Rajeev Namdeo Rana lidhorI

सोमवार, 14 अप्रैल 2025

श्री भक्त माल कथा समग्र-संकलन राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'





*श्री भक्तमाल (130)*
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*सुंदर कथा ८३ (श्री भक्तमाल – श्री पवनपुत्र दास जी )*

पूज्य संतो की कृपा से कुछ छिपे हुए गुप्त भक्तो के चरित्र जो हमने सुने थे वह आज अनायास ही याद आ गए । उनमे से एक चरित्र संतो की कृपा से लिख रहा हूं –

श्री पवनपुत्र दास जी नामक एक हनुमान जी के भोले भक्त हुए है । यह घटना उस समय की है जब भारत देश मे अंग्रेजो का शासन था । अंग्रेज़ अधिकारी के दफ्तरों के बाहर इनको पहरेदार (आज जिसे सेक्युरिटी गार्ड कहते है ) की नौकरी मिली हुई थी । घर परिवार चलाने के लिए नौकरी कर लेते थे , कुछ संतो की सेवा भी हो जाया करती थी पैसो से । कभी किसी जगह में जाना पड़ता , कभी किसी और जगह जाना पड़ता । एक समय कोई बड़ा अंग्रेज़ अधिकारी भारत आया हुए था और पवनपुत्र दास जी को उनके निवास स्थान पर पहरेदारी करने का भार सौंपा गया । श्री पवनपुत्र दास जी ज्यादा पढ़े लिखे नही थे , संस्कृत आदि का ज्ञान भी उनको नही था परंतु हिंदी में श्री राम चरित मानस जी की चौपाइयों का पाठ करते और हनुमान चालीसा का पाठ लेते , ज्यादा कुछ नही आता था ।

अन्य समय श्री हनुमान जी के रूप का स्मरण करते हुए सतत श्री सीताराम जी का नाम जप करते रहते – सीताराम सीताराम सीताराम सीताराम : इसी का जाप करते थे, मंत्र आदि उन्हें कुछ आते थे नही । रात को बहार बैठ जाते पहरेदारी करने और नाम जप , कीर्तन आदि में मग्न रहते । इनको अनुभूति होती कि हनुमान जी वह उपस्थित है और श्री सीताराम जी का नाम श्रवण करने के लिए नित्य वहां आते है । कई बार दिखाई पड़ता कि हनुमान जी महाराज भाव मे भर कर नृत्य करने लगे है । एक बार ऐसे ही पवनपुत्र जी बहार बैठकर हनुमान जी का ध्यान कर रहे थे और उनको श्री सीताराम जी का नाम सुना रहे थे, वे कुछ समय बाद भाव मे मगन हो गए और उनकी आंखें बंद हो गयी । कीर्तन चल रहा था और अंग्रेज़ अधिकारी के कानों मे उसकी ध्वनि पहुंची । उसी समय अंग्रेज अधिकारी बाहर दरवाज़े के बाहर आया और देखा कि पवनपुत्र दास जी आँखें बंद करके कीर्तन कर रहे है । उस अधिकारी ने भक्त जी को कंधे पकड़ कर हिलाया परंतु वे तो भाव मे ही मगन थे । अंग्रेज़ अधिकारी क्रोध में भर कर अपशब्द कहने लगा परंतु फिर भी भक्त जी पर कोई असर नही हुआ ।

उसने सोचा कि यह पहरेदार तो ठीक से काम पर ध्यान नही देता है, इसे तो दंड मिलना चाहिए । अंग्रेज़ अधिकारी चाबुक लेकर आया और भक्त जी पर उसने कई प्रहार किए । कुछ देर में भक्त जी मूर्छित हो गए और वही पड़े रहे । उन्हें अगले दिन पता चला कि उनपर अधिकारी क्रोधित हुए थे और उन्हें नौकरी से भी निकाल दिया गया है । आगले दिन हनुमान जी महाराज को भक्त का कीर्तन सुनने नही मिला । एक महाभयंकर विशाल वानर का रूप धारण करके हनुमान जी उस अंग्रेज़ अधिकारी के निवास स्थान के अंदर चले गए और उसे बड़े बड़े नाखून और दांतों से उसका शरीर नोचने लगे । पूंछ से भी उसे बहुत मार पड़ी । वह अधिकारी कांप गया और डर से चिल्लाने लगा , उसने वानर पर बंदूक से गोलियां भी चलाई पर वह भी वानर के शरीर से टकराकर चूर चूर होकर नीचे गिर रही थी। उसने सिपाहियों को मदद के लिए बुलाया पर कोई नही आया । उसका शरीर घावों से भर गया और पूरे शरीर से रक्त बहने लगा , अंगों में दाह और दर्द के मारे वो पागल हो गया ।

