Rajeev Namdeo Rana lidhorI

रविवार, 31 दिसंबर 2023

आलेख -भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान’ -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’

आलेख -
भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान’ -
                                   -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’

              हिन्दी साहित्य में भक्तिकाल सबसे महत्वपूर्ण काल माना जाता है। आदिकाल के बाद आये इस काल को‘ ‘मध्यकाल’ के नाम से भी जाना जाता है। भक्ति काल का इतिहास छठीं शताब्दी से है। उस समय के कवियों का मूल उद्देश्य ऐसी रचनओं का सृजन करना था जो समाज और हिंदू धर्म में सुधार तथा इस्लाम और हिंदू धर्म के बीच समन्वय स्थापित कर सके।
              उस समय अलवार,नयनार विष्णु रामानंद आदि ने उत्तर भारत में भक्ति के इस आंदोलन को शुरू किया 786 से 820 ई. तक शंकराचार्य जी ने इस दिशा में अनेक कार्य किये। भक्तिकाल का समय सन् 1375ई. से 1700ई. है तथा कुछ विदवानों द्वारा सन्-1350 से 1650 ई. तक का माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के अनुसार भक्तिकाल का आरंभ 1375ई. से हुआ है। ग्रियर्सन जैसे अनेक विद्वानों से इसे स्वर्णकाल, स्वर्णयुग भी कहा है। 
          उत्तर ही नहीं अपितु दक्षिण भारत में भी आलवार बंधु,रामानुजाचार्य ,रामानंद आदि जैसे विदवान हुए हैं तथा उनके बाद वहाँ के अनेक आचार्ये द्वारा श्रेष्ठ रचनाएँ लिखी गयी है। भक्तिकाल में अनेक कालजयी ग्रंथ रचे गये है जो कि आज भी लोकप्रिय है।
          बुन्देलखण्ड की भूमि प्राचीन काल से रणभूमि के साथ-साथ लोक संस्कृति का प्रमुख केन्द्र रही हैं बुन्देली लोक संस्कृति भारत की प्राचीन क्षेत्रीय संस्कृति मानी जाती है यहाँ पर अनेक स्थानों मानव द्वारा निर्मित शैल चित्रों मिलते है जिससे यह सिद्ध होता है कि यहाँ आदिम युग से मानवनिवास कर रहे हैं। गुप्तकालीन,चंदेलकालीन, बुन्देलकालीन एवं मुगलकालीन स्थापत्य कला के अभेद दुर्ग,प्राचीन मंदिर,मूर्तियाँ, बौद्धमठ,जैन तीर्थंकरों के अनेक सिद्ध स्थान तथा अनेक दरगाहे देखने को मिल जाती है। 
       बुन्देली लोक संस्कृति और समाज का जरूरी हिस्सा है बुन्देलखण्ड की लोक संस्कृति बिना किसी भेदभाव सदियों से अनेक प्रकार की आध्यात्मिकता को धारण किए अनवरत रूप से गतिशील रही है। बुन्देलखण्ड की भूमि महाकाव्य काल में काल पुरुषों की विश्राम स्थली एवं कर्मस्थली भी रही है। साधु‘संतों, महंतों एवं ऋषियों ने यहाँ के वनाच्छादित और प्रकाकृतिक सौंदर्य को अपनी साधना एवं तपस्या के लिए उपयुक्त स्थान माना हैं 
     यहीं कारण है कि यहाँ पर अगस्त ऋषि, महर्षि अत्रि,वाल्मिकि एवं सनकनंदन जैसे प्रसिद्ध ऋषियों ने अपने-अपने आश्रम बनाएँ और यहाँ साधना की। यहाँ तक कि भगवान श्री राम भी अपने प्रवास काल में चित्रकूट में कुछ समय रहे। श्री राम के पुत्र लव लवपुरी लौड़ी वर्तमान में (लवकुशनगर) एवं कुश कुशावती जिसे कालिंजर के नाम से जाना जाता है। वहाँ पर रहे। 
       महाभारत में कौरवों-पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य का द्रोण क्षेत्र सैवढ़ा जिला दतिया रहा है। महाभारत कालीन शिशुपाल की राजधानी चंदेरी थी। पांडव अपने वनवास काल में बुन्देलखण्ड में रहे थे। 
     आज भी पांडव फाल, भीमकुंड, भीम बैठका, पाडंव कुंड आदि स्थान भी बुन्देलखण्ड में स्थित है। बौद्ध युग में यह बुन्देलखण्ड ‘मज्झम’ प्रान्त के नाम से प्रसिद्ध था। उज्जैन से भेलसा (विदिशा) होकर कौशाम्बी को जाने वाला रास्ता बुन्देलखण्ड से होकर ही जाता था। जबकि पटिलपुत्र से उज्जैन जाने वाला मार्ग दतिया,चंदेरी होकर था। जिस कारण से यहाँ पर बौद्ध धर्म के अनेक धार्मिक केन्द्रांे का निर्माण बुन्देलखण्ड में हुआ था।
     उस समय बौद्ध धर्म के केन्द्रों में जतकरी (खजुराहों), अजयगढ़, महोबा, गुजर्रा (दतिया),मोहनगढ़ (टीकमगढ़),एरण, भरहुत प्रमुख थे। बुन्देलखण्ड में नागौद एवं पन्ना क्षेत्र में किलकिल नदी के किनारे के क्षेत्रों में नागवंशीय सत्ता का आविर्भाव हुआ था। नाग यादव जाति की एक उप शाखा थे वे शिव के परम भक्त थे। कालिंजर(बाँदा) में नीलकंठ गुफा मंदिर नागकालीन ही है।
        भक्तिकाल में हुए प्रमुख कवियों को दो प्रमुख भागों मे ंबाँटा गया है- सगुण भक्तिकाल एवं निर्गुण भक्तिकाल।
