई सामग्री नहीं थी। इन घुमावदार सीढ़ियों की संख्या लगभग 300 है जिनकी ऊँचाई कम होने से आसानी से चढ़ा जा सकता है। ऊपर पहाड़ी की शिलाओं ने टूटकर एक कगार बना दी है। इस कगार पर नीचे कुछ शिलाएँ क्षरित हो गई हैं जिससे लगभग सौ-डेढ़ सौ फुट लम्बी कंदरा बन गई है। इसी कंदरा के एक भाग में पहाड़ से पानी टपकता है जो यहाँ स्थापित शिवलिंग के ऊपर गिरता है। जल की बूँदों के निरन्तर टपकने से ही इन्हें टपकेश्वर महादेव कहा जाता है।
ऐसी लोक मान्यता है कि इन्हें स्वयं भगवान श्री राम ने स्थापित किया था। प्रांगण में श्री हनुमान जी की विशाल प्रतिमा भी स्थापित है। कंदरा की एक गुहा में माँ दुर्गा सहित नौ देवियों की स्थापना भी की गई है। नौ देवी मंदिर की गुफा की छत को सीलिंग लगाकर सुसज्जित कर दिया है। इसी के बगल में सूर्य भगवान को समर्पित एक गुफा मंदिर है। परिसर में राम-जानकी और ब्रह्मा जी के मंदिर भी हैं। हमें बताया गया कि पहाड़ के ऊपर तीन कुंड भी है जो भैरव कुंड, गणेश कुंड और शेर कुंड कहलाते हैं।
भक्तों का कहना है कि यहाँ एक शेर भगवान शिव की आराधना के लिए आता है और इसी कुंड में पानी पीता है। यहाँ कुछ साधु और तपस्वीगण रहते हैं। तपस्वी महाराज ओमकारनंद जी वर्षाकाल में निरन्तर चार महीने (चातुर्मास) एक अँधेरी गुफा में रहकर साधना करते हैं और दीपावली पर बाहर आते हैं। ऐसी मान्यता है कि टपकेश्वर महादेव से की कामना पन्द्रह दिनों में अवश्य पूरी होती है।
धार्मिक स्थल होने के साथ-साथ टपकेश्वर महादेव एक प्राकृतिक रमणीय स्थल है। विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे और लताएँ मन मोह लेती हैं। नीचे आते समय सीढ़ियों पर एक शेफाली या सियारी वृक्ष बहुत ही सुन्दर लग रहा था तो उसके सामने खड़े होकर कुछ फोटोग्राफ्स लेना बनते ही थे। सफेद छाल और चिकने पत्तों वाले इस वृक्ष को इस तरफ क्या कहते पता नहीं।
बंदरों की भी भरमार है जब हम नीचे आए तो वे हमारी कार पर बैठकर उसकी रखवाली करते मिले। वैसे वे करने को तो बहुत कुछ कर सकते थे पर हमारी कार के शीशे बंद थे। दोपहर हो चुकी थी और अभी हमारी खास मुहीम बाकीं थी सो टपकेश्वर महादेव को प्रणाम कर हम नरवर की ओर चल पड़े।
नरवर यहाँ 5 किमी ही रह गया था। नरवर पहुँचकर मनीष जी को फोन किया और कार्यक्रम स्थल की सही स्थिति पता कर बस स्टेण्ड के निकट जैन मंदिर पहुँच गए। तभी डबरा से विजय भाई भी अपनी कार में पत्नी और पुत्र सहित आ गए। जैन मंदिर में शान्ति पाठ का संगीतमय आयोजन चल रहा था। मनीष जी हम लोगों का आत्मीय स्वागत कर अंदर ले गए।
कुछ देर हमने भी शान्ति पाठ में सहभागिता की। चूँकि नरवर गढ़ पर चढ़ाई करने से पहले मुझे अपने एक घाव की ड्रेसिंग भी करानी थी (पता नहीं चढ़ाई कितनी कठिन हो और कितने घाव खाने पड़ें।) इसलिए मैंने विजय जी पकड़ा और उन्होंने एक स्थानीय मित्र को मेरे साथ कर दिया जिन्होंने अपनी मोटर साइकिल से ले जाकर अपने मित्र डॉक्टर के क्लीनिक पर अच्छी तरह से ड्रेसिंग करा दी। इस ‘अतिथि सत्कार’ के लिए मुझे उनका और डॉक्टर साहब का मात्र धन्यवाद ही ज्ञापित करना पड़ा। ड्रेसिंग के बाद वापस जैन मंदिर पहुँचा तो सब लोग मेवा-मिष्ठान का नाश्ता कर रहे थे बल्कि ये कहिए कि कर चुके थे। गनीमत यह थी कि समाप्त नहीं किया था (मेरा मतलब सामग्री को) अतः यह काम मुझे करना पड़ा।
अब हम नरवर किले पर चढ़ाई के लिए पूरी तरह तैयार थे। लोकेश जी के सेनापतित्व में हमने नगरकोट के द्वार पर आक्रमण कर दिया पर नगरवासियों ने ट्रेक्टर ट्राली, कार, मोटरसाइकिल आदि अड़ाकर (जाम लगाकर) हमारा रास्ता रोक दिया। आखिरकार हम उन्हें धकेलकर आगे किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ ही गए।
पिसनहारी दरवाजा- पाठकों को याद होगा कि नरवर दुर्ग पर चढ़ाई करते समय नरवर के नागरिकों ने जाम लगाकर हमें कुछ देर के लिए रोक लिया था पर हम भी कुछ कम नहीं थे इस बाधा को पार कर हम किले के मुख्य द्वार की ओर बढ़ गए। सँकरी गलियों से होते हुए हम अपने रथ (कार) और घोड़ों (मोटरसाइकिलों) पर सवार होकर मुख्य दरवाजे के लगभग 100 मीटर नीचे तक पहुँच गए। अब हमें पैदल सेना के रूप में आगे बढ़ना था।