उसकी चिकित्सा बड़े बड़े डॉक्टरों द्वारा भी संभव नही हो पाई । उसके न तो घाव भरते और न शरीर का दाह काम होता । अगली रात स्वप्न में वही भयंकर वानर का स्वरूप उस अधिकारी को दिखाई पड़ा और उसने कहा कि तुमने भगवान श्री राम के भक्त का अपराध किया है – जाकर उसके चरण पकड़ो और क्षमा मांगो। उस अधिकारी ने अगले दिन वह स्वप्न सबको बताया । एक अन्य सिपाही थोड़ा बुद्धिमान था , उसको सारी बात समझमे आ गयी । उसने अधिकारी से कहा कि साहब , आपने जिस तरह के वानर का स्वरूप वर्णन किया है वह वानर और कोई नही स्वयं श्री हनुमान जी ही थे । पवनपुत्र दास जी ने आजतक जहां भी नौकरी की, वहां कभी कोई चोरी नही हुई है । वे हनुमान जी के बड़े भक्त है । आपने पवनपुत्र दास जी का अपमान किया और उन्हें कष्ट पहुँचाया है अतः आपको दवाई नही केवल भक्त पवनपुत्र दास जी ही बचा सकते है ।

अंग्रेज़ अधिकारी किसी तरह सिपाहियों को लेकर गाडी में बैठकर भक्त जी के घर पहुंचा । उसने चरणों को पकड़ कर क्षमा याचना करते हुए सारी घटना सुनाई । भक्त जी समझ गए कि वह स्वयं श्री हनुमान जी ही थे । पवनपुत्र दास जी रोकर अधिकारी कहने लगे कि आप बड़े भायगशाली है आपको भगवान के प्रिय भक्त श्री हनुमान जी का दर्शन एवं स्पर्श प्राप्त हुआ । अधिकारी को कष्ट में देखकर उन्होंने हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए कहा की इस अंग्रेज़ अधिकारी को क्षमा करें । पवनपुत्र दास जी के प्रार्थना करने और उस अधिकारी का शरीर पूर्ववत स्वस्थ हो गया । यह चमत्कार देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया । उसने भक्त जी से कहा कि आप सम्मानपूर्वक चलकर एक उच्च पद की नौकरी स्वीकार कीजिये। पवनपुत्र दास जी ने हाथ जोड़कर कहा कि भगवान को मेरे कारण कष्ट हुआ है, अब मै और नौकरी नही करना चाहता ।

अंग्रेज ने भक्त जी को घर और बहुत से धन भेट में दिया जिसे उन्होंने गरीबो , गौ और संतो की सेवा करने के उपयोग में लिया । उसके पश्चात पवनपुत्र दास जी आजीवन भगवान के भजन में ही मग्न रहे , लोगो मे उनके प्रति बहुत श्रद्धा थी । वह अंग्रेज़ अधिकारी भी अपना पद त्यागकर धीरे धीरे हिंदी सिख गया और भगवान के भजन , सत्संग में लग गया । उस अंग्रेज ने कमाया हुआ काफी धन भक्त जी के परिवार को दे दिया । इस तरह भक्त पवनपुत्र दास और पवनपुत्र हनुमान जी की कृपा से वह अंग्रेज भी भक्त बन गया और उसका जीवन सफल हो गया । पवनपुत्र दास जी अपने को हमेशा छिपा कर रखते थे और छिपकर ही भजन करते थे । गृहस्थ होते हुए भी नौकरी करते समय निरंतर भजन में लगे रहने वाले थे । इनके विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है । संतो की कृपा से जितना बना उतना लिखा हमने ।

