इतिहास जो पढ़ाया नहीं जाता....
भाग-1
*खोयी हुई, या गायब की हुई इतिहास की एक झलक
*622 ई से लेकर 634 ई तक मात्र 12 वर्ष में अरब के सभी मूर्तिपूजकों को मुहम्मद ने तलवार से जबरदस्ती मुसलमान बना दिया! (मक्का में महादेव काबळेश्वर (काबा) को छोड कर!)*
*634 ईस्वी से लेकर 651 तक, यानी मात्र 16 वर्ष में सभी पारसियों को तलवार की नोंक पर जबरदस्ती मुसलमान बना दिया!*
*640 में मिस्र में पहली बार इस्लाम ने पांँव रखे, और देखते ही देखते मात्र 15 वर्ष में, 655 तक इजिप्ट के लगभग सभी लोग जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए!*
*नार्थ अफ्रीकन देश जैसे अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, मोरक्को आदि देशों को 640 से 711 ई तक पूर्ण रूप से इस्लाम धर्म में जबरदस्ती बदल दिया गया!*
*3 देशों का सम्पूर्ण सुख चैन जबरदस्ती छीन लेने में मुसलमानो ने मात्र 71 वर्ष लगाए!*
*711 ईस्वी में स्पेन पर आक्रमण हुआ, 730 ईस्वी तक स्पेन की 70% आबादी मुसलमान थी!*
*मात्र 19 वर्ष में तुर्क थोड़े से वीर निकले, तुर्कों के विरुद्ध जिहाद 651 ईस्वी में आरंभ हुआ, और 751 ईस्वी तक सारे तुर्क जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए!*
*इण्डोनेशिया के विरुद्ध जिहाद मात्र 40 वर्ष में पूरा हुआ! सन 1260 में मुसलमानों ने इण्डोनेशिया में मारकाट मचाई, और 1300 ईस्वी तक सारे इण्डोनेशियाई जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए!*
*फिलिस्तीन, सीरिया, लेबनान, जॉर्डन आदि देशों को 634 से 650 के बीच जबरदस्ती मुसलमान बना दिये गए!*
*सीरिया की कहानी तो और दर्दनाक है! मुसलमानों ने इसाई सैनिकों के आगे अपनी महिलाओ को कर दिया! मुसलमान महिलाये गयीं इसाइयों के पास, कि मुसलमानों से हमारी रक्षा करो! बेचारे मूर्ख इसाइयों ने इन धूर्तो की बातों में आकर उन्हें शरण दे दी! फिर क्या था, सारी "सूर्पनखा" के रूप में आकर, सबने मिलकर रातों रात सभी सैनिकों को हलाल करवा दिया!*
*अब आप भारत की स्थिति देखिये!*
*उसके बाद 700 ईस्वी में भारत के विरुद्ध जिहाद आरंभ हुआ! वह अब तक चल रहा है!*
*जिस समय आक्रमणकारी ईरान तक पहुँचकर अपना बड़ा साम्राज्य स्थापित कर चुके थे, उस समय उनकी हिम्मत नहीं थी कि भारत के राजपूत साम्राज्य की ओर आंँख उठाकर भी देख सकें!*
*636 ईस्वी में खलीफा ने भारत पर पहला हमला बोला! एक भी आक्रान्ता जीवित वापस नहीं जा पाया!*
*कुछ वर्ष तक तो मुस्लिम आक्रान्ताओं की हिम्मत तक नहीं हुई भारत की ओर मुँह करके सोया भी जाए! लेकिन कुछ ही वर्षो में गिद्धों ने अपनी जात दिखा ही दी! दुबारा आक्रमण हुआ! इस समय खलीफा की गद्दी पर उस्मान आ चुका था! उसने हाकिम नाम के सेनापति के साथ विशाल इस्लामी टिड्डिदल भारत भेजा!*
*सेना का पूर्णतः सफाया हो गया, और सेनापति हाकिम बन्दी बना लिया गया! हाकिम को भारतीय राजपूतों ने मार भगाया और बड़ा बुरा हाल करके वापस अरब भेजा, जिससे उनकी सेना की दुर्गति का हाल, उस्मान तक पहुंँच जाए!*
*यह सिलसिला लगभग 700 ईस्वी तक चलता रहा! जितने भी मुसलमानों ने भारत की तरफ मुँह किया, राजपूत शासकों ने उनका सिर कन्धे से नीचे उतार दिया!*
*उसके बाद भी भारत के वीर जवानों ने पराजय नही मानी! जब 7 वीं सदी इस्लाम की आरंभ हुई, जिस समय अरब से लेकर अफ्रीका, ईरान, यूरोप, सीरिया, मोरक्को, ट्यूनीशिया, तुर्की यह बड़े बड़े देश जब मुसलमान बन गए, भारत में महाराणा प्रताप के पूर्वज बप्पा रावल का जन्म हो चुका था!*
*वे अद्भुत योद्धा थे, इस्लाम के पञ्जे में जकड़ कर अफगानिस्तान तक से मुसलमानों को उस वीर ने मार भगाया! केवल यही नहीं, वह लड़ते लड़ते खलीफा की गद्दी तक जा पहुंँचे! जहाँ स्वयं खलीफा को अपनी प्राणों की भिक्षा माँगनी पड़ी!*
*उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं! नागभट्ट प्रतिहार द्वितीय जैसे योद्धा भारत को मिले! जिन्होंने अपने पूरे जीवन में राजपूती धर्म का पालन करते हुए, पूरे भारत की न केवल रक्षा की, बल्कि हमारी शक्ति का डङ्का विश्व में बजाए रखा!*
*पहले बप्पा रावल ने पुरवार किया था, कि अरब अपराजित नहीं है! लेकिन 836 ई के समय भारत में वह हुआ, कि जिससे विश्वविजेता मुसलमान थर्रा गए!*
*सम्राट मिहिरभोज प्रतिहार ने मुसलमानों को केवल 5 गुफाओं तक सीमित कर दिया! यह वही समय था, जिस समय मुसलमान किसी युद्ध में केवल विजय हासिल करते थे, और वहाँ की प्रजा को मुसलमान बना देते!*
*भारत वीर राजपूत मिहिरभोज ने इन आक्रांताओ को अरब तक थर्रा दिया!*
*पृथ्वीराज चौहान तक इस्लाम के उत्कर्ष के 400 वर्ष बाद तक राजपूतों ने इस्लाम नाम की बीमारी भारत को नहीं लगने दी! उस युद्ध काल में भी भारत की अर्थव्यवस्था अपने उत्कृष्ट स्थान पर थी! उसके बाद मुसलमान विजयी भी हुए, लेकिन राजपूतों ने सत्ता गंवाकर भी पराजय नही मानी, एक दिन भी वे चैन से नहीं बैठे!*
*अन्तिम वीर दुर्गादास जी राठौड़ ने दिल्ली को झुकाकर, जोधपुर का किला मुगलों के हाथो ने निकाल कर हिन्दू धर्म की गरिमा, को चार चाँद लगा दिए!*
*किसी भी देश को मुसलमान बनाने में मुसलमानों ने 20 वर्ष नहीं लिए, और भारत में 800 वर्ष राज करने के बाद भी मेवाड़ के शेर महाराणा राजसिंह ने अपने घोड़े पर भी इस्लाम की मुहर नहीं लगने दी!*
*महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौड़, मिहिरभोज, रानी दुर्गावती, अपनी मातृभूमि के लिए जान पर खेल गए!*
