*बुंदेली लघुकथा- "घंसू कक्का उर बसकारों"*
घंसू कक्का ने आज नये उन्ना जोन वे शहर से काल ल्याय हते उय पैरे हते उर बड़े सजधज कैं नये उन्ना पैर के पनी फटफटिया पै तनक गुटका खाबै लो गुमटी तक कड गये कै अचानक सें पानू बरसन लगौ।
बैसे तो बसकारे को टैम हतो पै जब वे घर से कडे ते तौ ऐन घाम परौ हतो उर आसमान पै कऊ बादल नइ दिखा रयते फिर जौ पानू कैसे बरसन लगों ।
घंसू कौ एनई ताव आ रऔ तो कै ऊकै नये उन्ना खराब हो रयते। पै का सकत तौ पैला पता होती तौ काय खौ बायरे कडते। जब घंटा भर हो गओ ठाडे ठाडे तो इनने सोसी कै आज तो पानू गिरवे कि झिर आ लग गयी जाने कब लौ रूकने। सो उनने बरसत पानू में इ भींगत भये घर की गैल पकरी।
घरे पौचे तो ऐनई भींग गयते पीनू चुचा रओ तो घरवारी ने उने देखो सो ताव खा गई उर बिजुरी सी गरज कै बोली कै तनक गम्म नइ खा सकत ते उर जा कितै गिलारे कि होरी खेल आय, उतइ रूक जाते जब पानू गिरबो बंद हो जातो तो आ जाते तुमें कुन ईतै रोटी बनाने हती कै तुमाई ट्रेन चूक रइती।
घंसू ऊकै प्रवचन सुनकै रय गय पै का करते गलती उनइ की हती तनक जीभ साध लेते तो जो हाल नइ होतो।
सौ उनने मनइ मन बात गांठ लइ कै तनक सें गुटखा कें लाने हमाइ बेज्जती भई अब कान पकरे आज सें कबउ गुटका नइ खैहै ।
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लघुकथाकार - *राजीव नामदेव "राना लिधौरी"*,
अध्यक्ष मप्र लेखक संघ टीकमगढ़
अध्यक्ष वनमाली सृजन केन्द्र टीकमगढ़
टीकमगढ़ (मप्र)472001
मोबाइल -9893520965
(मौलिक एवं स्वरचित)
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