मोरे मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ।। राम सिन्धु घन सज्जन धीरा । चन्दन तरु हरि संत समीरा ।।
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**श्री भक्तमाल (131)*
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*सुंदर कथा ८४ (श्री भक्तमाल – अपने पुत्र को विष देने वाली दो भक्तिमती नारियाँ )*

१. पहली कथा :

एक राजा बड़ा भक्त था । उसके यहाँ बहुत से साधु-सन्त आते रहते थे । राजा उनकी प्रेम से सेवा करता था । एक बार एक महान संत अपने साथियों समेत पधारे । राजा का सत्संग के कारण संतो से बडा प्रेम हो गया । वे सन्त राजा के यहाँ से नित्य ही चलने के लिये तैयार होते, परंतु राजा एक-न-एक बात ( उत्सव आदि) कहकर प्रार्थना करके उन्हे रोक लेता और कहता क्रि प्रभो ! आज रुक जाइये, कल चले जाइयेगा । इस प्रकार उनको एक वर्ष और कुछ मास बीत गये । एक दिन उन सन्तो ने निश्चय कर लिया कि अब यहां रुके हुए बहुत समय बीत गया ,कल हम अवश्य ही चले जायेंगे । राजाके रोकनेपर किसी भी प्रकर से नही रुकेंगे । यह जानकर राजा की आशा टूट गयी, वह इस प्रकार व्याकुल हुआ कि उसका शरीर छूटने लगा । रानी ने राजा से पूछकर सब जान लिया कि राजा सन्त वियोग से जीवित न रहेगा । तब उसने संतो को रोकने के लिये एक विचित्र उपाय किया । रानी ने अपने ही पुत्र को विष दे दिया; क्योकि सन्त तो स्वतन्त्र है, इन्हे कैसे रोककर रखा जाय ?

इसका और कोई उपाय नही है ,यही एक उपाय है । प्रात: काल होने से पहले ही रानी रो उठी, अन्य दासियाँ भी रोने लगी, राजपुत्र के मरने की बात फैल गयी । राजमहल मे कोलाहल मच गया । संत तो दया के सागर है, दुसरो के दुख से द्रवित हो जाते है । सन्तो ने सुना तो शीघ्र ही राजभवन मे प्रवेश किया और जाकर बालक को देखा । उसका शरीर विष के प्रभाव से नीला पड़ गया था, जो इस बातका साक्षी था कि बालक को विष दिया गया है । महात्माजी सिद्ध थे , उन्होने रानी से पूछा कि सत्य कहो, तुमने यह क्या किया ? रानी ने कहा – आप निश्चय ही चले जाना चाहते थे और हमारे नेत्रों को आपके दर्शनों की अभिलाषा है । आपको रोकने के लिये ही यह उपाय किया गया है ।

राजा और रानीकी संतो के चरणों मे ऐसी अद्भुत भक्ति को देखकर वे महात्मा जोरसे रोने लगे । संतो में राजा रानी की ऐसी प्रीति है कि केवल संतो को रोकने के लिए अपने पुत्र को ही विष दे दिया । संत जी का कण्ठ गद्गद हो गया, उन्हें भक्ति की इस विलक्षण रीति से भारी सुख हुआ । इसके बाद महात्माजी ने भगवान के गुणों का वर्णन किया और हरिनाम के प्रताप से सहज ही बालक को जीवित कर दिया । उन्हे वह स्थान अत्यन्त प्रिय लगा । अपने साथियों को- जो जाना चाहते थे, उन्हें विदा कर दिया और जो प्रेमरस मे मग्न संतजन थे, वे उनके साथ ही रह गये । इस घटना के बाद महात्माजी ने राजा से कहा कि अब यदि हमे आप मारकर भी भगायेंगे तो भी हम यहांसे न जायंगे ।

२. दूसरी कथा : 

महाराष्ट्र के राजा महीपतिराव जी परम भक्त थे । उनकी कन्या कन्हाड़ के राजा रामराय के साथ ब्याही थी, लेकिन घरके सभी लोग महा अभक्त थे । भक्तिमय वातावरण मे पलने वाली उस राजपुत्री का मन घबडाने लगा । अन्त मे जब उसे कोई उपाय नही सूझा तो उसने अपनी एक दासी से कह दिया कि इस नगर मे जब कभी भगवान के प्यारे संत आये तो मुझे बताना ।