 फिर इन दोनों की भी दो-दो शाखाएँ है- सगुण भक्ति में -रामाश्रयी शाखा और कृष्णाश्रयी शाखा एवं निर्गुण भक्ति में ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य धारा) और सूफी काव्य धारा (प्रेमाश्रयी शाखा)। 
        निर्गुण काव्य धारा के प्रमुख कवियों में कवि रैदास, कबीरदास, गुरूनानक,मलूक दास आदि है। जबकि सगुण काव्य धारा के प्रमुख कवि गोस्वामी तुलसीदास(राम चरित मानस,विनय पत्रिका), स्वामी रामानंद(राम आरती), स्वामी अग्रदास (राम भजन मंजरी,रामाष्टयाम), नाभादास (भक्तमाल),  ईश्वरदास(भरत मिलाप, अंगद पेज), केशवदास (रामचन्द्रिका), नरहरि दास (पौरुषेय रामायण) आदि है। इनके अलावा, नंद दास (भँवर गीत,रास पंचाध्यायी), कृष्णदास(जुगलमान चरित्र), परमानंद दास (परमानंद सागर), कुभनदास (फुटकल पद), चतुर्भुजदास, छीत स्वामी(फुटकल पद), गोविन्द्र स्वामी (फुटकल पद), हित हरिवंश,गदाधर भट्ट, मीराबाई, स्वामी हरिदास(हरिदास के पद), मदनमोहन, श्री भट्ट(युगल शतक) ,व्यास जी, रसखान(प्रेम वाटिका, दानलीला), ध्रुवदास (रसलावनी, भक्त नामावली) तथा चैतन्य महाप्रभु, रहीमदास आदि कवि प्रमुख रूप से है।
        भक्तिकाल में संत काव्य धारा जिसे ज्ञानाश्रयी शाखा भी कहते हंै इस काल में हुए प्रमुख कवियों के बारे में सक्षिप्त में जानकारी दे रहे है ताकि हम बुन्देलखण्ड के साथ-साथ पूरे देश में हुए कवियों के बारे में थोड़ा बहुत जान सके। इनमें प्रमुख रूप से कबीरदास जिनका जन्म सन् -1398 में हुआ था एवं उनकी रचनाएँ साखी,सबद एवं रमैनी का ‘बीजक’ नाम से उनके शिष्य धर्मदास ने संकलित किया था। इनकी पत्नी का नाम लुई एवं बच्चों के नाम कमाल एवं कमाली था। कबीर दास ने अपनी रचनाओं में अंधविश्वास, मूर्ति पूजा, जात-पात माया छुआछूत का उग्र विरोध किया। उनकी मृत्यु लगभग -1528 में मानी जाती है।
     कवि रैदास जिनका पूरा नाम रविदास था इनका जन्म सन्-1398ई. में उत्तरप्रदेश के काशी में हुआ था उनकी प्रमख कृति ‘रविदास की बानी’ है। इनकी माता का नाम कर्मादेवी एवं पिताजी का नाम संतोष दास था ये रामानंद के शिष्य थे। इन्होंने अपने दोहे और पदों के माध्यम से उस समय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को दूर करने का प्रयास किया। उनकी मृत्यु सन् -1448 में हुई थी।
    गुरूनानक जी का जन्म सन् 1469ई. में हुआ था उनकी प्रमुख कृति-जपुजी, रहिरास, असा-दी-वार, सोहिला-गुरु ग्रंथ साहब में नानक के पद संकलित है। उनकी मृत्यु सन् सन् 1543ई. में हुई थी।
         हरिदास निरंजनी का जन्म सन् 1455ई. में हुआ था उन्होंने अष्टपदी, जोगग्रंथ, ब्रह्यस्तुति,हंस प्रबोध आदि की रचना की थी उनकी मृत्यु सन् 1543ई. में हुई थी। 
        कवि दादू दयाल का जन्म सन् 1944ई. में हुआ था अपकी प्रमुख कृतियाँ- हरडै वाणी एवं अंगवधू है। आपकी मृत्यु सन् 1603ई. में हुई थी। 
       कवि मलूकदास का जन्म सन् 1574ई. में हुआ था इनके द्वारा प्रमुख रूप से ज्ञानदीप, रतनखान, भक्तिविवेक, राम अवतार लीला,ध्रुव चरित आदि ग्रंथों की रचना की गयी थीं इनकी मृत्यु सन्- 1682ई. में हुई थी। 
        कवि सुंदरदास का जन्म सन् 1596ई. में हुआ था अपने द्वारा ‘ज्ञानसमुद एवं सुंदर विलास आदि ग्रंथों की रचना की गयी थी। इनकी मृत्यु सन् 1689ई. में हुई थी।
       कृष्ण भक्ति धारा के प्रमुख कवि:- 
         कृष्ण भक्ति काव्यधारा में लिखने वाले कवियों ने भगवान श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया,प्रेम लक्षणा भक्ति,सौन्दर्य चित्रण, प्रकृति चित्रण, रीति तत्व का समावेश करते हुए ब्रज भाषा का उपयोग किया है। वहीं उद्धव-गोपी संवाद को ‘भ्रमर गीत’ नाम दिया गया है। 
         महाकवि सूरदास का जन्म सन् 1478ई. में हुआ था सूरदास की प्रमुख रचनाएँ- सूरसागर, सूरसावली, साहित्य लहरी है। इनकी मृत्यु सन् 1583ई. में हुई थी। 
    कवि नंददास का जन्म सन् 1533ई. में हुआ था इन्होंने रस संजरी, अनेकार्थ मंजरी, भ्रमरगीत,रास, एवं पंचाध्यायी आदि की ग्रंथों की रचना की थी। 
     कवि ध्रुवदास का जन्म सन् 1573ई. में हुआ था आपने ब्रजलीला, विचार लीला,दान लीला,मान लीला,सिद्धांत आदि की रचना की थी। आपकी मृत्यु सन् 1643ई. में हुई थी। 
     कवि स्वामी हरिदास का जन्म सन् 1478ई. में हुआ था। इनकी प्रमुख कृतियाँ-केलिमाल, सिद्धांत के पद आदि हैं इनकी मृत्यु सन् 1573ई. में हुई थी। 

