व्यंग्य:- 'साहितियक अजगर
(व्यंग्य-राजीव नामदेव 'राना लिधौरी)
साँपों की सैकड़ों किस्में होती है कुछ बिषधर होते है,तो कुछ अजगर के समान साबूत ही निगलने वाले। साँप अब जंगलों में नहीं रहते,वे अब गाँव शहरों में आदमी के साथ या उसकी आस्तीन में या फिर उनके आस-पास रहना पंसद करते हैं। कहते है कि संगत का असर होता है तभी तो साँपों के गुण आदमी में आने लगे हैं। साँपों को कितना ही दूध पिलाओं वह उगले बिष ही । हर गाँव-शहर में ये साहितियक विषधर और अजगर हैं। बिषधर अपने सामने किसी भी नये एवं छोटे-मोट साहित्यकारों को सदैव आलोचना के जहरीले फन से डसते रहते है। तो अजगर उन्हे पूरा ही निगल जाने की फिराक में सदैव लगे रहते हैं। कुछ साँपों के दाँत जहरीले होने के साथ-साथ बाहर भी निकल आते हैं तो उनको यह भ्रम हो जाता है कि वे साहितियक हाथी (भारी भरकम,बड़े) हैं या शायद दूसरों को डराने के लिए,किन्तु हम जैसे सपेरे इन बाहरी दिखावटी दाँतों को तोड़ने में बहुत ही कुशल बिशेषज्ञ हो गये है एवं इनको वश में करने का मंत्र जानते है वर्ना इनके कारण नगर में नये साहित्यकार बचते ही कहाँ।
अपने बाप-दादाओं कि विरासत में मिली प्रसिद्धी का सहारा लेकर ये किसी क्षेत्र विशेष (संस्था) के बिल में कब्जा करके स्वयंभू अध्यक्ष बनकर इठलाते फिरते हैं। भले ही इनका बिल (संस्था) पहली वारिश में ही पानी से भर जाये(दम तोड़ दे)। शायद ऐसी संस्थाओं के अध्यक्षों को सरकारी अनुदान की ग्लूकोज की बोतल नहीं चढ़ पाती। या फिर किसी नेता द्वारा चंद नोटों के टुकड़े नहीं मिल पाते। ऐसे में वे संस्था को जन्म तो दे देते है,किन्तु उनका भरण पोषण (नियमित संचालन) नहीं कर पाते। ये अपने आपको महाकवि पंत, निराला, प्रेमचन्द आदि की औलाद मानते हैं,जिनके पूर्वज भडैती करके ही अपना जीवन यापन करते रहे उनकी संताने आज श्रेष्ठ साहित्कार होने का दम भरती हैं। अत: नगर में विभिन्न साहितियक संस्थाओं द्वारा आयांजित गोषिठयाँ उन्हें छोटी नज़र आती हैं। बैसे भी इन गोषिठयों में नयी रचनाएँ पढ़ी जाती है अब इस उम्र में इनसे नयी रचनाएँ तो लिखी नहीं जाती,यानि अंगूर खटटे है वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे में यदि नगर की अनेक साहितियक संस्थाएँ इन्हें अपनी साहितियक बिरादरी(गोष्ठी) से अलग कर दे तो कोर्इ आश्चर्य की बात नहीं होगी।
नगर की कुछ साहितियक संस्थाएँ जहाँ अपनी गोषिठयाँ नियमित हर माह आयोजित करते हुए 150 गोषिठयों के करीब पहँुच गयी है वहीं ये तथाकथिक अजगर अपनी संस्था में अध्यक्ष बनकर कुण्डली मारे बैठे हुए हैं और साल में एक गोष्ठी तक आयोजित नहीं करा पाते,फिर भी इन्हे शर्म तक नहीं आती और इनके कानों में जूँ तक नहीं रेंगती। ओह! मैं तो भूल ही गया था कि साँपों के कान नहीं होते,तभी तो ये इतने बेशरम होते हैं। ऐसे में अपनी गलितयों को छुपाने के लिए दूसरों में कमियाँ ढूँढ़ते फिरते हैं। चूंकि ये दूसरों की टांग खींचने में माहिर होते हैं अत: साहितियक गोषिठयों में इन्हे अब कोर्इ बुलाता नहीं,इसलिए अपनी भड़ास एवं छपास का बिषगमन ये स्थानीय समाचार पत्रों में समय-समय पर करते रहते हैं यानि कि खिसयार्इ बिल्ली खंभा नोचे।
बाप-बैटा बराती सास-बहू गौरैया की कहावत को चरितार्थ करते हुए जहाँ स्वयं को अध्यक्ष घोषित कर देते है वहीं अपने भार्इ-भतीजों को सचिव बनाने से भी नहीं चूकते। जिस प्रकार 'नाग पंचमी के दिन साँपों काी पूजा कर उन्हें दूध पिलाया जाता है। कि वे हमें नुकसान न पहँुचाये,ठीक उसी प्रकार नगर के बड़ें आयोजनों में इन विशेष साँपों एवे अजगरों को सम्मानित कर पूजा की जाती है और प्रार्थना की जाती है कि हे बिषधर या अजगरों के राजा हमें अब डसना एवं निगलना छोड़ दो वर्ना कोर्इ भगवान कृष्ण या राजा जनमेजय बनकर आपको समूल ही नष्ट न कर दे। ऐसे में मुझे अपने मित्र का यह शेर याद आ रहा है कि-
'नुक़्स गैरों के तुम उंगली पे गिना करते हो।
'तौलिए खुद को शराफत का तराजू लेकर।।
-'राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
अध्यक्ष 'म.प्र. लेखक संघ
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
भारत,पिन:472001 मोबाइल-9893520965