एक दिन दैवयोग से उस नगर मे संतो की ( संत श्री ज्ञानदेवजी की) जमात आयी । उनके आनेका समाचार दासी ने उस राजपुत्री को दिया । अब उस भक्ता से सन्त अदर्शन कैसे सहन होता । उसने अपने पुत्र को विष दे दिया । वह मर गया, अब वह राजकन्या तथा दूसरे घरके लोग रोने तथा विलाप करने लगे । तब उस भक्ता ने व्याकुल होकर उन लोगों से कहा कि अब इसके जीवित होने का एक ही उपाय है, यदि वह किया जाय तो पुत्र अवश्य जीवित हो सकता है । वह चाहती थी कि किसी तरह संत जान यहां पधारे और इन अभक्त लोगो को संतो का महात्म्या पता लगे । रोते-रोते परिवार के सब लोगो ने कहा – जो भी उपाय बताओगी, उसे हम करेंगे । तब उस बाई ने कहा कि संतो को बुला लाइये । 

उन अभक्त लोगों ने पूछा कि सन्त कैसे होते है ? इसपर भक्ता ने कहा कि यह मेरे पिता के घर जो दासी साथ आई है , यह मेरे पिता के घर मे सन्तो को देख चुकी है । यह सब जानती हैंकि संत कैसे होते है, कहाँ मिलेंगे आदि सब बातों को यह बताएगी । पूछनेपर दासी ने कहा कि आज इस नगर मे कुछ सन्त पधारे है और अमुक स्थानपर ठहरे है । वह दासी राजा को साथ लेकर चली और सन्तो से बोलना सिखा दिया । दासी ने राजा से कहा कि संतो को देखते ही पृथ्वीपर गिरकर साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हुए उनके चरणों को पकड लीजियेगा । राजा ने दासी के कथनानुसार ही कार्य किया 

शोकवश राजा की आँखो से आँसुओं की धारा बह रही थी, परंतु उस समय ऐसा लगा कि मानो ये सन्त प्रेमवश रो रहे है । सहज विश्वासी और कोमल हृदय उन सन्तो ने भी विश्वास किया  कि ये लोग प्रेम से रुदन कर रहे है । राजाने प्रार्थना की कि प्रभो ! मेरे घर पधारकर उसे पवित्र कीजिये । राजा की विनती स्वीकारकर सन्तजन प्रसन्नतापूर्वक उसके साथ चले । दासी ने आगे ही आकर भक्ता रानी को साधुओं के शुभागमन की सूचना दे दी । वह रानी पौरी मे आकर खडी हो गयी । संतो को देखते ही वह उनके चरणों मे गिर पडी और प्रेमवश गद्गद हो गयी । आँखों मे आँसू भरकर धीरे से बोली – आप लोग मेरे पिता-माता को जानते ही होंगे, क्योंकि वे बड़े सन्तसेवी है । आपलोगों का दर्शन पाकर आज ऐसा मन मे आता है कि अपने प्राणों को आपके श्रीचरणों मे न्यौछावर कर दूँ । संतो ने पहचान लिया कि यह भक्त राजा महिपतिराव जी की पुत्री है।

उस भक्ता रानी की अति विशेष प्रीति देखकर सन्तजन अति प्रसन्न हो गये और बोले कि तुमने जो प्रतिज्ञा क्री है, वह पूरी होगी । राजमहल मे जाकर सन्तो ने मरे हुए बालक को देखकर जान लिया कि इसे निश्चय ही विष दिया गया है । उन्होंने भगवान का चरणामृत उसके मुख मे डाला । वह बालक तुरंत जीवित हो गया । इस विलक्षण चमत्कार को देखते ही राजा एवं उसके परिवार के सभी लोग जो भक्ति से विमुख थे, सभी ने सन्तो के चरण पकड़ लिये और प्रार्थना की कि हमलोग आपकी शरण मे है । संतो का सामर्थ्य क्या है यह उन सब को पता लग गया । बार बार चरणों मे गिरकर प्रार्थना की तब सन्तो ने उन सभी को दीक्षा देकर शिष्य बनाया । जो लोग पहले यह तक नही जानते थे कि संत कैसे होते है- कैसे दिखते है ,उन लोगों ने वैष्णव बनकर सन्तो की ऐसे विलक्षण सेवा करना आरम्भ कर दिया, जिसे देखकर लोग प्रेमविभोर हो जाते थे।