राम भक्ति धारा के प्रमुख कवि:- 
       राम भक्ति धारा के प्रमुख कवियों में प्रमुख रूप से गोस्वमी तुलसीदास, ईश्वरदास, लालदास, अग्रदास,आदि है इन्होंने श्री राम पर केन्द्रित काव्य का सृजन किया। हिन्दी राम थ्भक्ति का मूल स्रोत संस्कृत में बाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ महाकाव्य है। 
     इसमें श्री सम्प्रदाय (रामानुजाचार्य), ब्रम्ह सम्प्रदाय (मध्वाचार्य) राम भक्ति के दो सम्प्रदाय थे।
     रामानुजाचार्य की परम्परा में राघवानंदन और रामानंद हुए। धनुष-वाण धारी राम के लोक रक्षक स्वरूप की उपासना का प्रारम्भ उन्होंन ही किया था। राम शक्तिशाली, सौंदर्य से युक्त मर्यादा पुरुषोत्तम है तथा भगवान विष्णु के अवतार है।,दास्य भा की भक्ति,नारी विषयक दृष्टिकोण नौतिक एवं पारिवारिक मूल्यों का समर्थन का विषयों पर प्रमुखता से अपी रचनाओं में वर्णन किया है। 
     तुलसीदास ने ‘राम चरित मानस’,विनय पत्रिका,रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्नावली जानकीमंगल ,आदि रचनाएँ श्री राम पर केन्द्रित ही लिखी गयी है। 
        कवि ईश्वर दास ने भरत मिलाप एवं अंगद पैज आदि का रचना की। कवि लालदास ने ‘अवध विलास’ ग्रंथ की रचना की, कवि अग्रदास ने ध्यानमंजरी, रामभजन मंजरी, उपासना बावनी, पदावली आदि ग्रंथों की रचना की। 

        भक्तिकाल में सूफी काव्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ:- 
        भक्तिकाल में सूफी काव्य के अनेक कवि हुए है जो कि अधिकांश मुसलमान थे एवं मसनवी शैली में उन्होंने अरबी भाषा का प्रयोग करते हुए काव्य ग्रंथों की रचना कि थी। जिसमें लोक पक्ष एवं हिन्दू संस्कृति का चित्रण किया था। उनकी रचनाओं में वियोग वर्णन की प्रधानता रही थी। 
मुल्ला दाउद (चंदायान) सन् 1379ई., कुतुबन (मृगावती)- सन् 1503ई., जायसी (पद्यावत) -1540ई., मंझन (मधुमालती) -1545ई., शेखनवी (ज्ञानदीन)-1619ई., नूर मुहम्मद (अनुराग बाँसुरी)-1764ई., नूर मुहम्मद (इन्द्रावती) सन् 1744ई. आदि प्रमुख है। 

      भक्तिकाल में बुंदेलखण्ड के कवियों का साहित्यिक योगदान:- 
              अधिकांश विद्वानों ने हिंदी के प्रथम कवि सरहपा को माना है इन्हें भक्ति युग के दौरान कविता के बीज बोने का श्रेय दिया जाता है इनका जन्म आठवीं शताब्दी में हुआ था। उन्होंने काव्य में ढेर सारे दोहे लिखे थे। 
          इसी प्रकार बुन्देलखण्ड में कवि जगनिग को प्रथम कवि माना जाता हैं। जगनिग के बाद विष्णुदास जी ने चैदहवीं शताब्दी में दो कथा काव्य महाभारत एवं रामायण कथा लिखी थी। बुन्देलखण्ड में अनेक कवियों ने जन्म लिया है और अनेक कवियों ने इसे अपनी कर्मस्थली बनाया उनमें बुन्देलखण्ड भक्तिकाल में हुए कुछ प्रमुख कवियों के बारे में जितनी जानकारी बहुत खोजबीन करने के बाद मिली उसे हम यहाँ उल्लेखित कर है- 
     गोस्वामी तुलसीदास:- 
         भक्ति काल में सर्वाधिक लोकप्रिय कवि तुलसीदास जी हैं तुलसी दास का जन्म उत्तरप्रदेश के बांदा जनपद के ग्राम राजापुर में तिथि श्रावण शुक्ल सप्तमी संवत्-1589 ई. में ंहुआ था। इनकी माता का नाम हुलसी था एवं इनके पिता का नाम श्री आत्माराम दुवे था जो कि प्रतिष्ठित सरयूपाररीण ब्रह्यण थे। इनका विवाह रत्नावली से सं. 1680ई. में हुआ था। इनकी मृत्यु संवत 1680वि. में श्रावण कृष्ण तृतीय शनिवार को हुई थी।
          गोस्वामी तुलसी दास ने ‘राम चरित मानस’ रचकर जो ख्याति प्राप्त की है वह उनके अन्य समकालीन कवियों ने नहीं पा पायी। हालाकि रामयण’ तुलसीदा सकेअलावा अन्य कवियों ने भी लिखी है लेकिन तुलसीदास रचित रामायण सरल शब्दों में लिखी गयी है जो कि आम आदमी को आसानी से समझ में आ जाती है। इनके अलावा तुसलीदास ने विनय पत्रिका, दोहावली, कवितावली, गीतावली,कृष्ण गीतावली, पार्वती मंगल,जानकी मंगल,वैराग्य संदीपनी, रामलला नहछू,रामाज्ञा प्रश्नावली, बरवै रामायण आदि ग्रंथों की रचना की।
         तुलसीदास द्वारा संवत्- 1631वि. में ‘रामचरित मानस’ कीरचना कि गयी थी जो कि अवधी भाषा में लिखी गयी थी लेकिन इसमें बहुत से बुन्देली शब्दों का प्रयोग भी किया गया है अर्थात हम कह सकते है कि अवधी और बुन्देली का मिश्रित रूप राम चरित मानस में देखने को मिल जाता है। इस महाकाव्य की रचना दो साल सात माह एवं छब्बीस दिन में की गयी थी। जो कि तुलसीदास द्वारा अयोध्या,काशी एवं चित्रकूट आदि स्थानों में रहकर लिखा गया था।
          जिसमें सात काण्ड है- बालकाण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्यकाण्ड,किष्किनधाकाण्ड, सुंदरकाण्ड, लंकाकाण्ड, एवं उत्तरकाण्ड। तुलसीदास द्वारारचित ‘विनय पत्रिका’ काव्य ग्रंथ मुक्तक शैली में ब्रज भाषा में लिखी गयी है। जिसमें 269 पद है। 