(व्यंग्य-राजीव नामदेव 'राना लिधौरी)
साँपों की सैकड़ों किस्में होती है कुछ बिषधर होते है,तो कुछ अजगर के समान साबूत ही निगलने वाले। साँप अब जंगलों में नहीं रहते,वे अब गाँव शहरों में आदमी के साथ या उसकी आस्तीन में या फिर उनके आस-पास रहना पंसद करते हैं। कहते है कि संगत का असर होता है तभी तो साँपों के गुण आदमी में आने लगे हैं। साँपों को कितना ही दूध पिलाओं वह उगले बिष ही । हर गाँव-शहर में ये साहितियक विषधर और अजगर हैं। बिषधर अपने सामने किसी भी नये एवं छोटे-मोट साहित्यकारों को सदैव आलोचना के जहरीले फन से डसते रहते है। तो अजगर उन्हे पूरा ही निगल जाने की फिराक में सदैव लगे रहते हैं। कुछ साँपों के दाँत जहरीले होने के साथ-साथ बाहर भी निकल आते हैं तो उनको यह भ्रम हो जाता है कि वे साहितियक हाथी (भारी भरकम,बड़े) हैं या शायद दूसरों को डराने के लिए,किन्तु हम जैसे सपेरे इन बाहरी दिखावटी दाँतों को तोड़ने में बहुत ही कुशल बिशेषज्ञ हो गये है एवं इनको वश में करने का मंत्र जानते है वर्ना इनके कारण नगर में नये साहित्यकार बचते ही कहाँ।
अपने बाप-दादाओं कि विरासत में मिली प्रसिद्धी का सहारा लेकर ये किसी क्षेत्र विशेष (संस्था) के बिल में कब्जा करके स्वयंभू अध्यक्ष बनकर इठलाते फिरते हैं। भले ही इनका बिल (संस्था) पहली वारिश में ही पानी से भर जाये(दम तोड़ दे)। शायद ऐसी संस्थाओं के अध्यक्षों को सरकारी अनुदान की ग्लूकोज की बोतल नहीं चढ़ पाती। या फिर किसी नेता द्वारा चंद नोटों के टुकड़े नहीं मिल पाते। ऐसे में वे संस्था को जन्म तो दे देते है,किन्तु उनका भरण पोषण (नियमित संचालन) नहीं कर पाते। ये अपने आपको महाकवि पंत, निराला, प्रेमचन्द आदि की औलाद मानते हैं,जिनके पूर्वज भडैती करके ही अपना जीवन यापन करते रहे उनकी संताने आज श्रेष्ठ साहित्कार होने का दम भरती हैं। अत: नगर में विभिन्न साहितियक संस्थाओं द्वारा आयांजित गोषिठयाँ उन्हें छोटी नज़र आती हैं। बैसे भी इन गोषिठयों में नयी रचनाएँ पढ़ी जाती है अब इस उम्र में इनसे नयी रचनाएँ तो लिखी नहीं जाती,यानि अंगूर खटटे है वाली कहावत को चरितार्थ करते हैं। ऐसे में यदि नगर की अनेक साहितियक संस्थाएँ इन्हें अपनी साहितियक बिरादरी(गोष्ठी) से अलग कर दे तो कोर्इ आश्चर्य की बात नहीं होगी।
नगर की कुछ साहितियक संस्थाएँ जहाँ अपनी गोषिठयाँ नियमित हर माह आयोजित करते हुए 150 गोषिठयों के करीब पहँुच गयी है वहीं ये तथाकथिक अजगर अपनी संस्था में अध्यक्ष बनकर कुण्डली मारे बैठे हुए हैं और साल में एक गोष्ठी तक आयोजित नहीं करा पाते,फिर भी इन्हे शर्म तक नहीं आती और इनके कानों में जूँ तक नहीं रेंगती। ओह! मैं तो भूल ही गया था कि साँपों के कान नहीं होते,तभी तो ये इतने बेशरम होते हैं। ऐसे में अपनी गलितयों को छुपाने के लिए दूसरों में कमियाँ ढूँढ़ते फिरते हैं। चूंकि ये दूसरों की टांग खींचने में माहिर होते हैं अत: साहितियक गोषिठयों में इन्हे अब कोर्इ बुलाता नहीं,इसलिए अपनी भड़ास एवं छपास का बिषगमन ये स्थानीय समाचार पत्रों में समय-समय पर करते रहते हैं यानि कि खिसयार्इ बिल्ली खंभा नोचे।
बाप-बैटा बराती सास-बहू गौरैया की कहावत को चरितार्थ करते हुए जहाँ स्वयं को अध्यक्ष घोषित कर देते है वहीं अपने भार्इ-भतीजों को सचिव बनाने से भी नहीं चूकते। जिस प्रकार 'नाग पंचमी के दिन साँपों काी पूजा कर उन्हें दूध पिलाया जाता है। कि वे हमें नुकसान न पहँुचाये,ठीक उसी प्रकार नगर के बड़ें आयोजनों में इन विशेष साँपों एवे अजगरों को सम्मानित कर पूजा की जाती है और प्रार्थना की जाती है कि हे बिषधर या अजगरों के राजा हमें अब डसना एवं निगलना छोड़ दो वर्ना कोर्इ भगवान कृष्ण या राजा जनमेजय बनकर आपको समूल ही नष्ट न कर दे। ऐसे में मुझे अपने मित्र का यह शेर याद आ रहा है कि-
'नुक़्स गैरों के तुम उंगली पे गिना करते हो।
'तौलिए खुद को शराफत का तराजू लेकर।।
-'राजीव नामदेव 'राना लिधौरी
संपादक 'आकांक्षा पत्रिका
अध्यक्ष 'म.प्र. लेखक संघ
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
भारत,पिन:472001 मोबाइल-9893520965
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