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*श्री भक्तमाल (156)*
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*सुंदर कथा १०१ (श्री भक्तमाल – श्री महर्षि वशिष्ठ जी ) {भाग 02}*


गौमाता की शक्ति :

एक बार क्षत्रिय राजा विश्वामित्र अपनी सारी सेना के साथ महर्षी वशिष्ठ जी के आश्रम से गुजरे। उनके साथ पूरी चतुरंगिणी सेना थी,जिसमे लाखो सैनिक थे। शबल कामधेनु थी फलत: उसने सभी लोगोंके लिये स्वादिष्ट भोजन उत्पन्न कर दिया, जिसे ग्रहणकर सेनासहित विश्वामित्र तृप्त हो चकित हो गये और सोचने लगे महर्षि वसिष्ठ ने ऐसी सामर्थ्य कहाँसे प्राप्त कर ली । क्योंकि उनके पास कोई अन्य धन नहीं दीखता । जब पता लगा कि यह सब शबला गाय का ही दिव्य विलक्षण प्रभाव है, तब उन्होंने शबला गौ को वसिष्ठ जी से माँगा और कहा कि मैं इसके बदले आपको पर्याप्त धन दूंगा । पर महर्षि वसिष्ठ तैयार नहीं हुए ।

तब राजा ने उस शबला को जबर्दस्ती घसीटकर ले जाने के लिये अपने सिपाहियो को आज्ञा दी । वे लोग उसे घसीट ने लगे । शबला ने उस समय रोकर महर्षि वसिष्ठ से कहा कि आपने मुझें इस राजा को क्यों दे दिया ? इसपर वसिष्ठजी ने कहा- मैंने तुम्हें नहीं दिया, यह राजा बलवान है। बलपूर्वक तुम्हे ले जाना चाहता है । मेरी बात नहीं मानता और तुम्हें बलपूर्वक घसीटता है । तुम्हारी जो इच्छा हो करो, मैं तुम्हें जाने को नहीं कहता । इसपर शबला ने अपने शरीरसे अनन्त संख्या में यवन, खस, पह्लव, हूण आदि सैनिकों को उत्पन्न किया, जिन्होंने महर्षि विश्वामित्र की सेना को नष्ट कर दिया ।

इसका वर्णन महर्षि वाल्मीकि ने अपनी रामायण मे बड़े रमणीय एवं आकर्षक शब्दोंमें किया है:

महर्षि वशिष्ठ के आदेशानुसार उस गौने है उस समय वैसा ही किया । उसके हुंकार करते ही सैकडों पह्लव जातिके वीर पैदा हो गये । वे सब विश्वामित्र के देखते देखते उनकी भारी सेना का नाश करने लगे । इससे राजा विश्वामित्र को बडा क्रोध हुआ । वे रोष से आँखें फाड़ फाड़कर देखने लगे । उन्होंने छोटे बड़े कई अस्त्रों का प्रयोग करके उन पह्लवो का संहार कर डाला।

विश्वामित्र द्वारा उन सैकडों पह्लवो को पीडित एवं नष्ट हुआ देख उस समय उस शबला गौ ने पुन: यवनमिश्रित शक जाति के भयंकर वीरो की उत्पन्न कि । उन शकों से वहांकी सारी पृथ्वी भर गयी । वे वीर महापराक्रमी और तेजस्वी थे । उनके शरीर की कान्ति सुवर्ण तथा केसर के समान थी । वे सुनहरे वस्त्रो से अपने शरीर को ढके हुए थे । उन्होंने हाथो में में तीखे खड्ग और पट्टीश ले रखे थे । प्रज्वलित अग्नि के समान उद्भासित होनेवाले उन वीरो ने विश्वामित्र की सारी सेना को भस्म करना प्रारम्भ किया।

महर्षि वशिष्ठ जी की गोसेवा कैसी थी और गोमाता की शक्ति कितनी प्रबल होती है अथवा को सकती है उसकी कल्पना भी कठिन है । यह बात इस घटना से स्पष्ट हो जती है । अत: अत्यन्त श्रद्धा भक्तिसे गौओ की सेवा करनी चाहिये ।