 केशवदास (संवत् 1612):-
         केशवदास का जन्म ओरछा में संवत्-1612वि. में हुआ था। इनके पिता का नाम पिता का नाम श्री काशी नाथ जी था। केशवदास कि मूल विधा दोहा छंद,चैपाई आदि थी केशवदास ने ‘राम चन्द्रिका’ का रचना की थी जिससे उन्हें भक्तिकाल का कवि भी माना जाता है लेकिन वे मूल रूप से वे रीतिकाल के कवि है। उन्होंने रामचन्द्रिका के अलावा वीर सिंह देव चरित्र, विज्ञान गीता,रतन वावनी,कवि प्रिया,रसिक प्रिया,जहाँगीर जसचन्दिका आदि प्रमुख ग्रंथों की रचना कि हैं।
         उन्नकी व्यापक काव्य भाषा प्रयोगशीलता एवं बुन्देल भूमि की संस्कृति रीति रिवाज भाषागत प्रयोगों सेकेशव बुदेली के ही प्रमुख कवि है। रीति और भक्ति का समन्वित रूप केशव के काव्य में देखने को मिलता है। जहाँ केशदास ने रीतिवादी कवि के रूप में कवि प्रिया एवं रसिक प्रिया की रचना की है वहीं रामचन्द्रिका एवं विज्ञान गीता में अपने भक्ति तत्व को बखूबी उजागर किया है। केशवदास की मृत्यु- अनुमानित सं 1674 में मानी गयी है।

       प्रवीण राय महाराज इन्द्रजीत के दरबार में थी महाराज इन्द्रजीत स्वयं ‘धीरेन्द्र नरेन्द्र’ उपनाम से कविता करते थे। पं. गौरी शंकर द्विवेदी ने इनका समय संवत् 1620वि. माना है। इन्हीं के समय में कल्याण मिश्र (संवत् 1635वि.) कविता लेखन में श्रेष्ठ माने गये थे। 
     इसी प्रकार बालकृष्ण मिश्र तथा गदाधर उस समय के प्रसिद्ध कवि हुए है। बुन्देली के अनेक मुहावरों का प्रयोग ‘बिहारी सतसई’ में पढ़ने को मिलता है। 
    बलभद्र के पौत्र श्री शिवलाल मिश्र (संवत 1660वि.) ने ठेठ बुन्देली के क्रिया पदों का प्रयोग किया है इसी प्रकार से स्वामी अग्रदास की कुण्डलियों बुन्दली लोकोक्तियों का सुदर प्रयोग किया गया है तथा उनमें लोक संदेश दिया गया है। 
        कवि सुंदरदास ने ‘सुंदर शृंगार’ कि रचना की हैं रीतिभक्ति काव्य में खेमदास रसिक सुवंश कायस्थ, पोहनदास मिश्र तथा ओरछा के अन्य कवियों ने भक्तिकाव्य को बहुत लिखा है बुन्देलखण्ड के राजाओं ने भी उस समय के कवियों को बहुत प्रोत्साहन दिया है उन्हें उचित मान व सम्मान दिया है।
             महाराज छत्रसाल ने तो कवि भूषण की पालकी को स्वयं उठाया था। लाल कवि और छत्रसाल जहाँ हिन्दुत्व और स्वाधीन बुन्देलखण्ड का समर्थन करते है तथा पृथक अस्तित्व बनाते है। 
      अक्षर अनन्य भक्ति और उपासना के क्षेत्र में निर्गुण काव्य धारा का समर्थन कबीर की भाँति करते है। प्रेममार्गी काव्य धारा में कवि हरिसेवक मिश्र तथा सगुण कृष्ण भक्ति काव्य में कवि बख्शी हंसराज के द्वारा ‘मधुराभक्ति का प्रतिपादन हुआ। राम काव्य धारा में महाकवि केशव के उपरांत अनेक कवियों ने काव्य रचनाकी लेकिन वे सभी केशव की तुलना में अधिक प्रभाव नहीं डाल पाये।
          हिन्दी साहित्य में बुन्देलखण्ड के ‘कबीर’ कवि अक्षर अनन्य को, ‘सूर’ कवि बख्शी हंसराज को ‘जायसी’ कवि हरिसेवक मिश्र को एवं राष्ट्रीय कवि ‘लाल’ को कहा जाता है। कवि बख्तबली महाचार्य ने चम्पतराय बुंदेला के युद्धों का वर्णन किया तो उनके पुत्र भानुभ (संवत्-1701वि.) ने भी महाराजा छत्रसाल बुंदेला के युद्धों का वर्णन और राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया है। इन्हीं के दूसरे पुत्र गुलाब भी इसी धारा के कवि थे।
            कवि लाल का प्रदेय इस काल में इसलिए अधिक था कि उन्होंने छत्रसाल बुंदेला को नायक बनाकर उनके समस्त घटनाओं का यथार्थ चित्रण किया है लाल की पंक्तियाँ को तत्कालीन राजाओं ने धर्म वाक्य के रूप में लिया था। ‘छत्रप्रकाश’ ग्रंथ में इन युद्धों का धारावाहिक विवरण लाल कवि ने लिखा है। 
       गजाधर भट्ट:- गजाधर भट्ट ने राजा इन्द्रजीत की ब्रज यात्रा का वर्णन ‘ब्रज विलास’ गं्रथ में किया। ‘विजय ब्रज विलास’ सर्ग 6 छंद 33 देखे- 
गदाधर कहै वेद विधि सौ पुरान सुनै,
 पूरन पुरान पूजे प्रेम सौ प्रतीत है।
 पृथु से, पारीक्षत से, पारथ, प्रियब्रत से,
 सत्यव्रत धारै प्रजा पालै राजनीति है। 
वैरिन को भीत लोक‘-लोकन अजलीत,
 राजै रायन के राजा राउ इंद्रजीत है।।
           बुन्देलखण्ड की अधिकांश रियासतों के राजा अपने रनिवास सहित तीर्थयात्रा पर जया करते थे यह एक महत्वपूर्ण धार्मिक रम्परा थी। राजा के लिए अन्य कार्यो के साथ तीर्थयात्रा करना,मठों में दान करना मंदिरेां का निर्माण कराना आदि धार्मिक कार्य किया करते थे जिससे उसकी यश व कीर्ति में वृद्धि होती थी। 
        दतिया के राजा विजय बहाुदर ने संवत् 1904वि. (सन् 1847ई.) में ब्रज की तीर्थयात्रा की जिसका वर्णन उसने साथ गए प्रसिद्ध कवि पद्माकर भट्ट के पौत्र कवि गदाधर भट्ट की थी। सवंत 1904वि की भाद्र कृष्ण पंचमी सोमवार को शुभ मुहूर्त में राजा विजय बहादुर अपने विश्वस्त लोगों के साथ ब्रज यात्रा पर चले उसका वर्णन लिखते हुए- श्री राधा गोविन्द्र के प्रगटन भक्ति प्रभाव। श्री ब्रज मण्डल दरस हित, विजय नृपति किय चाव।। (विजय ब्रज विलास सर्ग 7 छंद 73) बहु भांति वर्ण सुवर्ण सुंदर मुद्रिका पचमेर की। कासी, उदैपुर, जोधपुर, जैपुर सु बीकानेर की। कलदार,दिल्ली, अकबरी, अजमेी, अलवर की बनी। ग्वालेर,पट्टन कालपी, उज्जैन ,सूरत की धनी।। (विजय ब्रज विलास सर्ग 7 छंद 75) गदाधर भट्ट रचित ‘विजय विलास’अप्रकाशित ग्रंथ है। 
        इसी प्रकार से प्रतीतराम लक्ष्मण सिंह ने अपने आश्रयदाता दतिया के राजा भवानी सिंह की ब्रज यात्रा का विवरण लिखा है और उसका नाम ‘लोकेन्द्र ब्रजोत्सव’ (लोकेन्द्र ब्रजोत्वस ग्रंथ) सन् 1890ई. में प्रकाशित हुआ था इनका शासन काल सन् 1865-1925ई. तक था।