एक ढलवाँ रास्ते पर चढ़कर हम पिसनहारी दरवाजे तक आ गए। माधुरी खरे और सविता शर्मा दोनों वीरांगनाएँ भी बड़ी बहादुरी से आगे बढ़ रही थीं। दूर से बोर्ड पर पिसनहारी दरवाजा पढ़कर लगा कि कहीं इसका संबंध ‘पिसनहारी के कुएँ’ की तरह किसी अनाज पीसनेवाली बूढ़ी माँ से तो नहीं है ? पर ऐसा नहीं था पास आकर पता चला कि उषाकाल में जब महिलाएँ हाथ-चक्की पर अनाज पीसने लगती थीं उस समय यह दरवाजा खोल दिया जाता था। इसलिए इसे पिसनहारी दरवाजा कहते हैं।
बात कुछ गले में अटक-सी गई थी सो उसे दो घूँट पानी पीकर नीचे उतारना पड़ा क्योंकि ऐसा वहाँ लिखा था। यह भी लिखा था कि इस दरवाजे को औरंग़ज़ेब ने इसके मूल ढाँचे को तोड़कर मुगल शैली में फिर से बनवाया था। और इसे आलमगीर दरवाजा नाम दिया था जैसा कि वह अपने विजित किलों के दरवाजों को दे दिया करता था इसीलिए चाहे माण्डवगढ़ हो या कालिंजर आपको आलमगीर दरवाजा मिल ही जाएँगे।
पता नहीं नाम परिवर्तन के क्रम में इन्हें इनका मूल नाम कब मिलेगा ? इस दरवाजे का उल्लेख विलियम फिंज (1610 ई.) तेवर्नियर (1640 ई.) और कनिंघम (1867 ई.) किया है। खैर औरंगज़ेब को इसे फ़तह करने में भले समय लगा हो पर हमें नहीं। सीढ़ियों को साफ करनेवाले दो सफाईवीरों ने भी हमारा कोई विरोध नहीं किया। आगे सत्तर-अस्सी सीढ़ियाँ चढ़नी थीं पर उसके पहले कुछ ग्रुप फोटोग्राफ्स लिए गए। सीढ़ियों के मोड़ पर दो खंडित आदमकद प्रतिमाएँ दीवार के सहारे रखी हैं। पहली नज़र में लगा कि वे हनुमान जी की हैं पर एक प्रतिमा के नीचे एक पशु (संभवतः श्वान या कुत्ता) को उनके वाहन के रूप में उत्कींर्ण किया गया है और पैरों तक एक मुण्डमाल पड़ी है तो फिर यह भैरव प्रतिमा हो सकती है। यही दूसरी प्रतिमा के बारे में कह सकते हैं। दोनों प्रतिमाएँ बुरी तरह से खंडित की गई हैं।
मुख मंडल तो बचा ही नहीं है। लगता है जिसे आजकल पीरन पौर (सैय्यदों का दरवाजा) कहते हैं उसे भैरव दरवाजा कहा जाता हो और ये प्रतिमाएँ इसके दोनों ओर लगी होगीं। मोड़ के बाद ही यह पीरन पौर द्वार है। इसके पास एक कब्र है जिस पर लिखे एक शिलालेख के अनुसार यह कब्र शेरशाह सूरी के किलेदार सैय्यद दिलावर खान (हिजरी संवत 960 सन् 1545 ईं) की है। सन् 1540 ई. में शेरशाह सूरी ने ग्वालियर पर आक्रमण किया था संभवतः उसी समय उसने नरवर को हस्तगत कर लिया था।
कनिंघम के अनुसार सैय्यद दिलावर खान ने इसका पुनर्निर्माण या मरम्मत करवाई थी इसलिए इसे सैय्यदों का दरवाजा कहा जाने लगा। इसके पास कोतवाली भवन है। यहाँ किए गए निर्माण में कई पुराने भवनों और मंदिरों के वास्तुखण्डों का उपयोग किया गया है। इस दरवाजे में सैनिकों के रहने के लिए बहुमंजिला कक्ष हैं। इस द्वार को फतह करते हुए हम गणेश दरवाजे तक आ गए जिसमें अभी एक पुराना कीलोंवाला फाटक लगा हुआ है।
फाटक में लगे ये कीले हाथियों के आक्रमण को रोकने के लिए लगाए जाते थे। गणेश द्वार के बाद हम हवा पौर जा पहुँचे। इस विशाल द्वार की बनावट कुछ गैलरीनुमा है। दोनों ओर बैठने के लिए पत्थर की लम्बी चौकी है। इसके अंदर ऊपर की ओर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हैं।
सीढ़ियों के साथवाली दीवार पर कुछ प्राचीन लाल बलुआ पत्थर के स्तम्भ जड़े हैं जिन पर उत्कींर्ण प्रतिमाएँ बहुत ही सुन्दर हैं। यहाँ एक शिलालेख भी है जिसका कुछ हिस्सा टूट गया है। द्वार की संरचना कुछ इस तरह की है कि ऊपर से ठंडी हवा नीचे आती है। इसीलिए इसे हवा पौर कहा जाता है। इसे सार्थक करने के लिए हम भी हवा खाने बैठ गए। पर हम यहाँ हवा खाने नहीं आए थे इसलिए जल्द ही किले में प्रवेश करने को उठ गए। हवा पौर पहले गौमुखी द्वार कहलाता था। सन् 1800 ई. में ग्वालियर महाराज दौलतराव सिंधिया के सूबेदार अंबा जी ने इसका पुनर्निर्माण कराया।