क्षमा की मूर्ति वशिष्ठ जी :

विश्वामित्र ​समझ गए की ब्रह्मबल ही श्रेष्ठ है । क्षत्रिय की शक्ति तपस्वी ब्राह्मण का कुछ नहीं बिगाड़ सकती ।अत: मैं इसी जन्म मे ब्राह्मणत्व प्राप्त करुंगा ।  विश्वामित्र ने यह निश्चय किया और वे अत्यन्त कठोर तपमें लग गये । सैकडों वर्ष के कठिन तप के पश्चात् प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हो गये । उन्होंने जब ब्रह्मा जी से अभीष्ट वर माँगा तब ब्रह्मा जी ने यह वरदान दिया -वसिष्ठ के स्वीकार करते ही तुम ब्रह्मर्षि हो जाओगे । 

विश्वामित्र के लिये महर्षि वसिष्ठ से प्रार्थना करना बहुत अपमानजनक था । संयोगवश जब वसिष्ठजी मिलते थे तो इन्हे ‘राजर्षि’ कहते थे । विश्वामित्र समझ नहीं पाते थे की हर कोई इन्हें महर्षि ब्रह्मर्षि क्यों कहते है । अत : राजा विश्वामित्र वसिष्ठ जी के घोर शत्रु हो गये । एक राक्षस को प्रेरित करके उन्होने वसिष्ठके जी के सौ पुत्र मरवा दिये । स्वयं वसिष्ट को अपमानित करने, नीचा दिखाने का अवसर ढूंढते रहने लगे । उनका हृदय बैर तथा हिंसा की प्रबल भावना से पूर्ण था । 

विश्वामित्र ने अपनी ओर से कुछ उठा नही रखा । बडा दृढ निश्चय, प्रबल संकल्प था उनका । दूसरी सृष्टि तक करने में लग गये । अनेक प्राणी तथा अन्नादि बना डाले । ब्रह्माजी ने ही उन्हे ऐसा करने से रोका । अन्तमें स्वयं शस्त्र सज्ज होकर रात्रि मे छिपकर महर्षि वसिष्ठ को मारने निकले । दिन मे प्रत्यक्ष आक्रमण करके तो अनेक बार पराजित हो चुके ही थे । चमकीली रात्रि थी । कुटिया के बाहर वेदीपर एकान्त में पत्नी साथ महर्षि बैठे थे । अरुंधती जी ने कहा – कैसी निर्मल ज्योत्सना है ? 

वसिष्ठ जी बोले – ऐसा ही निर्मल तेज़ आजकल विश्वामित जी के तप का है । वसिष्ठ जी का निर्मल मन अहिंसा तथा क्षमा से परिपूर्ण था । विश्वामित्र छिपे खडे थे । उन्होंने जैसे ही वशिष्ठ की बात सुनी तो उनका ही हृदय उन्हे धिक्कार उठा की एकान्त में पत्नी के साथ बैठा जो अपने सौं पुंत्रो के हत्यारे की प्रशंसा करता है, उस महापुरूष को मारने आया है तू ?  इस महापुरुष के चित्त में तो किसी के प्रति द्वेष है ही नहीं । शस्त्र त्याग दिए विश्वामित्र ने और दौडकर श्री वशिष्ठ जी चरणो में गिर पड़े । 

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्याग: ।

विश्वामित्र का ब्राह्मणत्व जागृत होने में उनका दर्प, उनका द्वेष, उनकी असहिष्णुता ही तो बाधक थी । वह आज दूर हुई । श्री वसिष्ठ ने उनको झुककर उठाते हुए कहा -उठिये ब्रह्मर्षि ।आज राजर्षि कहकर नहीं पुकारा विश्वामित्र को । अहिंसा-नीति तथा मैत्रीधर्मं के प्रतिष्ठाता महर्षि वसिष्ठ जी की महिमा की कोई इयत्ता नहीं । वैराग्य -शम, दम, तितिक्षा, अपरिग्रह, शौच, तप, स्वाध्याय, संतोष और क्षमा की प्रतिमूर्ति महर्षि वसिष्ठ वैदिक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं । सप्तर्षियो में इनका परिगणन है । इनके उदात्त मंगलमय चरित्र का  वेद- पुराणों में विस्तार से वर्णन है । ये सूर्यवं शी राजाओ के कुलगुरु रहे है । 