 कवयित्री पासवान खवासिन:-
         ब्रज की यात्रा के अतिरिक्त भवानी सिंह ने चारों धाम की यात्रा की थी इस यात्रा में उनकी प्रेयसी पासवान खवासिन उनके साथ थी। अपनी पुस्तक ‘तीर्थ यात्रा’ में पासवान खवासिन ने यात्रा का संक्षिप्त में वर्णन किया है। तीर्थ यात्रा की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए कवयित्री पासवान ने लिखा- पग पवित्र तीरथ किये,मुख पवित्र किये नाम।
 तन पवित्र तिन नरन को, करैं धर्म के काम।। 

प्रवीण राय:-
        प्रवीण राय का जन्म ओरछा में अनुमानतः संवत-1630 वि.(सन् 1573ई.) में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री माधवलुहार था प्रवीण राय ओरछेश रामशाह के भाई इन्द्रजीत ‘धीरज नरिन्द्र’ की पे्रयसी थी इनका निधन अनुमानतः संवत् 1690वि. में हुआ था। 
 प्रवीण राय की प्रमुख रचनाएँ -
1-नायिका भूषण(सत्रह छन्द), 2- प्रवीन विनोद(खण्डित प्रति) है। उपरोक्त रचनाओं का उल्लेख तो कई संदर्भ ग्रंथों में है पर किसी ने भी उनमें के छंदों का रंचमात्र भी वर्णन नहीं किया है। प्रवीण राय कुशल नृत्यांगना,उच्चकोटि की सुमधुर गायिका एवं कवयित्री थी।
          आचार्य केशवदास ने ‘कवि प्रिया’ ग्रंथ में राय प्रवीण की प्रंशसा में लिखा है- 
राय प्रवीन की सारदा,सुचि रुचि रंजित अंग। 
 बीना पुस्तक धारिनी, राजहंस जुत संग।।
 बृषभ बाहिनी अंगयुत,वासुकि लसति प्रवीन। 
सिव संग सोहे सर्वदा,सिवा की राय प्रवीन। 
          आचार्य केशवदास द्वारा प्रवीन राय को काव्य शिक्षा दी गई थी। फलस्वरूप आगे चलकर वह एक श्रेष्ठ कवयित्री सिद्ध हुई। राय प्रवीन की नृत्यकला,संगीत एवं काव्य प्रतिभा से प्रभावित होकर तत्कालीन ओरछेश रामशाह (1592-1605ई.) के भाई इन्द्रजीत जो स्वयं ‘‘धीरज नरिन्द्र’‘ नाम से काव्य सृजन करते थे तथा रामशाह की अनुपस्थिति में कार्यकारी ओरछेश रहते थे ने राय प्रवीन को अपनी प्रेयसी के रूप में स्वीकार कर ओरछा दुर्ग के अन्दर ही उसके निवास हेतु एक महल का निर्माण कराया। जो आज भी ‘प्रवीन राय महल’ के नाम से अच्छी स्थिति में विद्यमान है। महल के सामने एक विशाल बाग के चिन्ह अभी भी है।
         केशवदास ने लिखा है- 
तंत्री तुंवरू सारिका,सुद्ध सुरन सोंलीन। 
 देव सभा-सी सोभिजै,राय प्रवीन प्रवीन।।45।। 
सत्या राय प्रवीन जुत,सुरतरु सुरतरु गेह। 
इन्द्रजीत तासों बंधे,‘केशवदास’हि देह।।46।।। 
         श्री कन्हैया लाल जी शर्मा ‘कलश’ ने अपने एक आलेख ‘‘दिव्य नृत्यांगना रायप्रवीन’’ में रायप्रवीन द्वारा रचित एक पद सखी सम्प्रदाय में मिलने का उल्लेख किया है।
 जो निम्नानुसार है- 
टेक- उरझ गई को सुरझाय दिओ माधव।
 धु. अन्तरा- मोरे कर मंहदी लगी,सारी उघर गई। 
कैसे ओढूँ ओढ़नी,मैं अति विवस भई,
 उधर गई को अंगयाय लइयो माधव। उरझ गई.... 
रायप्रवीन हिये की बीना,तोरइ हात बजै, 
औरउ हाॅत लगै तो सबरे सुर आलाप तजै अपनोइ गुन गववाय जइयो माधन। उरझ गई........... 
     श्री ‘कलश’ ने प्रवीनराय के दो ग्रंथ 1-नायिका भूषण(सत्रह छन्द) 2- प्रवीन विनोद (खण्डित प्रति) प्राप्त होने तथा इसके अतिरिक्त कुछ फुटकर छंद प्राप्त होने का उल्लेख किया है। रायप्रवीण के जन्म के बारे में कलश जी लिखते है कि-
‘‘वरद्वारे (कछौआ पिछोर) में ‘रत्नाकर’ की लालित,सत्याराई प्रापलित,तोताराम पांडेय द्वारा परिवर्द्धित और ललता सखी नामधारी स्वामी हरिदास वैष्णव द्वारा संगीत कला में प्रस्फुटित ‘सावित्री’ नामी रूपोद्यान कलिका ही ओरछा राज्य दरवार की प्रवीण राई नाम से विख्यात हुई । वह आर्येतर पातुर कुल में संवत् 1642 में जन्मी थीं। इस विवरण हेतु कलश जी ने (राष्ट्रीय संग्रहालय दिल्ली का लेख दृष्टव्य ) संदर्भ दिया है। इधर कलश जी यह भी लिखते है कि-
        ‘महाराज ओरछेश इन्द्रजीत की वह प्रेमिका थी’ तथा- ‘कवीन्द्र केशव की वह शिस्या थी’।