*एक समय ऐसा आ गया था, लड़ते लड़ते राजपूत केवल 2% पर आकर ठहर गए! एक बार पूरा विश्व देखें, और आज अपना वर्तमान देखें! जिन मुसलमानों ने 20 वर्ष में विश्व की आधी जनसंख्या को मुसलमान बना दिया, वह भारत में केवल पाकिस्तान बाङ्ग्लादेश तक सिमट कर ही क्यों रह गए?*
*राजा भोज, विक्रमादित्य, नागभट्ट प्रथम और नागभट्ट द्वितीय, चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार, समुद्रगुप्त, स्कन्द गुप्त, छत्रसाल बुन्देला, आल्हा उदल, राजा भाटी, भूपत भाटी, चाचादेव भाटी, सिद्ध श्री देवराज भाटी, कानड़ देव चौहान, वीरमदेव चौहान, हठी हम्मीर देव चौहान, विग्रह राज चौहान, मालदेव सिंह राठौड़, विजय राव लाँझा भाटी, भोजदेव भाटी, चूहड़ विजयराव भाटी, बलराज भाटी, घड़सी, रतनसिंह, राणा हमीर सिंह और अमर सिंह, अमर सिंह राठौड़, दुर्गादास राठौड़, जसवन्त सिंह राठौड़, मिर्जा राजा जयसिंह, राजा जयचंद, भीमदेव सोलङ्की, सिद्ध श्री राजा जय सिंह सोलङ्की, पुलकेशिन द्वितीय सोलङ्की, रानी दुर्गावती, रानी कर्णावती, राजकुमारी रतनबाई, रानी रुद्रा देवी, हाड़ी रानी, रानी पद्मावती, जैसी अनेको रानियों ने लड़ते-लड़ते अपने राज्य की रक्षा हेतु अपने प्राण न्योछावर कर दिए!*
*अन्य योद्धा तोगा जी वीरवर कल्लाजी जयमल जी जेता कुपा, गोरा बादल राणा रतन सिंह, पजबन राय जी कच्छावा, मोहन सिंह मँढाड़, राजा पोरस, हर्षवर्धन बेस, सुहेलदेव बेस, राव शेखाजी, राव चन्द्रसेन जी दोड़, राव चन्द्र सिंह जी राठौड़, कृष्ण कुमार सोलङ्की, ललितादित्य मुक्तापीड़, जनरल जोरावर सिंह कालुवारिया, धीर सिंह पुण्डीर, बल्लू जी चम्पावत, भीष्म रावत चुण्डा जी, रामसाह सिंह तोमर और उनका वंश, झाला राजा मान, महाराजा अनङ्गपाल सिंह तोमर, स्वतंत्रता सेनानी राव बख्तावर सिंह, अमझेरा वजीर सिंह पठानिया, राव राजा राम बक्श सिंह, व्हाट ठाकुर कुशाल सिंह, ठाकुर रोशन सिंह, ठाकुर महावीर सिंह, राव बेनी माधव सिंह, डूङ्गजी, भुरजी, बलजी, जवाहर जी, छत्रपति शिवाजी!*
*ऐसे हिन्दू योद्धाओं का संदर्भ हमें हमारे इतिहास में तत्कालीन नेहरू-गाँधी सरकार के शासन काल में कभी नहीं पढ़ाया गया! पढ़ाया ये गया, कि अकबर महान बादशाह था! फिर हुमायूँ, बाबर, औरङ्गजेब, ताजमहल, कुतुब मीनार, चारमीनार आदि के बारे में ही पढ़ाया गया!*
*अगर हिन्दू सङ्गठित नहीं रहते, तो आज ये देश भी पूरी तरह सीरिया और अन्य देशों की तरह पूर्णतया मुस्लिम देश बन चुका होता!*
*ये सुंदर विश्लेषण जानकारी हिंदू समाज तक पहुंचना अनिवार्य है! हर वर्ग और समाज में वीरों की गाथाओं को बताकर उन्हें गर्व की अनुभूति करानी चाहिए!*
जय हिन्दी जय हिंदुस्तान
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व्हाट्स ऐप से साभार
-✍🏻✍🏻 स्वामी दीपेशानन्द सरस्वती
प्रस्तुति- राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'
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2-
प्रस्तावना
आज़ादी के बाद हमने इस देश का नाम “भारत” रखा “हिंदुस्तान” नहीं। जबकि 1206 से 1858 तक इसे हिंदुस्तान कहा जाता था। 01 जनवरी 1859 से ब्रिटेन की रानी ने इसे इंडिया नाम दे दिया। हमारा अपना नाम भारत है। क्या “भारतीयता” और “हिंदुस्तान” अलग-अलग हैं। हाँ, भारतीयता में हिंदू सम्मिलित है परंतु सिर्फ़ हिंदू ही भारतीय नहीं हैं। भारतीयता में और भी बहुत कुछ शामिल है। यह एक बहुत लम्बी दास्तान है। “भारत” हमारे पितरों की पुण्य भूमि के निवासियों का स्वमेव उपार्जित नाम है जो यहाँ की मातृभूमि की संस्कृति और भूगोल की मिलीजुली देन है। “हिंदू” नाम हमें दूसरों ने दिया है। हिंदुत्व सेवा में रत सरसंघ चालक भागवत जी भारत के हितार्थ अखिल भारतीय इमाम प्रमुख अहमद इलियासी से मिलने 22 सितम्बर 2022 को मस्जिद में गये, और इमाम ने उन्हें राष्ट्रपिता कहा। यहाँ हिंदुत्व धीरे-धीरे हिंदुवाद की तरफ़ खिसकता नज़र आ रहा है। कट्टर मुस्लिम परस्त यहाँ भी मौक़ा देखते हैं। उन्होंने अहमद इलियासी को धमकियाँ देना शुरू कर दिया तो इमाम साहब को वायी-प्लस सरकारी सुरक्षा प्रदान की गई। यही हिंदुवादी और हिंदुत्व का भेद है। हमें कट्टर मुस्लिम और मुस्लिम में भी भेद करना सीखना होगा। भारत का हर मुस्लिम कट्टर नहीं है। हिंदुवादी गांधी जब कलकत्ता में दंगा ग्रस्त क्षेत्र में मुसलमान के घर रुके, तो सुरक्षित थे। दिल्ली के बिड़ला हाऊस में हिंदुत्व के सिपाही ने भजन संध्या को जाते गाँधी जी के सीने में पिस्तौल ख़ाली कर दिया था। विश्वास का संकट बड़ी चीज है। हिंदुत्व को गाँधी जी पर भरोसा नहीं था। भारतीय कट्टर मुसलमानों को भागवत जी पर भरोसा नहीं है। हिंदुवादी गाँधी जी को दंगाग्रस्त इलाक़े के मुसलमानों पर भरोसा था। भारतीयता का रहस्य इन्ही घटनाओं में छुपा है। हिंदू संस्कृति के बग़ैर भारतीयता समाप्त हो जाएगी। पिछले दो हज़ार सालों में जो कुछ इस ज़मीन पर घटित हुआ है, उसे समाहित करके भारत खड़ा हुआ है। यह पुस्तक भारतीयता की रक्षार्थ हिंदू प्रतिरोध की गाथा है। आज के युग में प्रतिरोध नहीं परस्पर भरोसा चाहिए। इसीलिए वर्तमान सरकार ने उपद्रवी बीन बजाने की जगह विकास की बाँसुरी पर मनभावन धुन बजाना शुरू कर दी है। पृथ्वी को अगर धर्म के आधार पर बाँटा जाए तो मस्तिष्क में मुख्यतः चार सांस्कृतिक चेतनाएँ उभरती हैं।
• हिंदू सांस्कृतिक चेतना- भारत, नेपाल