हवा पौर के ऊपर 13 वीं शताब्दी का विष्णु मंदिर और ऊदल बख्शी है। चारों द्वार तोड़ने के बाद अब कोई बाधा नहीं बची थी। सीढ़ियों के समाप्त होने पर हम एक पठारनुमा मैदान में आ गए जिसमें इमारतों का और पेड़ों का जंगल फैला हुआ था। हमारे दाँए तरफ अनेक महल-दुमहले थे और बाँए तरफ किले का परकोटा था जिसके किनारे कोरियों का महल, जेल और पसर देवी मंदिर जाने का रास्ता गया था। भग्न दीवारों पर चूने से पसर देवी मंदिर जाने का रास्ता बतानेवाला तीर का निशान बना है। आगे एक ऊँची दीवारों वाली इमारत मिली हमारे स्थानीय मित्रों ने उसका परिचय नरवर की पुरानी जेल के रूप में दिया। हमें जेल जाने का शौक तो था नहीं इसलिए हम उसको दरकिनार करते हुए आगे बढ़ गए। रास्ते में एक सुन्दर महल था। शायद यही ‘कोरियों का महल’ हो।
यहाँ कपड़े बुने जाते थे। इसके बाद एक और भवन था। अंदर प्रांगण में कई कक्ष और बरामदे हैं हो सकता है यह किलेदार का महल हो। मुख्य द्वार और जेल के निकट होने से इस धारणा को बल मिलता है। लोग कहते हैं कि तर्ज पर कहते हैं कि यह मधुशाला भवन था। अच्छा होता यदि इसके बारे में कुछ सूचना पट लगा होता। आगे रास्ता दो भागों में बँट गया था। तिराहे पर मंशा देवी मंदिर था। बाँईं ओर परकोटे में एक छोटा-सा दरवाजा था जो पसर देवी मंदिर और पुरानी नरवर बस्ती के परकोटे के भीतर खुलता है।
अब पसर देवी के दर्शन कराने से पहले नरवर किले के इतिहास के पन्ने खोलने का उचित अवसर जान पड़ता है तो अब वर्तमान को छोड़कर अतीत की यात्रा में चलते हैं।
नरवरः इतिहास के झरोखों में-
आधुनिक इतिहास के अनुसार नरवर का किला नवीं-दसवीं शताब्दी में कछवाह राजाओं ने बनवाया था। क्षेत्रफल और ऊँचाई की दृष्टि से यह भारत का तीसरा बड़ा किला है। (पहला मेहरानगढ़, दूसरा कुंभलगढ़ पाठकगण,कृपया पुष्टि कर लें) इतिहास पर पड़ी राख को कुछ और कुरेदा जाए तो ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र मौर्यकाल में पांचाल महाजनपद अंतर्गत कन्नौज के प्रतिहार राजाओं के अधीन था जो सिंध नदी से केन तक फैला था।
कालान्तर में शुंग, कण्व, सातवाहन के अतिरिक्त विदेशी शकों और कुषाण राजाओं का शासन दक्षिण-पश्चिम बुन्देलखण्ड में रहा है। उन्नाव (दतिया) में बाला जी का सूर्य मंदिर कुषाण काल में बनाया गया था। कुषाणों से इस क्षेत्र को मुक्ति दिलाने का काम नागवंशीय राजाओं ने किया था जिनके संघ राज्य विदिशा, नागौद, पद्मावती, कांतिपुरी और नरवर में स्थापित थे। नरवर में नागवंशीय राजाओं के सिक्के बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं। नरवर किले के भवनों में लगे कलश चिह्न युक्त स्तम्भ प्रतिमाएँ तथा अन्य पुरा चिह्न इस क्षेत्र में नाग, गुप्त, प्रतिहार और चंदेल युग का संकेत देते हैं।
नरवर और चंदेल- चरखारी से मिले एक ताम्रपत्र (सन् 1254ई) के अनुसार सन् 1254ई. में नलपुरा (नरवर) के राजा गोविन्द और गोपगिरि (ग्वालियर) के राजा ने हरिदेव ने राजा वीरवर्मा (सन् 1246-1285ई.) के समय चंदेल राज्य पर आक्रमण किया था। इस आक्रमण का सामना चंदेल राज्य के गोंड़ सेनापति राउत आभी ने पपावनी (टीकमगढ़) के मैदान में किया था और उन्हें पराजित कर खदेड़ दिया था। इस विजय का प्रतीक विजय स्तम्भ (जैत खम्ब) पपावनी में देखा जा सकता है। सन् 1182 ई. में दिल्ली के पृथ्वीराज चौहान ने चंदेल राजा परमर्दि वर्मा या परमालदेव के समय बुन्देलखण्ड पर आक्रमण कर बेतवा नदी के दक्षिण-पश्चिम भाग पर अधिकार कर इस क्षेत्र को हाड़ा चौहान सरदारों को दे दिया था।
चौहानों के पश्चात के बाद लगता है यह क्षेत्र तब तक कछवाहों के अधीन बना रहा जब तक कि इसे ग्वालियर के तोमरों द्वारा छीन नहीं लिया गया। ग्वालियर के तोमर राजा मानसिंह (सन् 1486-1516 ई.)के समय नरवर में उसका किलेदार रहता था।
मालवा के खिलजी शासकों से सामना करने का पहला मोर्चा नरवर ही था। मानसिंह के समय माण्डू के सुल्तान ग्यासुद्दीन खिलजी ने नरवर पर असफल आक्रमण किया था। नरवर को सन् 1507 ई. में सिकन्दर लोदी (सन् 1489-1517 ई.) ने मानसिंह तोमर से छीना था। नरवर किले में मौजूद सिकन्दर लोदी की मस्जिद इस बात की पुष्टि करती है जो किसी मंदिर या भवन को तोड़कर बनाई गई है। उपन्यासकार वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास ‘मृगनयनी’ में सिकन्दर लोदी के आक्रमण और उसके द्वारा नरवर में छह महीने स्वयं रहकर मंदिरों और मूर्तियों के विनाश का विस्तृत वर्णन किया किया है। सिकन्दर लोदी ने अपने किलेदार के रूप में इसे राजसिंह कछवाह को सौंप दिया था।