 रत्नावली:- 
रत्नावली का जन्म राजापुर में अनुमानित सं. 1605 (सन् 1548ई.) माना गया है। रत्नावली तुलसीदास की पत्नी थीं। रत्नावली का कवयित्री के रूप में किसी साहित्य इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता। सोरो सामग्री में रत्नावली सम्बन्धी तीन ग्रथ्ंा मिलते हैं-1-रत्नावली, 2-रत्नावली लघु दोहा संग्रह, 3-दोहा रत्नावली। 
      इनका अवलोकन तथा विश्लेषण करने से रत्नावली के 201 उपलब्ध दोहों में से 88 दोहों ‘रत्नावली या ‘रत्नावती’ और 82 में ‘रतन’ का पर्ण संकेत मिलता है। शेष दोहों में कोई नाम नहीं है विषय की दृष्टि से इनमें पति-श्रृद्धा,पति पे्रम तथा नीति को प्रस्तुत किया गया है। काव्य कला की दृष्टि से इन दोहों में उपलब्ध उपमानों सादृश्यमूलक व्यंजनाओं, उपमा, रूपक आदि का सराहनीय प्रयोग मिलता है। अभिव्यक्ति की सरसता सरलता ब्रजभाषा में व्यक्त हुई है। इस ब्रजभाषा में तत्सम तद्भव शब्दों का प्रयोग तो मिलता है,परन्तु अरबी-फारसी आदि के शब्दों का अभाव है। भाषा में कहंीं भी व्याकरण दोष नहीं मिलता और शब्द-चयन की सुष्ठुता श्लाघ बनी है। छंद प्रयोग में सीमित रहने के कारण कवयित्री ने केवल दोहा का ही प्रयोग किया है। गोस्वामी जी से रत्नावली द्वारा कहे गए दो दोहा तो बहुत ही प्रसिद्ध है। यथा- 
लाज न लागत आपुको, दोरे आयहु साथ।
 धिक-धिक ऐसे पे्रम को, कहा कहहँू मैं नाथ।। 
अस्थि चर्म मय देह यह, तामें जैसी प्रीति। 
तैसी जौं श्रीराम हैं, होत न तौ भयभीत।। 

      तीन तरंग:- 
कवयित्री तीन तंरग का जन्म-ओरछा में संवत- 1610 वि. (सन् 1553 ई.) में हुआ था। तीन तंरग ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के आश्रित ओरछा दरबार की आश्रित वेश्या थी। उनका कविता काल-संवत् 1640वि. माना गया है। उन्होंने ‘संगीत अखाड़ा’ नाम से एक ग्रंथ की रचना की थीं। मधुर अली:- कवयित्री मधुर अली का जन्म ओरछा में संवत- 1615 वि. (सन् 1558 ई.) हुआ था इनका कविता काल संवत् 1640वि.माना गया है। 
कवयित्री मधुर अली -
        राम काव्यधारा की सर्वप्रथम कवयित्री हैं। इनके द्वारा 1-राम चरित्र 2-गनेस देव लीला ग्रंथों की रचना की गयी थी। ये भी ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह के आश्रित ओरछा दरबार की आश्रित वेश्या थी। 

 महाकवि बलभद्र:- 
      महाकवि बलभद्र मिश्र अत्यंत प्रतिभाशाली कवि थे इनके प्रमुख ग्रंथों में ‘सिखनख’, भाषा-भाष्य, बलभद्री व्याकरण, हनुमानाष्टक टीका, गोवर्द्धन समसई आदि बहुत प्रसिद्ध हुए। इनके समय में बुन्देलखण्ड में ओरछा, पन्ना, छतरपुर, झाँसी, टीकमगढ़, दतिया एवं सागर एक प्रमुख केन्द्रों के रूप मंे स्थापित होने लगे थे और यहाँ कवियों द्वारा बहुत से ग्रंथों की रचना की गयी।