• मुस्लिम सांस्कृतिक चेतना- मध्यपूर्व एशियाई देश,
• मसीही सांस्कृतिक चेतना- यूरोप, उत्तरी अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, अफ़्रीकन देश
• बुद्ध प्रणीत चेतना- चीन, जापान, प्रशांत महासागरीय देश।
हिंदू चेतना का आधार प्रकृति है। जब तक प्रकृति के तत्व मौजूद है तब तक हिंदू सांस्कृतिक चेतना का अस्तित्व विद्यमान रहेगा। बुद्ध चेतना तो सनातन चेतना का ही विस्तार है। बाक़ी एकेश्वरवादी धार्मिक चेतना का सृजन संस्थागत है। संस्थागत सृजन कृत्रिम होता है। पिछले एक हज़ार सालों के इतिहास में मुस्लिम और मसीही चेतना ने कई स्वाभाविक विकसित चेतनाओं को समाप्त कर दिया है जैसे- नील नदी घाटी की मिश्र सभ्यता, दजला-फ़रात घाटियों की बेबीलोन-मेसोपोटामिया सभ्यता, अमेरिका की मय सभ्यता इत्यादि। रुस और चीन की संस्कृतियों को कम्यूनिज़्म निगल गया। इस्लाम, मसीही और कम्यूनिज़्म जैसी आक्रामक विचारधाराओं का सामना सिर्फ़ हिंदू चेतना ही कर सकी। भारत पर हुए 712 के पहले मुस्लिम आक्रमण से औरंगज़ेब की कट्टर हिंदू विरोधी नीतियों का सामना हिंदू चेतना ने किया। उसके बाद मसीही चेतना से पौने दो सौ साल टक्कर लेकर 15 अगस्त 1947 को भारतीय चेतना हिंदू चेतना सहित कई अन्य अंतर्धाराओं को समेटे एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में साकार हुई। यह पुस्तक उसी हिंदू चेतना से प्रेरित अमर सेनानियों की दास्तान है।
सामान्यतः इतिहास लेखन की सामग्री राजाओं के बीच लड़ाइयों में उनके उद्भव, जय-पराजय, शासन व्यवस्था और पराभव की कहानियाँ रही हैं। इतिहास लेखन कार्य राजा-महाराजाओं के दरबारी इतिहास लेखकों या भाट चारणों द्वारा किया जाता था। जो राजाओं की सफलताओं का अतिशयोक्तिपूर्ण विवरण प्रस्तुत करते थे। राजाओं के लिखे या लिखवाए गए इतिहास में विजेताओं का इतिहास विजित राजाओं को दरकिनार कर देता था। कालांतर में विजेता के नज़रिए से घटनाओं का वर्णन ही मुख्य इतिहास मान लिए जाने की प्रवृत्ति विकसित होने लगी और विजित की महत्ता दरकिनार होते चली गई।
भारत में सल्तनत काल में अधिकांश विजेता मुसलमान थे। उनके दरबारी इतिहास लेखक भी मुसलमान थे। एक भी सल्तनत क़ालीन हिंदू लेखक का नाम खुर्दबीन लेकर देखने से भी नहीं मिलता। परंतु भारत की कुल आबादी में औसतन अस्सी प्रतिशत के आसपास हिंदू जनता थी। जब मुहम्मद बिन क़ासिम ने हिंदुस्तान के सिंध पर आक्रमण किया, उस समय तो शत-प्रतिशत आबादी हिंदू थी। यह बात कितनों को पता है कि सिंध का राजा दाहिर एक कश्मीरी ब्राह्मण था, और यह कि उसका पिता चच नामक एक व्यक्ति था, जिसके नाम पर अरबों ने चचनामा ग्रंथ लिखा था, ताकि वे बता सकें कि किस तरह इस्लाम की फ़ौजों ने काफ़िरों का सफ़ाया कर पुण्य कमाया था। यही पद्धति समूचे सल्तनत काल के इतिहास के बारे में जारी रही। भारतीयों ख़ास तौर से हिंदुओं के प्रतिरोध का इतिहास ओझल होता गया। भारत में राजनीतिक मजबूरियों के चलते इतिहास चार तरह से लिखा या लिखवाया गया है।
• विजेता नज़रिया का इतिहास
• साम्यवादी नज़रिया का इतिहास
• राष्ट्रवादी अतिरंजित इतिहास
• स्वतंत्र प्रामाणिक इतिहास
लोगों को अपने देश के सच्चे स्वतंत्र प्रामाणिक इतिहास को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि उसे वर्तमान से जोड़कर एक स्वस्थ नज़रिया विकसित करने में सहूलियत हो सके। अन्यथा निहित स्वार्थों से अभिप्रेरित इतिहास उन्हें सही आकलन तक पहुँचने ही नहीं देता है। लोगों को यही नहीं पता चलता कि स्वतंत्र इतिहास क्या है? वे राजनीतिक प्रेरणा से प्रायोजित इतिहास की भूलभूलैया में भटक कर अनुचित अवधारणा विकसित कर लेते हैं। जिससे इतिहास के सबक़ भी गड़बड़ाने लगते हैं। कहावत है कि “जो राष्ट्र इतिहास से सबक़ नहीं लेते वे इतिहास की ग़लतियों को दुहराने को अभिशप्त होते हैं, जिस तरह 712 ईस्वी में मुहम्मद बिन क़ासिम के हाथों हिंदूशाही राजा दाहिर की पराजय की पुनरावृत्ति 1192 तक मुहम्मद गोरी के हाथों तक लगातार होती रही। एक तो इस्लामिक हमलावर के पीछे ख़लीफ़ा सहित पूरा इस्लामिक साम्राज्य खड़ा होता था, वहीं हिंदूशाही के पीछे किसी राष्ट्रीय ताक़त या जनता का खड़ा होना बहुत दूर की बात थी। एक बेचारा राजा अकेला लड़ता रहता था। इसके उलट पड़ौसी राजा मुस्लिम हमलावरों से मिल जाते थे। इस तरह के कई सबक़ याद ही नहीं रखे गये। इसलिए मुस्लिम शासकों का लिखा इतिहास ही भारतीय इतिहास हो गया। हम कोशिश कर रहे हैं वह तत्व सामने लाया जाए जिसके चलते 712 ईस्वी से 1947 तक भारत की बहुसंख्यक हिंदू जनता में हिंदू चेतना से ओतप्रोत राष्ट्रीय भावना का विकास किस प्रकार हुआ है। इसमें समकालीन स्वतंत्र स्रोतों के आधार पर लिखे गए इतिहास से सामग्री प्राप्त की गई है। यह राज्य/राज्यों से राष्ट्र बनने की कहानी कहने का प्रयास है कि भारतीयता का विकास किस तरह किन तत्वों से हुआ है।
भारतीयता के मुख्य तत्व हिंदू सभ्यता से जन्मे हैं। दुनिया में भारतीयता की पहचान क्या है? अधिकांश लोगों ने शायद सोचा ही नहीं कि यदि हिंदू सभ्यता समाप्त हो गई होती तो भारत से सहिष्णुता और स्वतंत्र विचार विमर्श पद्धति भी ख़त्म हो गयी होती, जो भारतीय सभ्यता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण मूल्य रहा है। इन्ही तत्वों से भारत में लोकतंत्र सफल है। भारतीय सभ्यता वैदिक युग, उपनिषद काल, महाकाव्य और पौराणिक शास्त्रों में निहित सिद्धांतों से अस्तित्व में आई है। वे सिद्धांत हैं-