नरवर और बुन्देला- नरवर और उसके आसपास का क्षेत्र बुन्देला राज्य का हिस्सा भी रहा है। ओरछा राजवंश के संस्थापक रुद्रप्रताप (सन् 1501-1531 ई.) ने अपने पुत्र चंदनदास को करैरा की जागीर दी थी। उनके बड़े पुत्र भारतीचंद ( सन् 1531-1554 ई.) हुमायुँ (सन् 1530-1556 ई.) और शेरशाह सूरी (सन् 1540-1545 ई. दिल्ली पर अधिकार से लेकर मृत्यु तक) के समकालीन थे। इन दोनों के मध्य चल रहे सत्ता संघर्ष का लाभ उठाते हुए भारतीचंद ने सिंध से टमस (टोंस) और यमुना से नर्मदा तक अपना राज्य विस्तार कर लिया था।
प्रतीत होता है कि शेरशाह की मृत्यु (सन् 1545 ई.) के बाद भारतीचंद ने शेरशाह के किलेदार सैय्यद दिलावर खान से या उसके उत्तराधिकारी से नरवर छीन लिया था जैसे पूर्वी बुन्दंलखण्ड से शेरशाह सूरी के लड़के इस्लामशाह सूरी को खदेड़कर जतारा छीन लिया था। उनके बाद उनके भाई मधुकरशाह ( सन् 1554-1592 ई.) ओरछा के राजा बने जो शिवपुरी के जागीरदार थे। जो बाद में उनके पुत्र रणवीरसिंह देव को मिली। अकबर (सन् 1542-1605 ई.) के लड़के मुराद से हुए एक युद्ध (सन् 1591 ई.) के बाद जब मधुकरशाह को ओरछा छोड़ना पड़ा तब वे कुछ समय नरवर में ही रहे थे।
उनके एक पुत्र होरलदेव पिछोर के जागीरदार थे। उनके बाद जब रामदास (सन् 1592-1605 ई.) ओरछा के राजा हुए तब ओरछा राज्य 22 जागीरों में विभक्त था इनमें एक जागीर नरवर भी थी।
महाराजा वीरसिंह जू देव प्रथम (सन् 1605-1627ई.) जब बड़ौनी के जागीरदार थे तब उन्होंने नरवर पर भी अधिकार कर लिया था। सन् 1599 ई में अकबर नरवर (नलपुरा) आया था। सन् 1602 ई. में जब अबुलफजल नरवर होकर दिल्ली जा रहा था तब वीरसिंह जू देव प्रथम ने नरवर और आँतरी के बीच परायछे नामक ग्राम में उसका सिर काट लिया था। जहाँगीर के समय नरवर वीरसिंह जू देव प्रथम के अधिकार में रहा होगा।
महाराजा छत्रसाल ने भी औरंगजेब के समय ग्वालियर और नरवर को आक्रांत किया था।
नरवरः मुगल और मराठा- बुन्देलों के बाद नरवर मुगलों के हाथ में रहा। आगरा से बुरहानपुर जानेवाला मार्ग जिसे सिल्क रूट कहा जाता था नरवर होकर ही गुजरता था। नरवर का जंगल हाथियों के शिकार के लिए प्रसिद्ध था। अकबर के समय यहाँ जंगली हाथियों को पकडकर पालतू बनाया जाता था और सेना में रखा जाता था।
शेर तो आज भी पाए जाते हैं। बाद में यह ग्वालियर के सिंधिया घराने (मराठों) के अधिकार में आ गया और स्वतंत्रता प्राप्ति तक उनके अधिकार में बना रहा है। (इसका संक्षिप्त उल्लेख बाद में)
ऊपर दो बार नरवर का नलपुरा के रूप में उल्लेख पाठकों को याद होगा। बहुत-से इतिहास और पुराण प्रेमी पाठक जानते हैं कि नरवर का संबंध राजा नल से है जी हाँ वही महाभारतकालीन नल-दमयंती वाले राजा नल। राजा नल निषध देश के राजा थे और नलपुर या नरवर उनकी राजधानी थी।
नरवर से जुड़ी तीन प्रेमकथाओं में पहली कथा नल-दमयंती की है।..................... क्रमशः भाग 3 में
नल दमयंती की प्रेम कथा और पसर देवी मंदिर के दर्शन
अभिन्न डॉ. लोकेश जी, विजय जी और स्थानीय मित्रों के साथ रामगोपाल रैकवार।
-रामगोपाल रैकवार , टीकमगढ़
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3-देवगढ़ (ललितपुर)भ्रमण
Study tour- devgarh (Lalitpur) up
Dãte-28-7-2024
संयोजक-
श्री विजय मेहरा जी (लाइब्रेरियन)
शासकीय जिला पुस्तकालय टीकमगढ़
*ऐतिहासिक जानकारी, सौंदर्य दर्शन और रोमांच से परिपूर्ण रही अध्ययन यात्रा*
रविवार दिनांक-28-7-2024 को शासकीय जिला पुस्तकालय टीकमगढ़ द्वारा ऐतिहासिक पर्यटक स्थल देवगढ़ के लिए अध्ययन यात्रा का आयोजन किया गया.
इस अध्ययन यात्रा मे प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी कर रहे छात्र, पुस्तकालय के सदस्य और नगर के साहित्यकार सहभागी रहे.
ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और पुरातत्व की जानकारीयों से परिपूर्ण देवगढ़, प्राचीन हिंदू मंदिर, स्मारक, जैन मंदिर, बेतवा नदी घाट और खूबसूरत पहाड़ों के लिए विश्व विख्यात है. देवगढ़ अध्ययन यात्रा में शामिल छात्रों, सदस्यों और नगर के साहित्यकारों ने भारतीय संस्कृति के विविध आयाम, गौरवमयी भारतीय इतिहास के साक्ष्य और प्राचीन नगर परियोजना का अध्ययन किया.
छात्रों ने इस अध्ययन यात्रा को अपने जीवन का नया अनुभव बताया. छात्र पवन सोनी ने कहा कि- भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व को जानने की दृष्टि से यह अध्ययन यात्रा हमेशा स्मरणीय रहेगी. शिक्षक व युवा कवि श्री रविन्द्र यादव ने कहा कि -इस प्रकार की अध्ययन यात्राएं अपने इतिहास और संस्कृति से जुड़ने के लिए कई पुस्तकें पढ़ने के बराबर होती हैं.
वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजीव नामदेव 'राना लिधौरी' जी ने कहा कि- अध्ययन यात्राएं समाज, संस्कृति और इतिहास को समझने की सशक्त माध्यम होती है.
शोध छात्र श्री सचिन जैन ने कहा कि- ऐतिहासिक पर्यटक स्थल देवगढ़, हिंदू, जैन और बौद्ध संस्कृति का समागम स्थल है जहां वास्तव में भारतीय सनातन परंपरा के दर्शन होते हैं.
अध्ययन यात्रा के दौरान प्रसिद्ध गुप्तकालीन दशावतार मंदिर, देवगढ़ का किला, प्राचीन वराह मंदिर, सुंदर और मनमोहन राजघाट, नाहरघाट, दुर्लभ जैन मंदिर और प्रतिमाएं, प्रारंभिक बौद्ध गुफाएं और प्रतिमाओ को देखा गया और अध्ययन किया गया.
यात्रा के दौरान शासकीय जिला पुस्तकालय टीकमगढ़ द्वारा प्रकाशित त्रैमासिक ई पत्रिका 'युवा विमर्श' के द्वितीय अंक का भौतिक विमोचन भी किया गया.
इस अध्ययन यात्रा में छात्रों को पांचवी छठवीं शताब्दी में निर्मित स्मारक, कलाकृतियां, मूर्तियां, शिलालेख , प्राचीन लिपि, वैज्ञानिक विधि से निर्मित नदी घाट, देव कुलिकाएं, गुफाएं, प्राचीन जैन मूर्तिशाला और प्रतिष्ठित व्यापारियों द्वारा निर्मित बौद्ध गुफाओं के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान की गई.
भारतीय संस्कृति के संधान में नदियों की भूमिका, स्मारक और कलाकृतियो के निर्माण में कलाकारों की निपुणता, कौशलता और प्राचीन भारतीय समाज को प्रभावित करने वाले तत्वों पर संगोष्ठी का आयोजन भी अध्ययन यात्रा में किया गया.
यात्रा में शामिल डॉ. दीपक नाग ने यात्राओं को व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास में सहायक बताया और युवाओं से इस तरह की अध्ययन यात्रा में शामिल होने का आग्रह किया. ई पत्रिका युवा विमर्श की संपादक डॉ विनीता नाग ने इस अध्ययन यात्रा को सफल, सुखद और आनंदमयी बताया.
देवगढ़ अध्ययन यात्रा में श्री प्रशांत जैन, श्री अमर कुमार, श्री दीपक अग्रवाल, उदयभान पाल, श्रीमती सरोज नाग, किनाया नाग, अक्षांश मेहरा और अध्ययन यात्रा के आयोजक, संयोजक पुस्तकालय अध्यक्ष श्री व्ही. के. मेहरा शामिल रहे।
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रपट- व्ही. के. मेहरा
@mehra
GDL Tikamgarh
*टीकमगढ़ जिले के संरक्षण योग्य पुरातात्विक स्थल, स्मारक और मूर्तियां*
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टीकमगढ़ जिला इतिहास और पुरातत्व की दृष्टि से अत्यंत्र समृद्ध है. संरक्षण के अभाव में अनेक अत्यंत प्राचीन मूर्तियाँ, मठ-मंदिर और अन्य पुरावशेष विनष्ट हो चुके या विनष्ट होने की कगार पर हैं.
जिले के बहुत कम स्थल पुरातत्व विभाग के संरक्षण में हैं जैसे सूर्यमंदिर-मड़खेरा, सूर्यमंदिर-ऊमरी, गुप्तकालीन मठ-मोहनगढ़ आदि. सुरक्षा के समुचित प्रबंध के अभाव में ऊमरी और बनारसी (मोहनगढ़) की सूर्य प्रतिमा, टीला की विष्णु प्रतिमा, माडूमर की गणेश प्रतिमा आदि सैकड़ों दुर्लभ प्रतिमाएँ चोरी भी हो चुकी हैं. अभी भी अनेक स्थल ऐसे है जिनका संरक्षण करके जिले की महत्वपूर्ण पुरा संपदा को बचाया जा सकता है. इनमें से कुछ स्थलों का संक्षिप्त विवरण निम्नानुसार है.
1. *कोटरा का चंदेलकालीन शैव मठ*- कोणार्क के सूर्यमंदिर सदृश ग्रेनाइट पत्थरों से निर्मित कोटरा का चंदेलकालीन शैवमठ विकासखण्ड बल्देवगढ़ में ग्राम देरी और दूबदेई मंदिर के मध्य स्थित है. तालाब के तटबंध पर प्रस्तर खण्डों और स्तम्भों से निर्मित यह मठ चंदेल नरेश धंगदेव (सन् 940-999 ई.) के शासन काल में बना था.