सत्संग का प्रभाव :

एक बार वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी में बहस छिड़ गयी की सत्संग की महिमा बड़ी है या तप की महिमा । वशिष्ठ जी का कहना था सत्संग की महिमा बड़ी है, तथा विश्वामित्र जी का कहना था कि तप का महात्म्य बड़ा है । जब बहुत देर तक निश्चय न हो सका तो दोनों विष्णु भगवान के पास पहुंचे और अपनी अपनी बात कहने लगे । विष्णु भगवान ने सोचा की दोनों ही महर्षि है और दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े है । उन्होंने कहा कि शंकर भगवान ही इसका सही उत्तर दे सकते है अतः दोनों शंकर भगवान के पास पहुंचे । शंकर जी के सामने भी यही समस्या आई ।उन्होंने कहा कि मेरे मस्तक पर इस समय जटाजूट का भार है अतः मैं सही निर्णय नहीं कर पाउँगा । आप लोग शेषनाग के पास जाय, वो ही सही फैसला कर सकेंगे ।

दोनों महर्षि शेषनाग के पास पहुंचे और अपनी बात उनसे कही । शेषनाग जी ने कहा – हे ऋषियो ! मेरे सिर पर धरती का भार है । आप थोड़ी देर के लिए मेरे सिर से धरती को हटा दे तो में फैसला कर दू । विश्वामित्र ने कहा कि धरती माता तुम शेषनाग जी के सर से थोड़ी देर के लिए अलग हो जाओ, मैं अपने तप का चौथाई फल आपको देता हूँ । पृथ्वी में कोई हलचल नहीं हुई , फिर उन्होंने कहा कि तप का आधा फल समर्पित करता हूँ । इतना कहने पर भी धरती हिली तक नहीं ।

अंत में उन्होंने कहा कि में अपने सम्पूर्ण जीवन के तप का फल तुम्हे देता हूँ ।  धरती थोड़ी हिली, हलचल हुई फिर स्थिर हो गयी । अब वशिष्ठ जी की बारी आई । उन्होंने कहा कि धरती माता अपने सत्संग का निमिषमात्र फल देता हूँ, तुम शेषनाग के मस्तक से हट जाओ । धरती हिली ,गर्जन हुआ और वो सर से उतरकर अलग खड़ी हो गई । शेषनाग जी ने ऋषियों से कहा कि आप लोग स्वयं ही फेसला करले कि सत्संग बड़ा है या तप ।

सूर्यवंशीय रघु ,दिलीप, श्रीराम आदि राजाओ की जो प्रतिष्ठा हुई, उसमें महर्षि वसिष्ठ की धर्ममय नीति ही मूल कारण रही है । ये महान् परोपकारी थे । प्राणिमात्र के हित-चिन्तन को इन्होने अपना उद्देश्य बना रखा था । यूँ तो इनकी जीवनचर्या ही धर्मनीति का आदर्श रही है तथापि इन्होने मनुष्यों को अपने आचारधर्म का परिपालन करने के लिये उत्तम सीख दी है, उसके लिये वसिष्ठ धर्मशास्त्र नामक एक ग्रन्थ ही बना डाला । वे धर्मनीतिक पालन करने के लिये विशेष रूप से प्रेरित करते हुए कहते हैं ।

धर्मं चारत माऽधर्मं सत्यं वदत नानृतम् ।
दीर्घं पश्यत मा ह्रस्वं परं पश्यत माऽपरम्।।
(वसिष्ठस्मृति ३० । १)

भाव यह है कि धर्म का ही आचरण करो, अधर्म का नहीं । सदा सत्य ही बोलो, असत्य कभी नहीं बोलो । दूरुदर्शी बनो, उदार बनो, संकीर्ण मत बनो । जो पर परात्पर (दीर्घ ) तत्त्व है, उसीपर सदा दृष्टि रखो । तदतिरिक्त अर्थात् परमात्मा से भिन्न मायामय किसी भी वस्तुपर दृष्टि मत रखो ।

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