• सहिष्णुता (Tolerance),
• अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Liberty of Expression),
• बहुसंख्यक वाद (Pluralism) और
• स्वतंत्र विधि सम्मत न्याय व्यवस्था (Independent Judiciary)
सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि ये चारों सिद्धांत आधुनिक लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के आधारभूत स्तम्भ हैं। भारतीय मेधा ने सदियों पूर्व जान लिया था कि मानव समाज द्वारा इन चारों सिद्धांतों पर चलने से “विश्व-बंधुत्व” का एक और परम सिद्धांत लक्षित होगा। यही “विश्व-बंधुत्व” भावना पृथ्वी पर एकमात्र आशा है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय तात्त्विक चिंतन लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल है। इसीलिए भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था सफल हो रही है। कभी पाकिस्तान और बंगला देश भी भारतीय दार्शनिक परम्परा के हिस्से थे। उन्होंने भारतीय चिंतन को अलविदा कहा तो वहाँ लोकतंत्र लड़खड़ाता दिखता है। भारतीय चिंतन में हिंदू सनातन बहुसंख्यक आबादी दर्शन है। जो भारतीय परम्परा निर्धारित करता है। जिसे बदलने की कोशिश एक हज़ार साल तक होती रही। वही संघर्ष भारतीय राष्ट्रीयता को बचाने का प्रयास रहा है। भारतीय प्रभुसत्ता और अस्मिता को बचाने की कोशिश रही है। वह विस्मृत इतिहास इस पुस्तक की विषय वस्तु है।
इस पुस्तक में हिंदूशाही राजा दाहिर के बलिदान की दास्तान है, न कि मुहम्मद बिन क़ासिम की अतिरंजित खूनी होली, राजा जयपाल की बहादुरी का क़िस्सा है न कि मुहम्मद गजनवी की लूट और मूर्तियों की तोड़ने के कारनामे और पृथ्वीराज चौहान की वीरता के क़िस्से हैं न कि मुहम्मद गोरी की कुटिल नीति के हिस्से। यह भारतीयता का इतिहास है। केवल राजनीतिक जीत-हार का विवरण नहीं है। पुस्तक क़िस्सा गोई अन्दाज़ में क्रमवार लिखी गई है, जिससे रोचकता बनी रहे और इतिहास का बोझिलपन पाठक को उबाऊ न लगे। यह किताब सनातन दर्शन से उपजे कालजयी जीवन मूल्यों की इतिहास गाथा है।
म############
3-
#वंदेभारत
इतिहास के पन्नों में कहाँ हैं ये नाम??
सेठ रामदास जी गुड़वाले - 1857 के महान क्रांतिकारी, दानवीर जिन्हें फांसी पर चढ़ाने से पहले अंग्रेजों ने उनपर शिकारी कुत्ते छोड़े जिन्होंने जीवित ही उनके शरीर को नोच खाया।
सेठ रामदास जी गुडवाला दिल्ली के अरबपति सेठ और बेंकर थे. इनका जन्म दिल्ली में एक अग्रवाल परिवार में हुआ था. इनके परिवार ने दिल्ली में पहली कपड़े की मिल की स्थापना की थी।
उनकी अमीरी की एक कहावत थी “रामदास जी गुड़वाले के पास इतना सोना चांदी जवाहरात है की उनकी दीवारो से वो गंगा जी का पानी भी रोक सकते है”
जब 1857 में मेरठ से आरम्भ होकर क्रांति की चिंगारी जब दिल्ली पहुँची तो
दिल्ली से अंग्रेजों की हार के बाद अनेक रियासतों की भारतीय सेनाओं ने दिल्ली में डेरा डाल दिया। उनके भोजन और वेतन की समस्या पैदा हो गई । रामजीदास गुड़वाले बादशाह के गहरे मित्र थे ।
रामदास जी को बादशाह की यह अवस्था देखी नहीं गई। उन्होंने अपनी करोड़ों की सम्पत्ति बादशाह के हवाले कर दी और कह दिया
"मातृभूमि की रक्षा होगी तो धन फिर कमा लिया जायेगा "
रामजीदास ने केवल धन ही नहीं दिया, सैनिकों को सत्तू, आटा, अनाज बैलों, ऊँटों व घोड़ों के लिए चारे की व्यवस्था तक की।
सेठ जी जिन्होंने अभी तक केवल व्यापार ही किया था, सेना व खुफिया विभाग के संघठन का कार्य भी प्रारंभ कर दिया उनकी संघठन की शक्ति को देखकर अंग्रेज़ सेनापति भी हैरान हो गए ।
सारे उत्तर भारत में उन्होंने जासूसों का जाल बिछा दिया, अनेक सैनिक छावनियों से गुप्त संपर्क किया।
उन्होंने भीतर ही भीतर एक शक्तिशाली सेना व गुप्तचर संघठन का निर्माण किया। देश के कोने कोने में गुप्तचर भेजे व छोटे से छोटे मनसबदार और राजाओं से प्रार्थना की इस संकट काल में सभी सँगठित हो और देश को स्वतंत्र करवाएं।
रामदास जी की इस प्रकार की क्रांतिकारी गतिविधयिओं से अंग्रेज़ शासन व अधिकारी बहुत परेशान होने लगे
कुछ कारणों से दिल्ली पर अंग्रेजों का पुनः कब्जा होने लगा । एक दिन उन्होंने चाँदनी चौक की दुकानों के आगे जगह-जगह जहर मिश्रित शराब की बोतलों की पेटियाँ रखवा दीं, अंग्रेज सेना उनसे प्यास बुझाती और वही लेट जाती । अंग्रेजों को समझ आ गया की भारत पे शासन करना है तो रामदास जी का अंत बहुत ज़रूरी है
सेठ रामदास जी गुड़वाले को धोखे से पकड़ा गया और जिस तरह से मारा गया वो क्रूरता की मिसाल है।
पहले उन्हें रस्सियों से खम्बे में बाँधा गया फिर उन पर शिकारी कुत्ते छुड़वाए गए उसके बाद उन्हें उसी अधमरी अवस्था में दिल्ली के चांदनी चौक की कोतवाली के सामने फांसी पर लटका दिया गया।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार ताराचंद ने अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ फ्रीडम मूवमेंट' में लिखा है -
"सेठ रामदास गुड़वाला उत्तर भारत के सबसे धनी सेठ थे।अंग्रेजों के विचार से उनके पास असंख्य मोती, हीरे व जवाहरात व अकूत संपत्ति थी।
सेठ रामदास जैसे अनेकों क्रांतिकारी इतिहास के पन्नों से गुम हो गए क्या सेठ रामदास जैसे क्रांतिकारियों के बलिदान का ऋण हम चुका पाये???