मठ में शिवलिंग और देवी पार्वती की प्रतिमा अभी शेष है. परिक्रमा मार्ग की देव-कुलिकाओं की प्रतिमाएँ अब नहीं हैं. स्थापत्य और वास्तुकला की दृष्टि से यह एक बेजोड़ स्मारक है।
2. *देरी का शैव मठ*- देरी ग्राम में कालिका देवी के मंदिर की ओर जानेवाले रास्ते में पहाड़ी की उत्तरी कगार पर ग्रेनाइट पत्थरों से निर्मित यह मठ भी चंदेल नरेश धंगदेव (सन् 940-999 ई.) के शासन काल में बनाया गया था.
नींव का एक भाग खिसकने के कारण इसके अस्तित्व को खतरा है. गाँव के असाटी समाज ने जन सहयोग से कुछ मरम्मत कराई गई है पर समुचित सुरक्षा और संरक्षण के अभाव में इसके ढहने का खतरा है. रथ शैली में निर्मित और परिक्रमा युक्त गर्भगृह में शिवलिंग स्थापित है।
3. *नारायणपुर का सूर्यमंदिर, शैवमठ, 20 भुजी कंकाली प्रतिमा*- टीकमगढ़-बुड़ेरा मार्ग से अहार की ओर जानेवाले मार्ग पर प्रसिद्ध जैन तीर्थ अहार जी से लगभग 6 किमी की दूरी पर नारायणपुर स्थित है। नारायणपुर के बारे में एक लोकोक्ति प्रसिद्ध है.
"नगर नारायनपुर चौका टोर।
धन धरो है असी करोर।
नौ लख हँसियाए दस लख फार |
तीर भर नाँयँए न तीर भर माँयँ।
तालाब के किनारे ही एक पूर्वाभिमुखी प्राचीन मंदिर है. तालाब का नाम रतन सागर है. प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता डॉ. काशी प्रसाद त्रिपाठी के अनुसार यह मंदिर चंदेल राजा धंग देव (940 ई. से 999 ई.) ने बनवाया था शिवमंदिर से मात्र साठ-सत्तर मीटर की दूरी पर एक मड़ (मठ) है. चंदेल नरेश कीर्तिवर्मा (सन 1053-1100 ई.) के मंत्री महीपाल ने नारायणपुर में एक विष्णु मंदिर का निर्माण कराया था.
नारायणपुर की खण्डहर हो चुकी गढी़ पर बीस भुजी एक तांत्रिक देवी की प्रतिमा है. गांव में एक पुरावशेष है. जिसे दरवाजा या द्वार कहते हैं यह किसी मंदिर का हिस्सा है. विष्णु या सूर्य की एक प्रतिमा एक अन्य मंदिर में रखी है. मठ को तत्काल संरक्षित किया जाना आवश्यक है क्योंकि इस पर अतिक्रमण हो चुका है। मंदिर के गर्भगृह का विशाल आधार पत्थर धन की खोज में उखाड़ दिया गया है।
4. *बड़ागाँव का शैव मठ एवं किला*- टीकमगढ़-सागर मार्ग पर 30 किमी. की दूरी पर स्थित बड़ागाँव धसान के किले के दक्षिणी भाग में तालाब के तटबंध पर धंगदेव (सन् 940-999 ई.) के द्वारा बनवाया गया शैव मठ भी ग्रेनाइट पत्थरों से निर्मित है जो क्षरित होने लगा हैं. धसान नदी गुप्तों और वाकाटकों के राज्यों की सीमा रेखा थी. यहाँ एक मजबूत किला है. जिसका महाराज विक्रमाजीत द्वारा पुनर्निर्माण करवाया गया था. बड़ागाँव में प्राचीन फलाहोड़ी जैन तीर्थ और हनुमान जी की अद्वितीय प्रतिमा है. किले पर एक समुदाय विशेष द्वारा अतिक्रमण कर धार्मिक स्थल बनाने का प्रयास किया गया है. किले के कुछ भाग क्षतिग्रस्त हो रहे हैं।
5. *सरकनपुर का शैव मठ, आमोदमण्डप, गणेश प्रतिमा और केदारेश्वर प्रतिमा*- टीकमगढ़ से 30 किमी. की दूरी पर स्थित चंदेल नरेश सलक्षण वर्मा (सन् 1100-1110 ई.) द्वारा बसाए गए सरकनपुर और विलासपुर गाँव (अब वीरान गाँव) में अत्यंत महत्वपूर्ण पुरावशेश विद्यमान है. इनमें एक शैव मठ, गणेश प्रतिमा, भूमि में गड़ी केदारेश्वर या भैसादेव/महिशासुर प्रतिमा, घ्वस्त जैन मंदिर, तालाब पर स्थित बारादरी नुमा विलासगृह संरक्षण के अभाव में नष्ट होने की कगार पर हैं. शैव मठ के पास मुरम मिट्टी का खनन भी हो रहा है।
6. *अहार का मदनेश्वर मंदिर*- टीकमगढ़ से 20 किमी. की दूरी पर स्थित चंदेल नरेश मदन वर्मा (सन् 1130-1165 ई.) के द्वारा अहार में मदनसागर तालाब पर मदनेश्वर मंदिर के वास्तुखण्ड और अनेक खंडित प्रतिमाएँ तालाब के किनारे पड़े हैं। इसके अनेक स्तम्भ उठाकर एक निकटवर्ती तालाब के तटबंध में लगा दिए गए हैं। अभी भी अनेक विशाल स्तम्भ और वास्तुखण्ड इधर-उधर बिखरे हैं। इसके अतिरिक्त एक गढ़ी और दर्जनों खंडित मूर्तियाँ अहार में उपेक्षित पड़ी हें। अतिशय जैन क्षेत्र अहार की भगवान शांतिनाथ की प्रसिद्ध मूर्ति शिल्पी पापट द्वारा (सन् 1180 ई.) निर्मित है।
