*बुंदेलखंड में सुराती/सुरातिया :-*
*-राजीव नामदेव 'राना लिधौरी'*
बुंदेलखंड क्षेत्र में सुराती कहीं कहीं पर सुरातिया भी कहा जाता है। सभी धर्मों में सुराती बनाये जाते है। ये सुराती जहां शुभ का संकेत देते है वहीं नकारात्मक ऊर्जा को नष्ट करके सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाते है मन को शांति प्रदान करते है,क्रोध और बुरे विचारों को नष्ट करते हैं तथा मंगल की कामना करते हैं।
वैष्णवों, तांत्रिकों, शैवों, जैनियों आदि की लक्ष्मी अलग-अलग हैं, पर लोकदेवी सुराती लोक की लक्ष्मी हैं और वे हर जाति, संप्रदाय में लिखी और पूजी जाती हैं। वस्तुतः सुराती बुंदेलखंड की लोकदेवी लक्ष्मी है यह अंचल शक्तिपूजक रहा है।
*बुंदेलखंड में शक्तिपूजा की तीन धाराएँ रही हैं-*
1. सबसे पुरानी मातृका-पूजन की, जो फरका या हाथ से बुने पट पर हल्दी या सिंदूर से लिखी सप्त मातृकाओं के रूप में आज भी द्रष्टव्य हैं।
2. भूदेवी या श्री देवी की परम्परा है, जो यहाँ भूइयाँ या भियाँ रानी की पूजा के रूप में लोकप्रचलित है और उसमें चकिया (प्रस्तर की गोल चकिया पर श्री या भूदेवी का उत्कीर्ण
होना अथवा श्री यन्त्र का अंकन) और चौंतरिया (मिट्टी का चतुर्भुज रूप) पूजी जाती है।
तथा 3. गौरा -पार्वती, दुर्गा, लक्ष्मी आदि देवियों के विग्रहों की परम्परा है।
प्रामाणिक साक्ष्य और शोधों के आधार पर सिद्ध है कि लक्ष्मी जी की सर्वाधिक लोकप्रतिष्ठा दशवीं शती में थी और उन्हें देवी के रूप में पूजा जाता था। खजुराहो के लक्ष्मण मंदिर के उपासनागृह के द्वार में ऊपर सरदल पर ब्राहृा और शिव के बीच में लक्ष्मी की मूर्ति उत्कीर्ण है, जिससे स्पष्ट है कि त्रिदेव में विष्णु के स्थान पर लक्ष्मी को स्थान दिया गया है और लक्ष्मण मंदिर लक्ष्मी मंदिर रहा है। इससे इस अंचल में लक्ष्मी के विग्रह की मान्यता का पता तो चलता है, पर सुराती के लोकप्रचलन के प्रारंभ की खोज अभी अधूरी ही है बस विभिन्न अनुमान लगाये जा रहे है।
यह तो तय है कि *श्रीसूक्त* में श्रीलक्ष्मी के लिए 'करीषिणी' का प्रयोग उसके लोकत्व का संकेत करता है। *'करीषिणी*' का आशय यह है कि लक्ष्मी गोबर या गायों में वास करती है। यह भी हो सकता है कि प्राचीनकाल में गोबर गणेश की तरह गोबर लक्ष्मी को भी पूजा जाता रहा हो। शोधों से ज्ञात हुआ है कि सुराती का आलेखन लगभगदशवीं शताब्दी से बहुत पहले का है।
रात के मांगलिक काल में चूने या खड़िया से पुती पूजाघर की दीवाल पर गेरू से सुराती लिखी जाती है। कहीं कहीं घरों में अंदर पूजा स्थल में महावर (माहुर)से भी बनाये जाते है।
कुछ लोग सुराता भी लिखते हैं। सुरत्राता (सं. सुरत्रातृ) से सुराता और सुरा त्रात्री से सुराती हो जाना सहज है। इसलिए सुराता का अर्थ विष्णु और सुराती का लक्ष्मी स्पष्ट है। कहीं-कहीं सुरेता और सुरातू भी प्रचलित हैं, जिन्हें लक्ष्मी और विष्णु का अथवा विष्णु और लक्ष्मी का पर्याय समझा जाता है। नारियाँ उनके नामकरण का सही रूप नहीं बता पातीं। इस लोकचित्र में ज्यामितिक प्रतीकों द्वारा सार्थक और जीवंत रेखांकन मिलता है। ऊपर के दोनों सिरों में सूरज-चंदा प्रकाश और जीवन की शातता के, दोनों ओर के स्वस्तिक कल्याण के, बीच में सुराती -सुराता के चित्रों में मुख का चतुर्भुज या वर्ग शुभ फलदायक देवमंडल का अथवा त्रिभुज शक्ति का तथा देहयष्टि के घरा या खाने समृद्धि के भंडा र के प्रतीक हैं। एक विद्वान् व्याख्याकार ने इन खानों को बंदीगृह माना है, जिसमें बलि द्वारा लक्ष्मी को बंदी बनाया गया था। यह मत सही नहीं है, क्योंकि बंदीगृह में बंद लक्ष्मी लोक द्वारा नहीं पूजी जाती। फिर, बंदीगृह में विष्णु (सुराता) का अंकन कती उचित नहीं है।
सुराती के इस चित्र में एक ओर डबुलियाँ और दूसरी ओर दिये अंकित होते हैं, जो धनधान्य और ज्ञान के प्रतीक हैं। नीचे पारम्परिक चौकों के साथ गोवद्र्धन (गोधन), चौपड़ (खेल), तुलसी (लक्ष्मी की अवतार) और कमल (लक्ष्मी का आसन) कई संदर्भों का संकेत करते हुए चित्र को पूर्णता प्रदान करते हैं। नाग -नागिन (मणिधारी) रत्नादि के, श्रवणकुमार सेवा के और सप्तकोण सप्तर्षि के प्रतीक कभी-कभी अंकित किये जाते हैं। कहीं-कहीं चित्र के चारों तरफ चौखटा खींच दिया जाता है, जिसके बीच-बीच में लहरिया (तरंगायित रेखाएँ) जीवन-प्रवाह को व्यंजित करती हैं तथा स्वस्तिक या गोला कल्याण और सृष्टि के बीज-ब्राहृ के प्रतीक हैं।
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*-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी*’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका
संपादक- 'अनुश्रुति' बुंदेली त्रैमासिक
जिलाध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
अध्यक्ष वनमाली सृजन केन्द्र टीकमगढ़
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
पिनः472001 मोबाइल-9893520965
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