तुम न समझो देश को आज़ादी यूं ही मिली है।
हर कली इस बाग की,कुछ खून पी कर ही खिली है।
मिट गये वतन के वास्ते,दीवारों में जो गड़े हैं।
महल अपनी आज़ादी के,शहीदों की छातियों पर ही खड़े हैं।।
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*4*
प्राचीन मिस्र के महान पिरामिड के बारे में जानते हैं हम सभी। हममें से ज्यादातर लोग प्राचीन भारत के महान पिरामिड के बारे में नही जानते हैं।।
बरेली, जिसे पहले अहिछत्र के रूप में जाना जाता था, का उल्लेख महाभारत में द्रौपद के राज्य पांचाल की राजधानी के रूप में किया गया था। बाद में इसे अर्जुन ने जीत लिया और द्रोण को दे दिया। द्रुपद को अपनी राजधानी को दक्षिणी पांचला में कंपिलिया में स्थानांतरित करना पड़ा। अहिच्छत्र एक महान शहर के रूप में वर्णित किया गया था
बरेली में उत्खनन से एक विशाल पिरामिड के रूप में एक विशाल प्राचीन मंदिर का पता चला है। इसके अलावा खंडहर 22 मीटर ऊंचाई (तुलना के लिए, काबा 13 मीटर है) और शीर्ष पर एक लिंग है। साइट 187 हेक्टेयर है। तुलना करके, रोमन युग का लंदन सिर्फ 140 हेक्टेयर था
यदि १२ वीं शताब्दी में जिहादी आक्रमणकारियों द्वारा इसके विनाश के बाद भी ईंट मंदिर खंडहर इतना विशाल है, तो कोई केवल कल्पना कर सकता है कि मंदिर अपने विशाल काल में कैसा रहा होगा। अहिछत्र भारत का संभवतः सबसे लंबा जीवित स्थल है। 2000 ईसा पूर्व में प्राचीनतम परतों के अवशेषों में गेरू रंग के बर्तनों के बाद चित्रित ग्रे वेयर (पीजीडब्ल्यू) शामिल हैं। 12 वीं शताब्दी में "आइकोनोक्लास्टिक प्रवृत्ति" तक साइट 3000 साल तक जीवित रही। साइट पर कई हिंदू मूर्तियां मिली हैं जो अब दुनिया भर के संग्रहालय में हैं। मकर पर खड़ी गंगा की एक मूर्ति है। एक और भगवान शिव का है जो कि किरतारुनजिया के दृश्य का चित्रण करता है
जब मैंने इसे ट्विटर पर पोस्ट किया, तो मैंने अपने आश्चर्य को पाया कि बरेली के निवासियों को भी इस साइट के बारे में जानकारी नहीं है। मुझे वास्तव में आश्चर्य है कि इन स्मारकों के बारे में कभी बात नहीं की जाती है और लोगों को उनके बारे में अज्ञानता में रखा जाता है
सूचना स्रोत: भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण, अहिछत्र, जिला बरेली, उत्तर प्रदेश में उत्खनन (2007-2008)
#highlight #history #india #everyone #follower #beautychallenge
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#इतिहास में पढ़ाया जाता है कि #ताजमहल का निर्माण कार्य 1632 में शुरू और लगभग 1653 में इसका निर्माण कार्य पूर्ण हुआ।
अब #सोचिए कि जब मुमताज का इंतकाल 1631 में हुआ तो फिर कैसे उन्हें 1631 में ही ताजमहल में दफना दिया गया, जबकि ताजमहल तो 1632 में बनना शुरू हुआ था। यह सब मनगढ़ंत बातें हैं जो अंग्रेज और मुस्लिम इतिहासकारों ने 18वीं सदी में लिखी।
दरअसल 1632 में हिन्दू मंदिर को इस्लामिक लुक देने का कार्य शुरू हुआ। 1649 में इसका मुख्य द्वार बना जिस पर कुरान की आयतें तराशी गईं। इस मुख्य द्वार के ऊपर हिन्दू शैली का छोटे गुम्बद के आकार का मंडप है और अत्यंत भव्य प्रतीत होता है। आस पास मीनारें खड़ी की गई और फिर सामने स्थित फव्वारे
को फिर से बनाया गया।
मुमताज की मृत्यु के 7 वर्ष पश्चात Voyages and Travels into the East Indies नाम से निजी पर्यटन के संस्मरणों में आगरे का तो उल्लेख किया गया है किंतु ताजमहल के निर्माण का कोई उल्लेख नहीं किया।
टाॅम्हरनिए के कथन के अनुसार 20 हजार मजदूर यदि 22 वर्ष तक ताजमहल का निर्माण करते रहते तो माॅण्डेलस्लो भी उस विशाल निर्माण कार्य का उल्लेख अवश्य करता।
ताज के नदी के तरफ के दरवाजे के लकड़ी के एक टुकड़े की एक अमेरिकन प्रयोगशाला में की गई कार्बन जांच से पता चला है कि लकड़ी का वो टुकड़ा शाहजहां के काल से 300 वर्ष पहले का है, क्योंकि ताज के दरवाजों को 11वीं सदी से ही मुस्लिम आक्रामकों द्वारा कई बार तोड़कर खोला गया है और फिर से बंद करने के लिए दूसरे दरवाजे भी लगाए गए हैं।
ताज और भी पुराना हो सकता है। असल में ताज को सन् 1115 में अर्थात शाहजहां के समय से लगभग 500 वर्ष पूर्व बनवाया गया था।
ताजमहल के गुम्बद पर जो अष्टधातु का कलश खड़ा है वह त्रिशूल आकार का पूर्ण कुंभ है। उसके मध्य दंड के शिखर पर नारियल की आकृति बनी है। नारियल के तले दो झुके हुए आम के पत्ते और उसके नीचे कलश दर्शाया गया है। उस चंद्राकार के दो नोक और उनके बीचोबीच नारियल का शिखर मिलाकर त्रिशूल का आकार बना है।
हिन्दू और बौद्ध मंदिरों पर ऐसे ही कलश बने होते हैं। कब्र के ऊपर गुंबद के मध्य से अष्टधातु की एक जंजीर लटक रही है। शिवलिंग पर जल सिंचन करने वाला सुवर्ण कलश इसी जंजीर पर टंगा रहता था। उसे निकालकर जब शाहजहां के खजाने में जमा करा दिया गया तो वह जंजीर लटकी रह गई। उस पर लाॅर्ड कर्जन ने एक दीप लटकवा दिया, जो आज भी है।
कब्रगाह को महल क्यों कहा गया? मकबरे को महल क्यों कहा गया? क्या किसी ने इस पर कभी सोचा, क्योंकि पहले से ही निर्मित एक महल को कब्रगाह में बदल दिया गया। कब्रगाह में बदलते वक्त उसका नाम नहीं बदला गया। यहीं पर शाहजहां से गलती हो गई। उस काल के किसी भी सरकारी या शाही दस्तावेज एवं अखबार आदि में ‘ताजमहल’ शब्द का उल्लेख नहीं आया है। ताजमहल को ताज-ए-महल समझना हास्यास्पद है।