7. *पपावनी की गौंड़कालीन बस्ती, रॉक कप मार्क्स, जैतखम्भ (जयति स्तम्भ)*- ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार सन् 1254 में नरवर और ग्वालियर के राजाओं द्वारा बुन्देलखण्ड पर आक्रमण किया था। उस समय चंदेल शासक वीरवर्मा (सन् 1246-1285 ई.) के गौड़ सेनापति राउत आभि द्वारा उनको पपावनी के मैदान पर पराजित किया था। पपावनी का जैतखम्भ उसी की स्मृति में लगाया गया था। पपावनी में प्राचीन गौड़ बस्ती का पत्थरों से निर्मित परकोटा (कोंड़ुआ) और मकानों की नींव के पत्थर कई सौ वर्ग मीटर में फैले हैं। यहाँ कुछ ऐसे शिलाखण्ड पड़े हैं जिन पर रॉक कप मार्क्स जैसे चिह्न देखे जा सकते हैं। दो प्राचीन बावड़ी भी संरक्षण योग्य हैं।
8. *लार-बंजरया की विष्णु प्रतिमा एवं गढ़ी*- टीकमगढ़-अहार मार्ग पर लगभग 25 किमी की दूरी पर स्थित लाज-बंजरया में गुप्तकालीन विष्णु प्रतिमा सहित दो तीन अन्य पुरातात्विक महत्व की प्रतिमाएँ और स्तम्भ हैं। एक प्रतिमा का बाहरी भाग भी है, लगता है उसकी मुख्य प्रतिमा काटकर चोरी कर ली गई है। पास में एक पहाड़ी पर ईंटों से निर्मित एक गढ़ी के खंडहर हैं। गढ़ी से एक सुरंगनुमा मार्ग पहाड़ी के नीचे बने कुँए तक आया है। एक अन्य पहाड़ी पर भी एक मठ के अवशेष और अलंकृत स्तम्भ हैं। दो-तीन सती पत्थर भी हैं। विष्णु प्रतिमा पर पेंट कर देने से उसे नुकसान हो रहा है।
9. *कुम्हैड़ी की चौदह भुजी रॉककट माँ काली प्रतिमा*- मोहनगढ़ से आठ-दस किमी की दूरी पर ग्राम कुम्हेड़ी में एक ही जरायु में दो शिवलिंग हैं। जिसमें एक चतुर्मुखी शिवलिंग नागवंशकालीन लगता है। पास में एक दालान में अनेक प्रतिमाएँ रखी हैं जिसमें एक संभवतः विष्णु या सूर्य की है। पास ही के गाँव बनारसी में एक प्राचान सूर्यमंदिर था। कुम्हेड़ी के पास एक विशाल शिला पर चौदह भुजी माँ काली की प्रतिमा है जो मुण्डमाला धारण किए है। रंग कर देने से इसे नुकसान पहुँच रहा है।
10. *सुधासागर मार्ग पर गुप्तकालीन मंदिर और कार्तिकेय प्रतिमा*- टीकमगढ़ से लगभग 5 किमी की दूरी पर सुधासागर मार्ग पर मोहनपुरा जामेवाले रास्ते के सामने एक नव निर्मित तलैया के पास जंगल में एक स्थान पर ईंटों के एक अत्यंत प्राचीन मठ के अवशेष हैं जिसे ग्रामीणों द्वारा अव्यवस्थित ढंग से खोद दिया गया है। स्थापत्य की दृष्टि से यह गुप्तकाल (चौथी-छठवीं शताब्दी) का हो सकता है। इसके द्वार की देहरी का एक अलंकृत स्तम्भ और उसके पास कार्तिकेय और उनकी पत्नी की प्रतिमा रखी है। जिसमें उनका शस्त्र भाला (शक्ति) और वाहन मयूर भी उत्कींर्ण है। मूर्ति पूर्ण है। सुधासागर जानेवाले कच्चे मार्ग पर भी बाएँ तरफ एक प्राचीन बेर (बावड़ी) है। यहाँ एक सिंहवाहिनी दुर्गा की प्रतिमा है जिसे किसी ने तीन-चार टुकड़ों में तोड़ दिया है। कार्तिकेय प्रतिमा पूरी तरह असुरक्षित है। कोई बस्ती भी पास में नहीं हैं इसे एक बार निकटवर्ती गाँव के व्यक्ति द्वारा उठाया जा चुका है। इसे कभी भी खंडित या चोरी किया जा सकता है। इसे पुरातत्व संग्रहालय में रखवाने की आवश्यकता है। इस स्थान की वैज्ञानिक ढंग से खुदाई भी की जानी चाहिए।
11. *मांडूमर की लक्ष्मी देवी की प्रतिमा एवं अन्य मूर्तियाँ*- टीकमगढ़ से लगभग 5 किमी की दूरी पर सागर मार्ग पर स्थित माँडूमर पुरातत्व महत्व की दृष्टि से अत्यंत सम्पन्न गाँव है। यहाँ वाकाटक, गुप्त, प्रतिहार, चंदेल, सल्तनत और बुन्देला शासकों के समय के पुरावशेश हैं। अनेक सती पत्थरों उल्लिखित कथन इस भू-भाग पर विभिन्न शासनकालों का परिचय देते हैं।