 कवि चन्द्र सखी:- 
         भक्ति रस सिद्ध कवि ‘चन््रदसखी’ हुए है इनका जन्म ओरछा में संवत्1589वि. में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। जो ओरछा में महाराज उदैत सिंह के राज्याश्रय में राज-कवि रहे थे। इनके नाम को लेकर अनेक विद्वानों में मत-भेद था कि ये कवि है अथवा कवियत्री आदि इनका नाम दीवान प्रतिपाल सिंह के बुदेलखण्ड का बृहद इतिहास तथा पं. गौरी शंकर द्विवेदी के ‘बुंदेल वैभव’- में नहीं होने कारण ओरछा राज्य के पराभव के बाद‘चन्द्र सखी’ अन्य समकालीन कवियों की भांति राजस्थान चले गये थे। राजस्थान पत्रिका (राजस्थान- भारती) में अप्रैल सन् 1950 के अंक में अपने भजन छपे है। कवि चन्द्र सखी की मृत्यु वि.सं. 1656 में हुई थी। चन्द्र सखी बाल कृष्ण छवि की छाप वाले थे उनके भक्ति रस सिद्ध गये पद बहुत लोकप्रिय हुए। 
जैसे- कहन लागे मोहन मैया मैया। 
नंद बाबा जू से बावई बाबा बल्दाऊ से भैया। 
दूर खिलन जिन जाओं मोहन,मारैगी काहू की गैया।। 
ऊँचे अटा टेरौ जसौदा, लै लै नाम कन्हैया। 
एकन के दो-चार खेलत हैं, मेरा अकेलौ छैया। 
चंद्रसखी भज बाल कृष्ण छवि, जसुदा लेत बलैया।। 

कवि कन्हरदास:-
 कवि कन्हरदास का जन्म ग्राम पाथरेड़ी ओरछा राज्य में संवत् 1580 में हुआ था। पं. कन्हारदास महाराज मधुकर शाह (सं.1611-49वि.) प्रथम के गुरुदेव व वीर सिंह जू देव (1649-1675वि.) के मंत्री थे। जो श्रीरामराजा की ओरछा में प्रतिष्ठापना के अवसर दिए कंहरदास को पादाराघ रूप में ग्राम भसनेह की 311 बीघा जमीन देने के ताम्रपत्र से प्रमाणित है। अनेक पदों में इनकी छाप ‘कंहर’ लगी है। 
यथा- भजु सीयारामै कहौ करि मेरौ। 
अधम अधिक तरि गये नाम कहि लगौ नहीं दै देरौ। 
चढ़ी विमान गइी है गनिका अजामेल स्तुत टेरौ। 
कंहर राम नाम के कहत ही मिटि गयौ अंधेरौ।। 

कवि विक्रम:- 
      कवि विक्रम का जन्म संवत् 1624-30वि.अनुमानित ग्राम चंदेरा में हुआ था। बाद में उनके वंशज जीरोन जिला टीकमगढ ़(म.प्र) में बस गये थे। इनके पिता का नाम श्री प्रानसुख था। आपका प्रमुख ग्रंथ ‘सुदामा चरित्र’ है जिसमें 208 छंद है।

 स्वामी अग्रदास:- 
      स्वामी अग्रदास का जन्म संवत 1632वि. में हुआ था। ये स्वामी रामानंद के शिष्य थे। इनके प्रमुख ग्रंथ अष्टयाम संस्कृति में ‘ध्यान मंजरी पदावली’ हिन्दी में एवं अनेक हस्त लिखित कुण्डलियाँ बुंदेली में प्राप्त हुई है। 

 नवल सिंह प्रधान:-
       बुन्देल राजाओं की ब्रज यात्राओं पर स्वतंत्र रूप से विस्तार पूर्वक सबसे पहले ग्रंथ लिखने का श्रेय बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध कवि नवल सिंह प्रधान को हैं जिन्होंने सवंत 1879 (सन् 1822ई.) में अपने आश्रयदाता दतिया से राजा पारीक्षत की ब्रजयात्रा का वर्णन कर उसे ब्रज भूमि प्रकाश की संज्ञा दी। इस यात्रा में कवि स्वयं राजा के साथ थे अतः उन्होंने राजा पारीक्षत की तीर्थ यात्रा के दौरान प्रतिदिन का विवरण काव्यमय लिखा है और ब्रज मण्डल के तीर्थो का आँखों देख हाल लिखा। 