‘महल’ शब्द मुस्लिम शब्द नहीं है। अरब, ईरान, अफगानिस्तान आदि जगह पर एक भी ऐसी मस्जिद या कब्र नहीं है जिसके बाद महल लगाया गया हो।
यह भी गलत है कि मुमताज के कारण इसका नाम मुमताज महल पड़ा, क्योंकि उनकी बेगम का नाम था #मुमता -उल-जमानी। यदि मुमताज के नाम पर इसका नाम रखा होता तो ताजमहल के आगे से मुम को हटा देने का कोई औचित्य नजर नहीं आता।
विंसेंट स्मिथ अपनी पुस्तक 'Akbar the Great Moghul' में लिखते हैं, बाबर ने सन् 1530 में आगरा के वाटिका वाले महल में अपने उपद्रवी जीवन से मुक्ति पाई। वाटिका वाला वो महल यही ताजमहल था। यह इतना विशाल और भव्य था कि इसके जितना दूसरा कोई भारत में महल नहीं था। बाबर की पुत्री गुलबदन ‘हुमायूंनामा’ नामक अपने ऐतिहासिक वृत्तांत में ताज का संदर्भ ‘रहस्य महल’ (Mystic House) के नाम से देती है।
ताजमहल का निर्माण राजा परमर्दिदेव के शासनकाल में 1155 अश्विन शुक्ल पंचमी, रविवार को हुआ था। अतः बाद में मुहम्मद गौरी सहित कई मुस्लिम आक्रांताओं ने ताजमहल के द्वार आदि को तोड़कर उसको लूटा। यह महल आज के ताजमहल से कई गुना ज्यादा बड़ा था और इसके तीन गुम्बद हुआ करते थे। हिन्दुओं ने उसे फिर से मरम्मत करके बनवाया, लेकिन वे ज्यादा समय तक इस महल की रक्षा नहीं कर सके।
👉 वास्तुकला के विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र नामक प्रसिद्ध ग्रंथ में शिवलिंगों में ‘तेज-लिंग’ का वर्णन आता है। ताजमहल में ‘तेज-लिंग’ प्रतिष्ठित था इसीलिए उसका नाम ‘तेजोमहालय’ पड़ा था।
शाहजहां के समय यूरोपीय देशों से आने वाले कई लोगों ने भवन का उल्लेख ‘ताज-ए-महल’ के नाम से किया है, जो कि उसके शिव मंदिर वाले परंपरागत संस्कृत नाम ‘तेजोमहालय’ से मेल खाता है। इसके विरुद्ध शाहजहां और औरंगजेब ने बड़ी सावधानी के साथ संस्कृत से मेल खाते इस शब्द का कहीं पर भी प्रयोग न करते हुए उसके स्थान पर पवित्र मकबरा शब्द का ही प्रयोग किया है।
ओक के अनुसार अनुसार हुमायूं, अकबर, मुमताज, एतमातुद्दौला और सफदरजंग जैसे सारे शाही और दरबारी लोगों को हिन्दू महलों या मंदिरों में दफनाया गया है।
ताजमहल तेजोमहल शिव मंदिर है - इस बात को स्वीकारना ही होगा कि ताजमहल के पहले से बने ताज के भीतर मुमताज की लाश दफनाई गई न कि लाश दफनाने के बाद उसके ऊपर ताज का निर्माण किया गया। ‘ताजमहल’ शिव मंदिर को इंगित करने वाले शब्द ‘तेजोमहालय’ शब्द का अपभ्रंश है। तेजोमहालय मंदिर में अग्रेश्वरमहादेव प्रतिष्ठित थे। देखने वालों ने अवलोकन किया होगा कि तहखाने के अंदर कब्र वाले कमरे में केवल सफेद संगमरमर के पत्थर लगे हैं जबकि अटारी व कब्रों वाले कमरे में पुष्प लता आदि से चित्रित चित्रकारी की गई है।
इससे साफ जाहिर होता है कि मुमताज के मकबरे वाला कमरा ही शिव मंदिर का गर्भगृह है। संगमरमर की जाली में 108 कलश चित्रित उसके ऊपर 108 कलश आरूढ़ हैं, हिन्दू मंदिर परंपरा में 108 की संख्या को पवित्र माना जाता है।
तेजोमहालय उर्फ ताजमहल को नागनाथेश्वर के नाम से जाना जाता था, क्योंकि उसके जलहरी को नाग के द्वारा लपेटा हुआ जैसा बनाया गया था। यह मंदिर विशालकाय महल क्षेत्र में था। आगरा को प्राचीनकाल में अंगिरा कहते थे, क्योंकि यह ऋषि अंगिरा की तपोभूमि थी। अंगिरा ऋषि भगवान शिव के उपासक थे।
बहुत प्राचीन काल से ही आगरा में 5 शिव मंदिर बने थे। यहां के निवासी सदियों से इन 5 शिव मंदिरों में जाकर दर्शन व पूजन करते थे।
लेकिन अब कुछ सदियों से बालकेश्वर, पृथ्वीनाथ, मनकामेश्वर और राजराजेश्वर नामक केवल 4 ही शिव मंदिर शेष हैं। 5वें शिव मंदिर को सदियों पूर्व कब्र में बदल दिया गया। स्पष्टतः वह 5वां शिव मंदिर आगरा के इष्टदेव नागराज अग्रेश्वर महादेव नागनाथेश्वर ही हैं, जो कि तेजोमहालय मंदिर उर्फ ताजमहल में प्रतिष्ठित थे।
#सनातनभारत
6
मोतीलाल नेहरू की 5 पत्नियाँ थीं।
(1) स्वरूप रानी
(2) थुसु रहमान बाई
(3) मंजुरी देवी
(4) एक ईरानी महिला
(5) एक कश्मीरी महिला
नंबर 1- स्वरूप रानी और नंबर 3- मंजुरि देवी को लेकर कोई समस्या नहीं है।
दूसरी पत्नी थुसू रहमान बाई के पहले पति मुबारक अली थे। मोतीलाल नेहरू, मुबारक अली के पास नौकरी करता था। मुबारक की आकस्मिक मृत्यु के कारण मोतीलाल थुसु रहमान बाई से निकाह कर लिये और परोक्ष रूप से पूरी संपत्ति के मालिक बन गये।
थुसु रहमान बाई को मुबारक अली से 2 बच्चे पहले से ही मौजूद थे-
(1) शाहिद हुसैन
(2) जवाहरलाल,
मोतीलाल द्वारा इन दोनों बच्चों शाहिद हुसैन और जवाहरलाल को थुसु रहमान बाई से निकाह करने की वजह से अपना बेटा कह दिया गया।
प्रासंगिक उल्लेख:-
जवाहरलाल की माँ थुसू रहमान बाई थी, लेकिन उनके पिता मुबारक अली ही थे।
तदनुसार थुसू रहमान बाई से निकाह करने की वजह से मोतीलाल, जवाहरलाल नेहरू के पालक पिता थे।
मोतीलाल की चौथी पत्नी एक ईरानी महिला थी, जिसे मुहम्मद अली जिन्ना नामक एक बेटा था।
मोतीलाल की 5 नंबर वाली पत्नी एक कश्मीरी महिला थी, यह मोतीलाल नेहरु की नौकरानी थी।
इसको शेख अब्दुल्लाह नामक एक बेटा था, जो बाद में कश्मीर का मुख्यमंत्री बना था।
अर्थात् वस्तुतः *नेहरू, जिन्ना और अब्दुल्ला तीनों भाई मुसलमान थे।*
पर, जब भारत का बँटवारा होने लगा तो तीनों भाई आपस में झगड़ पड़े, तब..
