Rajeev Namdeo Rana lidhorI

रविवार, 31 दिसंबर 2023

आलेख -परसाई जी आज भी प्रासंगिक हैं-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’

आलेख -   परसाई जी आज भी प्रासंगिक हैं  
                                  -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’     

    हिन्दी साहित्य में खासकर व्यंग्य साहित्य में जो स्थान हरिशंकर परसाई जी का है वह शायद अब तक किसी और का नहीं है उनके व्यंग्य आज भी प्रासंगिक हैं। परसाई जी को समझना हर किसी के बस की बात नहीं है और इतना आसान भी नहीं है उनके व्यंग्य आप जितने बार पढ़ेगें वे हर बार कुछ नया सोचने पर विवश कर देते है। उनकी कलम की धार हर बार अंदर तक घाव कर देती हैं और पाठक को झकझोर देती हैं। 
             परसाई जी के हर व्यंग्य विशिष्ट है चाहे वे ‘विकलांग श्रद्धा का दौर हो’ या ‘भूत के पाँव पीछे’, ‘बेईमानी की परत’, भोलाराम का जीव या ‘सुनो भाई साधु’ हो सभी एक से बढकर एक हैं ये व्यंग्य किसी विश्वविद्यालयांे ंके पाठ्यक्रमों में शामिल होकर किसी अध्ययनरत छात्रों के लिए ही नहीं वरन् आम पाठक के लिए भी बहुत कुछ देते है जहाँ एक ओर वे वर्तमान किसी समस्या की ओर इंगित करते है तो वहीं उस समय की शासन व्यवस्था व राजनीति पर भी गहरी चोट करने से नहीं चूकते हैं। परसाई जी के व्यंग्य ऐसे लगते है जैसे चिकोटी काट ली, सुई चुभो दी गयी हो। 
          उनके कुछ व्यंग्यों से लिए गए तीक्ष्ण कटाक्ष देखें- 
 ‘गणतंत्र को उन्हीं हाथों की तालियाँ मिलती हैं जिनके मालिक के पास हाथ गरमाने के लिए गर्म कोट नहीं है।’’ 

 ‘‘जिनकी हैसियत होती है वे एक से अधिक बाप रखते हैं एक घर में, एक दफ्तर में एक-दो बाजार में,एक-एक हर राजनीति दल में।’’ 

 ‘‘हम मानसिक रूप से दोगले नहीं तिगले हैं। संस्कारों से समांमवादी है, जीवन मूलय अर्द्ध-पूंजीवादी है, और बाते समाजवाद की करते हैं।’’
 हिंदी के उफान का दौर जब-जब आता है। कुकुर की सब्जी पक जाती है और भाप निकलने लगती है। तब एकाध आंदोलन एक-दो दिन चल जाता है। 

 ‘आत्म विश्वास कई प्रकार का होता है धन का, बल का, ज्ञान का लेकिन मूर्खता का आत्मविश्वास सर्वोपरि होता हैं।’
                परसाई जी ने अपने व्यंग्यों में समाज में व्याप्त समस्याओं को एवं विसंगतियों का बखूबी चित्रित किया हैं जो कि सीधे चोट करती हंै। उन्होंने अपने स्तंभ लेखन में अनेक व्यंग्यों में राजनीति पर गहरी चोट की है जैसे ‘ठिठुरता हुआ गणतंत्र’ उनकी एक बेहतरीन व्यंग्य है जो कि उस समय की राजनीति पर गहरा व्यंग्य करता है। 
                   परसाई के व्र्यंग्य कालम ‘सुन भाई साधु’ एवं ‘माजरा क्या है’ आदि बहुत चर्चित रहे। भले ही उन्होंने उस समय समाचार पत्रों के लिए तत्कालीन समय एवं घटनाओं पर कलम चलायी हो लेकिन उनके लिखे वे व्यंग्य आज भी प्रासंगिक हैं। 
             परसाई ने जहाँ माक्र्सवादी चिंतन दर्शन आदि को भारतीय दृष्टिकोण से देखा तो, वहीं सामान्य ग्रामीण जन के अंतर्विरोधों को भी अपने व्यंग्य में बखूबी ढाला है। परसाई जी ने अपने जीवन में एकमात्र व्यंग्य लघु उपन्यास ‘रानी नागफनी’ लिखा है, जो कि एक फेंटेसी है। 
             परसाई ने अपनी कहानियों एवं व्यंग्यों ंमें विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया गया ‘जैसे उनके दिन फिरें, वहीं, राग-विराग, निठल्ले की डायरी, देश भक्ति का पालिस. आदि प्रमुख है। परसाई जी ने उस समय भारत में अंधविश्वास, ढोंग,पाखंड, धर्मिक कट्टरता, कर्मकांड, शोषण, दमन,अन्याय,दुराग्रहों, एवं विसंगतियों आदि पर व्यंग्य लिखकर समाज को चेताया है कि ये सभी देश के आर्थिक विकास में अवरोध है इन्हें दूर करना चाहिए। 
           यही कारण है कि परसाई जी ने उस समय के लोगों की दुखती रग को जाना है और अपने व्यंग्य के माध्यम से उसे उजागर किया है। तभी तो उनके व्यंग्य सीधे पाठकों के असर करते थे यही गुण कहानी सम्राट प्रेमचन्द्र जी में था उन्होंने भी अपनी कहानियों एवं उपन्यासों में भारतीय ग्रामीण जीवन का बहुत बारीकी से वर्णन किया है। 
            आज के अधिकांश लेखक चाहे वे किसी भी विधा में लिखते हों, वो वामपंथी एवं दक्षिणपंथी दो खेमों में बँटे हुए दिखाई देते हैं। वे अपने खेमों के प्रबल पक्षणर होते है जबकि एक अच्छे व्यंग्यकार को किसी भी खेमें दल या राजनीति से प्रभावित नहीं होना चाहिए उसका लेखन स्पष्ट होना चाहिए दूसरों की कमियों के बताने हुए उसे स्वयं के भीतर भी छाँंककर देखना चाहिए। 
          एक लेखक की दृष्टि साफ होनी चाहिए उसमें पक्षपात नहीं होना चाहिए तभी वह लेखन सार्थक होता है यही कारण है कि परसाई जी ने उस समय जो देखा उसे बेझिझक बिना किसी से डरे अपने व्यंग्यों मे व्यक्त कर दिया है।ं 
         यही कारण है कि परसाई जी माक्र्सवादी होने के बाद भी माक्र्सवादियों के अंतर्विरोधों का समय-समय पर उजागर करने से भी नहीं चूकते थे। उनके अनेक व्यंग्य आप खुद समझ जाएँगें। आज भले ही अपने स्वार्थ के लिए एवं सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए कुछ तथाकथिक आलोचक परसाई जी को बौना साबित करने में लगे हैं लेकिन वे परसाई जी की बराबरी कभी नहीं कर सकते। 
       परसाई जी के सामने वे मात्र उस दिये के सामान है, जो एक व्यंग्य के सूरज के सामने रखा है।
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आलेख  - राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ 
 संपादक ‘आकांक्षा’ (हिन्दी) पत्रिका 
  संपादक ‘अनुश्रुति’ (बुन्देली) ई-पत्रिका 
 अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़  
 जिलाध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र,टीकमगढ़ 
 शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.) पिन-472001 मोबाइल-9893520965 E Mail-   ranalidhori@gmail.com       
 Blog - rajeevranalidhori.blogspot.com  

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