 लाला परमानंद प्रधान:- 
      लाला परमानंद प्रधान का जन्म तत्कालीन ओरछा राज्य की राजधानी टीकमगढ़ में फाल्गुन माह में कृष्ण पक्ष की दसवीं को संवत् 1907वि. में हुआ था। आपके पिता श्री जानकीदास एक प्रतिभाशाली रचनाकार थे ये ओरछा राज्य के महाराजा हम्मीद सिंह (1854-74ई.) के दरबारी कवि थे। जो कि जानकीदास उर्फ हरिदास ‘हरिजन’ नाम से कविता किया करते थे। इनके द्वारा रचित हिन्दी साहित्य का श्रेष्ठ काव्य ग्रंथ ‘तुलसी चिंता मणि’ हैं। जिसका उल्लेख आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास में किया है। उक्त ग्रंथ अप्रकाशित है लेकिन उसकी पांडुलिपि अभी तक सुरक्षित है।
         लाला परमानंद प्रधान ने 32 काव्य ग्रंथों की रचना की थी जिसमें अधिकांश ग्रंथ उनके अप्रकाशित है इन्हीं 32 ग्रंथों पर टीकमगढ़ के डाॅ. देवीप्रसाद खरे ने शोध कार्य कर पी-एच.डी. की थी। लाला परमानंद प्रधान द्वारा रचित 32 ग्रंथों में से 14 ग्रंथ भक्ति संबंधी ग्रंथ है। एवं 5 ग्रंथ नीति संबंधी भी लिखे है। लाला परमानंद प्रधान जी तुलसीदास की तरह सगुण भक्ति धारा के प्रमुख कवि थे। उन्होंने श्री राम के विविध स्वरूपों को बहुत सुदर ढ़ंग से चित्रित किया हैं हिन्दी साहित्य में उन गिने चुने ऐसे कवियों में से है जो श्री राम का मर्यादा पुरुषोत्तम स्वरूप चित्रित करने के साथ-साथ श्री राम का रसिक शिरोमणि प्रदर्शित करने वाला स्वरूप भी चित्रित करने ने नहीं हिचकिचाए। 
         लाला परमानंद प्रधान ने अपने अद्वितीय महाकाव्य ‘प्रमोद रामायण’ में श्री राम का रसिक शिरोमणि स्वरूप वणर््िात किया है। ‘प्रमोद रामायण’ में 62 सर्ग है। चतुर्थ सर्ग(विलास) में रामचन्द्र जी का लोक भोगानन्द वर्णित किया गया है- 1-चंद्रद्वीप, 2-भद्रद्वीप, 3-पंगक द्वीप, 4-प्रभा द्वीप, 5-हय द्वीप, 6-गज द्वीप, 7-भोगानन्द। 
    इसी भोगानंद में कौशल देश, मैथिल देश है जिनमें अयोध्या और मिथिलापुर नगर क्रमशः है। 
सप्तम द्वीप,सुभग सुख दाता। 
भोगानंद नाम अवदाता। 
कौशल देस मध्य तिहि केरे। 
तिमि मैथिल जुत देस घनेरे। 
नगर अयोध्या कौशल माहीं। 
मिथल मध्य मिथिला जाही।। 
       लाला परमानंद प्रधान की ‘रामचरित मानस’ में अगाध श्रद्धा थी उन्होंने ‘मानस’ को आधार मानकर ही ‘मंजु रामायण, रामायण मानस दर्पण, रामायण मानस चंद्रिका एवं रामायण मानस तरंगिण(प्रकशित) आदि की गं्रथों की रचना की थी। इन चारों ग्रंथों की कथा ‘मानस’ की तरह सातों काण्डों में है। ‘रामायण मानस तरंगिणी’ तो लघु आकार की है जिसे एक घंटे में पूरा पढ़ा जा सकता है।
         श्री लाला परमांनंद जी मूलतः भक्ति भावना केकवि थे इसीलिए उनके काव्य में अधिकांशतः भक्ति भावमय दृष्टांतों की भरमार रही है। वर्ण चैंतीसी काव्य में एक-एक वर्ण से बनने वाले शब्दों से दोहा छंद में उन्होंने अनुपम प्रयोग करते हुए काव्य की रचना की है छन्द दृष्टव्य है- 
पावन परम प्रभाव प्रिय, प्रेम पियूष प्रवीन। 
पद पंकज पूरक प्रमुद, परमानंद पन पीन।। 
         इनके अलावा अनेक कवि है कवि राजबली (सं.1580-90वि.),बीरबल (महेशदास) सं.1590विं., गोविंद स्वामी (स.ं1595वि.), कवि अमरेश (1600वि.), कवि परमेश (1590वि.),नरोत्तम दास (सं.1502वि.), आलम (सं. 1683वि.), राम मिश्र (1630वि.), आदि भक्तिकाल में बुंदेली धरा पर हुए है। 
         इस प्रकार से भक्ति काल में बुन्देलखण्ड के अनेक कवियों द्वारा श्रेष्ठ ग्रंथ रचे गये थे जो कि हिन्दी साहित्य मे अपना विशेष महत्व रखते हैं। कालजयी होने के साथ-साथ वे आज भी उतने ही लोकप्रिय है जितने पूर्व में थे। इसीलिए भक्ति काल को ‘स्वर्णकाल’ या ‘स्वर्ण युग’ भी कहा जाता है। 
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        - राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका 
 संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका 
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़ 
 जिलाध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र,टीकमगढ़ 
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail- ranalidhori@gmail.com 
 Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com 

 संदर्भ ग्रंथ:- 

1-‘बुन्देली इतिहास और संस्कृति(2005)-संपादक-कपिल तिवारी,आलेख-डाॅ.काशी प्रसाद त्रिपाठी पेज-119 प्रकाशक आदिवासी लोक कला अकादमी,मध्यप्रदेश परषिद् भोपाल 

2-बुन्देलखण्ड का बृहद इतिहास-डाॅ.काशीप्रसाद त्रिपाठी, (1991) पेज-152-154 

3-हिंदंी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास-संपादक-मीधा एन.सीरी, सन् 2018 पेज 47

 4-‘ईसुरी’ अंक-22 (सन्-2019)-डाॅ. राजेन्द्र यादव (सागर) 

5-‘बुन्देली इतिहास और संस्कृति(2005)-संपादक-कपिल तिवारी,आलेख-उदय शंकर दुवे पेज-189 प्रकाशक आदिवासी लोक कला अकादमी,मध्यप्रदेश परषिद् भोपाल

 6-तुलसी ग्रंथावली- तृतीय खंड (वि.स.2033) नागरी प्रचारिणी सभा,वाराणसी 

7-भक्ति का विकाप्त-संपादक- डाॅ. मुंशीराम शर्मा, चैखंडा सीरीज वाराणसी, सन् 2022ई. 

8-बुन्देलखण्ड के अज्ञात रचनाकार-संपादक- डाॅ. गंगा प्रसाद बरसैया, पेज-28 

9-बुन्देलखण्ड के रचनाकार ग्रंथ (2011)- संपादक-डाॅ. रमनारायण शर्मा (झाँसी) पेज-18 

10-बुन्देलखण्ड़ की कवयित्रियाँ- संकलन एवं संपादन-हरिविष्णु अवस्थी प्रकाशक-आदिवासी लोक कला अकादमी मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद् भोपाल 

11- 11वी एवं 12वीं हिंदी नोट्स इन हिंदी-गूगल से साभार 

12-कुछ सामग्री इंटरनेट गूगल से साभार

 -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका 
 संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका 
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़ 
 शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail- ranalidhori@gmail.com 
 Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com

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