(1) जवाहर को भारत,
(2) जिन्ना को पाकिस्तान
(3) शेख अब्दुल्ला को कश्मीर दिया गया (नौकरानी के बेटे के रूप में)
भारत से संबंधित होने से रोकने के लिए सुरक्षात्मक दृष्टिकोणवश कश्मीर को अनुच्छेद 370 प्रदान किया गया, ताकि कश्मीर भारत का होकर भी भारत का न हो।
उसके बाद जवाहरलाल की बेटी इंदिरा ने फिरोज खान से शादी की उनके *राजीव खान और संजय खान* हुए संजय को एक मुस्लिम से उत्पन्न बेटा माना जाता है।राजीव और संजय सगा नहीं बल्कि सौतेला भाई है।
जो संजय गांधी की मृत्यु पर फूट-फूटकर रोया था। *राजीव खान ने विदेशी इटली की क्रिस्चियन की औरत सोनिया माइनों से शादी की।*
*राजीव की बेटी प्रियंका ने ईसाई क्रिश्चियन राबर्ट बढेरा से शादी की पूरा परिवार ही बढ़ शंकर (वर्णसंकर) है फिर हिंदू कैसे हो सकते है? सब पूर्णरूपेण कसाई ईसाई वर्णसंकर प्रजाति है। और हम सबको भारतीयों को हिंदू पंडित कहकर बताया गया है जोकि पूर्णरूपेण असत्य है।*
इसीलिए इन लोगों ने *राम को काल्पनिक कहा*
और *सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट* भी दिया
*राम मंदिर का हमेशा विरोध* भी किया,
*वक्फ बोर्ड मुस्लिम पर्सनल लॉ* आदि *अनेकों मुस्लिम पक्ष के कार्य किए* और *हिंदू सनातन धर्म को दबाने की हमेशा इस कांग्रेसमें कोशिश की।*
अब समय आ गया है सब सनातनी भाई बहनों हिंदुओं को सचेत हो जाना है और अपने अस्तित्व की लड़ाई सबको तन मन धन से लड़नी है जो लड़ रहा है उसको समर्थन करना है।
अब प्रश्न है, भारत 70 वर्षों तक 3 भागों में विभाजित था, हम हिंदुस्तानियों को अलग-अलग तरीकों से टोपी क्यों पहनाई जाती रही, अथार्त् बेवकूफ क्यों बनाया जाता रहा।
आखिर, किस कारण।
सूत्र:- इम्मैथाइज़र की जीवनी।
इतिहास गवाह है हमेशा किले के दरवाज़े अंदर से ही खोले गए है।😎
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पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिता का नाम श्री मोतीलाल नेहरू (1861-1931) था, जो पेशे से एक एक स्व-निर्मित धनी बैरिस्टर थे, जो एक कश्मीरी पंडित समुदाय से थे। इनका माता का नाम स्वरूपरानी थुस्सू (1868-1938) था, जो लाहौर में बसे एक प्रसिद्ध कश्मीरी ब्राह्मण परिवार से थीं।
जवाहरलाल नेहरू की दो बहने थी। उनकी बड़ी बहन विजया लक्ष्मी (जो संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष बनीं)। उनकी सबसे छोटी बहन कृष्णा हुथीसिंग जो पेशे से एक प्रसिद्ध लेखिका बन गईं। यह नेहरू जी की जीवनी में लिखा हुआ है अब सच क्या है यह तो नहीं पता
यह आलेख तो मोतीलाल नेहरू और उनके पूर्वजों से जुड़ा हुआ है।
*देश हित में इस लिंक के माध्यम से जवाहर लाल नेहरू का सच जान लो ------*🔥
*सनातनी हिन्दुओं को मुगलों और अंग्रेजों के बाद इन फर्जी नेहरू खानदान और फर्जी कश्मीरी खानदान के लोगों ने गजवाहिन्द करने के लिए भारत से भी सभी हिन्दुओं को मारकर खत्म करने हेतु झूठे इतिहास के बल पर बांट रहे हैं जागो सनातनी हिन्दुओं जागो -----------
🔥 *नोट- इस सन्देश को देश हित में जरूर शेयर करें !* 🔥
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7-
8.
*कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर कर मरा,*
यह तो सब जानते हैं,
*लेकिन कैसे?*
यह आज हम आपको बताएंगे..
वो वीर महाराणा प्रताप जी का 'चेतक' सबको याद है,
लेकिन 'शुभ्रक' नहीं!
तो मित्रो आज सुनिए
*कहानी 'शुभ्रक' की......*
सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया,
और
*उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।*
*कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,*
जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।
एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई..
और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया।
यह तय हुआ कि
*राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..*
.
कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया।
'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा,
उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे।
जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया,
तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया..
उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया
और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए,
*जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए!*
इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए..
.
मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए।
'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी..
*लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!*
राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया,
*तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।*
*सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया..*
*भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता*
क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं!
जबकि
*फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।*
*नमन स्वामीभक्त 'शुभ्रक' को 🐎🙏
पढ़कर सीना चौड़ा हुआ 🥰
9..
*कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर कर मरा,*
यह तो सब जानते हैं,
*लेकिन कैसे?*
यह आज हम आपको बताएंगे..
वो वीर महाराणा प्रताप जी का 'चेतक' सबको याद है,
लेकिन 'शुभ्रक' नहीं!
तो मित्रो आज सुनिए
*कहानी 'शुभ्रक' की......*
सूअर कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूताना में जम कर कहर बरपाया,
और
*उदयपुर के 'राजकुंवर कर्णसिंह' को बंदी बनाकर लाहौर ले गया।*
*कुंवर का 'शुभ्रक' नामक एक स्वामिभक्त घोड़ा था,*
जो कुतुबुद्दीन को पसंद आ गया और वो उसे भी साथ ले गया।
एक दिन कैद से भागने के प्रयास में कुँवर सा को सजा-ए-मौत सुनाई गई..
और सजा देने के लिए 'जन्नत बाग' में लाया गया।
यह तय हुआ कि
*राजकुंवर का सिर काटकर उससे 'पोलो' (उस समय उस खेल का नाम और खेलने का तरीका कुछ और ही था) खेला जाएगा..*
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कुतुबुद्दीन ख़ुद कुँवर सा के ही घोड़े 'शुभ्रक' पर सवार होकर अपनी खिलाड़ी टोली के साथ 'जन्नत बाग' में आया।
'शुभ्रक' ने जैसे ही कैदी अवस्था में राजकुंवर को देखा,
उसकी आंखों से आंसू टपकने लगे।
जैसे ही सिर कलम करने के लिए कुँवर सा की जंजीरों को खोला गया,
तो 'शुभ्रक' से रहा नहीं गया..
उसने उछलकर कुतुबुद्दीन को घोड़े से गिरा दिया
और उसकी छाती पर अपने मजबूत पैरों से कई वार किए,
*जिससे कुतुबुद्दीन के प्राण पखेरू उड़ गए!*
इस्लामिक सैनिक अचंभित होकर देखते रह गए..
.