यहाँ स्थित दोनों तालाबों पर कई पुरावशेश बिखरे पड़े हैं। अपने पुत्र आस्तिक के साथ खड़ी नागमाता मनसा (जरत्कारू) की एक प्रतिमा, जैन तीर्थंकर की प्रतिमा, शिवलिंग, बौद्ध प्रतिमा, दर्जनों सती पत्थर आदि प्रमुख हैं। चण्डी माता के टीले पर अनेक देवी प्रतिमाएँ हैं जिनमें दुर्गा जी कई खंडित प्रतिमाएँ हैं। यहीं पर एक अत्यंत दुर्लभ और कलात्मक लक्ष्मी जी की संभवतः वाकाटक काल की चजुर्भुजी प्रतिमा है जिसमें उनका वाहन उलूक भी उत्कींर्ण है। खंडित हाथों को छोड़कर शेष प्रतिमा पूरी है। प्रतिमा पर आभूषणों और वस्त्रों को अत्यंत सूक्ष्मता से उकेरा गया है। केश विन्यास भी अत्यंत आकर्षक है। दुर्भाग्य से यह अमूल्य प्रतिमा खुले में पड़ी है और जल चढ़ाने के कारण क्षरित होने लगी है। इस टीले के नीचे कुछ स्तम्भ भी पड़े हैं। यहाँ एक वराही देवी की प्रतिमा की जानकारी मिली है। मांडूमर में एक प्राचीन नरसिंह मंदिर, गिरि और पुरी संप्रदाय के साधुओं का मठ, उनकी समाधियाँ और शिलालेख भी हैं।
यहाँ बड़ी संख्या में चंदेलकालीन पत्थर के कोल्हू बिखरे पड़े हैं। एक मंदिर में यहाँ प्राप्त अनेक मूर्तियाँ दीवार में जड़ दी गई हैं। मंदिर के बाहर कुछ द्वार-स्तम्भ रखे हैं। कुछ वर्श पूर्व यहाँ की एक दुर्लभ श्रेणी की गणेश प्रतिमा चोरी हो चुकी है। अतः मांडूमर की पुरा संपदा विशेषकर श्री लक्ष्मी जी की प्रतिमा को संरक्षित और सुरक्षित किया जाना आवश्यक है।
12. *मौखरा के गुप्तकालीन मंदिर एवं गौड़वानी बस्ती*- बड़ागाँव के पास धसान नदी के पास ग्राम मौखरा में गुप्तकालीन छोटे-छोटे कुछ मठ हैं। यहाँ पहाड़ी पर गौंड़वानी बस्ती के चिह्न भी हैं।
13. *ऊमरी की प्रतिमाएँ*- अपने प्रतिहार कालीन सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध ऊमरी में डूँड़ा ग्राम जानेवाले रास्ते में गाँव के बाहर नाले के पास एक ईंटों का चबूतरा है। यहाँ अनेक खंडित प्रतिमाएँ असुरक्षित पड़ी हैं।
14. *पचेर का किला*- प्रतिहारकालीन किला पचेर छतरपुर जिले की सीमा के पास धसान नदी के किनारे पर एक मैदानी किला है। पहले यह प्रतिहारों का ठिकाना था। बाद में बुन्देलों के अधीन हो गया। अठारहवीं सदी में इसके बाहरी परकोटे और द्वार का निर्माण महाराज विक्रमाजीत ने करवा कर इसे और अधिक मजबूती प्रदान की थी। इसमें बुन्देला विद्रोह (सन् 1841-1845) के समय जैतपुर की रानी को ओरछा की रानी लड़ई सरकार ने शरण प्रदान की थी। यह किला गाँव के प्रभावशाली लोगों के अतिक्रमण में है और भैंसों का तबेला बन गया है। यह कुछ समय अर्द्ध सैनिक बलों का प्रशिक्षण स्थल रह चुका है। इसका भीतरी भाग काफी क्षतिग्रस्त हो चुका है।
15. *भेलसी का वराह मंदिर और शैव मठ*- विदिशा, एरण और उज्जैन की ओर जानेवाले गुप्तकालीन प्राचीन मार्ग पर स्थित ग्राम भेलसी में कुछ गुप्त काल और चंदेल काल के शैव मठ विद्यमान हैं। खंडहर हो वराह मठ की वराह प्रतिमा को ग्रामीणों द्वारा चोरों से बचाकर एक मंदिर में रख दिया है। बगल के शैव मठ का शिवलिंग शेश है। भेलसी के बाहरी भाग में बल्देवगढ़ मार्ग पर एक मैदान में एक प्राचीन मठ है। पेड़ों के कारण यह जर्जर हो गया है। यहाँ नाग माता मनसा की प्रतिमा भी है। इन सभी का संरक्षण आवश्यक है।
16. *मवई की प्रतिमाएँ/पगारा की गढ़ी*
17. *पारागढ़ की महिषासुरमर्दिनी*
18. *सिद्धबावा मंदिर-मठ और हवेली*-
19. *जानकीबाग मंदिर परिसर का नागवंशकालीन शिवलिंग*-
20. *टीकमगढ़ नगर का परकोटा और उसके दरवाजे* (सन् 1787 में निर्मित)
21. समर्रा का मठ/मंदिर
22. लखौरा-बड़माड़ई की गौंड़कालीन गढ़ी और चंदेली कोल्हू
23. टीकमगढ़ में हिमांचल गली का सती चीरा और राजगौंड का चबूतरा
24. बौरी के हनुमान जी मंदिर के निकट रखी प्राचीन प्रतिमाएँ-
25. पुराना सवाई महेन्द्र हाई स्कूल टीकमगढ़ (सन् 1866 में स्थापित)
26. ग्राम टीला (देरी के निकट) के पंचायतन शैली के गुप्तकालीन मंदिर-
27. रामगढ़ का किला
28 नादिया ग्राम का सहस्रशिव लिंग
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रामगोपाल रैकवार & @Vkmehra
(फील्ड वर्कर)
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