मौके का फायदा उठाकर कुंवर सा सैनिकों से छूटे और 'शुभ्रक' पर सवार हो गए।
'शुभ्रक' ने हवा से बाजी लगा दी..
*लाहौर से उदयपुर बिना रुके दौडा और उदयपुर में महल के सामने आकर ही रुका!*
राजकुंवर घोड़े से उतरे और अपने प्रिय अश्व को पुचकारने के लिए हाथ बढ़ाया,
*तो पाया कि वह तो प्रतिमा बना खडा था.. उसमें प्राण नहीं बचे थे।*
*सिर पर हाथ रखते ही 'शुभ्रक' का निष्प्राण शरीर लुढक गया..*
*भारत के इतिहास में यह तथ्य कहीं नहीं पढ़ाया जाता*
क्योंकि वामपंथी और मुल्लापरस्त लेखक अपने नाजायज बाप की ऐसी दुर्गति वाली मौत बताने से हिचकिचाते हैं!
जबकि
*फारसी की कई प्राचीन पुस्तकों में कुतुबुद्दीन की मौत इसी तरह लिखी बताई गई है।*
*नमन स्वामीभक्त 'शुभ्रक' को 🐎🙏
पढ़कर सीना चौड़ा हुआ 🥰
10-
आपको याद होगा की इंदिरा गाँधी, करपात्री जी महाराज के पास आशीर्वाद लेने गई तब करपात्री जी ने कहा आशीर्वाद तो दूँगा लेकिन सरकार बनते ही पहले गौ हत्या के विरुद्ध कानून बना कर गौ हत्या बंद करनी होगी।
इंदिरा ने हामी भरी, दो महीने बाद करपात्री जी इंदिरा से मिले, उनका वादा याद दिला कर गौ हत्या के विरुद्द कानून बनाने के लिए कहा तो इंदिरा जी ने कहा कि महाराज जी अभी तो मैं नई हूँ, कुछ समय दीजिए। कुछ समय बाद करपात्री जी फिर गए और कानून की मांग की लेकिन इंदिरा ने फिर टाल दिया।
कई बार मिलने वादा याद दिलाने के बाद भी जब इंदिरा ने गौ हत्या बंद नहीं की, कानून नहीं बनाया तो 7 नवम्बर 1966, उस दिन कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, देश का संत समाज, शंकराचार्य, अपने छत्र आदि छोड़ पैदल ही, आम जनता के साथ, गायों को आगे कर संसद कूच किया।करपात्री जी के नेतृत्व में जगन्नाथपुरी, ज्योतिष पीठ व द्वारका पीठ के शंकराचार्य, वल्लभ संप्रदाय के सातों पीठों के पीठाधिपति, रामानुज संप्रदाय, मध्व संप्रदाय, रामानंदाचार्य, आर्य समाज, नाथ संप्रदाय, जैन, बौद्ध व सिख समाज, निहंग व हजारों की संख्या में नागा साधुओं को पंडित लक्ष्मीनारायण जी चंदन तिलक लगाकर विदा कर रहे थे।
लालकिला मैदान से आरंभ होकर चावड़ी बाजार होते हुए पटेल चौक से संसद भवन पहुंचने विशाल जुलूस ने पैदल चलना आरंभ किया। रास्ते में घरों से लोग फूल वर्षा रहे थे।
हिंदू समाज के लिए ऐतिहासिक दिन था, सभी शंकराचार्य और पीठाधिपति पैदल चलते हुए संसद भवन के पास मंच पर समान कतार में बैठे।
उसके बाद से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ। नई दिल्ली का पूरा इलाका लोगों की भीड़ से भरा था। संसद गेट से लेकर चांदनी चौक तक सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। कम से कम 10 लाख लोगों की भीड़ जुटी थी, जिसमें 10 से 20 हजार तो केवल महिलाएं ही शामिल थीं। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक के लोग गौ हत्या बंद कराने के लिए कानून बनाने की मांग लेकर संसद के समक्ष जुटे थे। उस वक्त इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी और गुलजारी लाल नंदा गृहमंत्री थे।
इस सिंहनाद को देख कर इंदिरा ने सत्ता के मद में चूर होकर संतों, साधुओं, गायों और जनता पर अंधाधुंध गोलियों की बारिश करवा दी, हजारों गाय, साधु, संत और आमजन मारे गए। गौ रक्षा महाभियान समिति के तत्कालीन मंत्रियों में से एक और पूरी घटना के गवाह, प्रसिद्ध इतिहासकार एवं लेखक आचार्य सोहनलाल रामरंग के अनुसार इस गोलीबारी में कम से कम 10 हजार से अधिक मार दिये गये।
इंदिरा ने ढकने के लिए ट्रक बुलाकर मृत, घायल, जिंदा सभी को उसमें ठूंसा जाने लगा। जिन घायलों के बचने की संभावना थी, उनकी भी ट्रक में लाशों के नीचे दबकर मौत हो गई। आखिरी समय तक पता ही नहीं चला कि सरकार ने उन लाशों को कहां ले जाकर फूंक डाला या जमीन में दबा डाला। पूरे शहर में कर्फ्यू लागू कर दिया।
*तब करपात्री जी महाराज ने मरी हुई गायों के गले से लिपट कर रोते हुए कहा था कि "हम तो साधु हैं, किसी का बुरा नहीं करते लेकिन तूने माता समान निरपराध गायों को मारा है,* *जा इसका फल तुझे भुगतना पड़ेगा, मैं श्राप देता हूँ कि एक दिन तेरी देह भी इसी प्रकार गोलियों से छलनी होगी और तेरे कुल और दल का विनाश करने के लिए मैं हिमालय से एक ऐसा तपस्वी भेजूँगा जो तेरे दल और कुल का नाश करेगा"।*
जिस प्रकार करपात्री जी महाराज का आशीर्वाद सदा सफल ही होता था उसी प्रकार उनका श्राप भी फलीभूत होता था।
इस घटना की चर्चा गावँ गावँ में बच्चे बच्चे की जुबान पर थी और सभी *इंदिरा को गालियां, बददुआएं दे रहे थे कि "हत्यारी ने गायों को मरवा दिया इसका भला नहीं होगा* , *भगवान करे ये भी इसी प्रकार मरे। भगवान इसका दंड जरूर देंगे"।*
अब इसे संयोग कहेंगे या *करपात्री जी महाराज का श्राप कि इंदिरा का शरीर ठीक गोपाष्टमी के दिन उसी प्रकार गोलियों से छलनी हुआ जैसे करपात्री जी महाराज ने श्राप दिया था*
और *अब नरेंद्र दामोदरदास मोदी* के रूप में वह तपस्वी भी मौजूद है जो *कांग्रेस का विनाश कर रहा है* , जिसका खुला आव्हान है
"कांग्रेस मुक्त भारत"
*सोचिये क्या ये संयोग है* ❓
1- संजय गांधी मरे आकाश में तिथि थी गोपाष्टमी ,
2- इन्दिरा गाँधी मरी आवास में तिथि थी गोपाष्टमी,
3- राजीव गाँधी मरे मद्रास में तिथि थी गोपाष्टमी
*साधु संतों का श्राप व गौमाता की करुण पीड़ा ने इंदिरा को मारा* ।
#गौवंश
#गौसेवा
#गौ_माता_राष्ट्र_माता
🙏🏽🙏🏽🙏🏽🙏🏽🙏🏽🙏🏽
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