'अट्टहास' लखनऊ से प्रकाशित व्यंग्य की मासिेक पत्रिका में अगस्त 2015 में प्रकाशित मेरा एक नया व्यंग्य 'सेल्फी सनकी जी'
व्यग्ंय-‘‘सेल्फी सनकी जी और छपास का रोग’’
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
व्यंग्य का शीर्षक पढ़कर चांैक गए! कवि ऐसे ही उटपटांग नाम रखते किसी का ‘सनकी’ नाम नही सुना है क्या आपने? पागल तो सुना होगा, सूंड, ऊँट,उजबक, चिरकुट, भोंपू, आदि कवियों के साथ तो मैंने एक ही मंच पर कवि सम्मेलनों में कविताएँ सुनायी हैं। आज युवा पीढ़ी इन्टनेट के जाल में पूरी तरह से फंस चुकी है। पहले कम्प्यूटर फिर लेपटाॅप और अब आई पेड, स्मार्ट मोबाइल में वे सभी सुविधाएँ मौजूद है जो पहले लेपटाप और कम्प्यूटर में हुआ करती थीं। इनके मोह जाल में युवा पीढ़ी तेजी से फँसती जा रही हैं आज भारत में युवाओं के साथ-साथ कुछ बुड़ढ़ों में भी फिर से जवानी चढ़ने लगी हैं। वे भी अपनी जेब में मंँहगा मोबाइल लेकर घूमने लगे है। भले ही उनको ढंग से चलाना आता न हो। मोबाइल इस युग का सबसे उपयोगी साधन और सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला सबसे सस्ता,सरल और सुगम साधन है। इसका उपयोग सही दिशा में किया जाये तो बेहतर है वर्ना इसके गलत उपयोग से पैसें और समय की बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं मिलता है।
आज युवाओं में तेजी से ‘सेल्फी’ अर्थात स्वयं की फोटो अपने द्वारा खींचना फिर उसे फेसबुक,टिबटर,आरकुट,हाइक व वाट्सएप आदि पर सेल्फी डालने की सनक सवार हो गयी है। सनक इतनी तेजी से उस गति से फैल रही है जिस गति से भारत में जनसंख्या और महँगाई बढ़ रही है। यह एक नशा की भाँति लोगों के दिमाग में चढ़ रहा हैं अनेक लोगों की जाने भी जा चुकी है।
युवाओं को ‘सेल्फी’ लेने का शौक करना तो कुछ उचित लगता हैं, किन्तु कुछ बुढ्डों को भी अपनी सेल्फी लेने और उसे फेसबुक आदि में डालने का शौक उम्र के साठ साल बाद जब सरकार भी उन्हें रिटायर कर देती है, तब चर्राया है। वो भी अपनी उम्र के अंतिम पडाव में मोबाइल पर अपने इश्क का इज़हार कर रहे है। ऐसा लगता है कि इनकी हरकतों को देखते हुए इनके दिमाग ने भी रिटायमेन्ट ले ली है उन्हें भी अब ‘चढ़़ी जवानी बुढ़ढे नू’ की तर्ज पर अपनी सेल्फी लेकर मोबाइल पर अपलोड करने की सनक इस कदर सवार है, कि वे ये नहीं देखते कि क्या लिख रहे है और क्या पोस्ट कर रहे है। बस अपना थोबडा फेसबुक पर देखने और दिखाने की सनक सवार है। यदि आप गौर से देखेगें तो जिससे दूसरों के प्रति घोर ईष्र्या जलन स्पष्ट दिखाई देती है तथा स्वयं को स्यमंभू सर्वश्रेष्ठ कहने की गलतफहमी ठीक उसी तरह जिस प्रकार होती है जैसे एक‘ कुएँ के मेंढक’ को होती हैं।
दिन भर में कम से कम आठ-दस सेल्फी तो ये सेल्फी सनकी जी महाराज डाल ही देते है। इसी कारण लोग उन्हें ‘सेल्फी सनकी जी’ तो कुछ लोग इन्हें सनकी महाराज भी कहते है, ये इतने बडे वाले है कि अपनी सेल्फी खंींचकर उस पर स्वयं ही कमेंटस डाल देते और कमेंटस भी रोमन लिपि क्योंकि, हिन्दी तो इनको आती नहीं है,इसलिए हिन्दी के कमेंटस को अंगे्रजी रोमन लिख देते है और ये भी नहीं देखते है कि क्या लिख गया है, लिखना कुछ चाहते है और लिख कुछ जाता हैं, लोग कुछ और ही समझ जाते है। ये कभी-कभी ऐसी स्पेलिंग लिख देते है ठीक पढ़नेवाला शर्म से पानी-पानी हो जाता है और कुछ उसे पढकर इनके फे्रंड इतने हँसते है कि इतना तो ‘लाफिंग क्लब’ के सदस्य भी न हँसते होगे। आज जहाँ 16 मेगापिक्सल के कैमरे वाले मोबाइल आने लगे है, वहीं ये सेल्फी सनकी जी बहुत पुराना बाबा आदम के जमाने का मोबाइल जिसका कैमरा मात्र 1.44 मेगा पिक्सल का है। उससे अपनी सेल्फी लेकर उलटी सीधी जैसे भी हो फेसबुक पर डाल देते है और अपनी आत्म प्रंशसा रूपी झूट के सागर में गोते लगाते रहते है और स्वयं को ठीक उस गधे के समान बु़िद्धमान समझने लगते है जो गर्मियों में घास खाते हुए पीछे देखता है तो समझता है कि मेेैंने तो आज पूरा मैदान ही खाकर साफ कर दिया है,लेकिन कहते है कि मूर्खो की कभी भी,कहीं भी कमी नहीं है एक ढूँढ़ों तो हजार मिलते है।
एकबार तो इन्होंने गजब ही कर दिया। इसी दुलभर््ा मोबाइल से एक धुधंली सी सेल्फी फोटो खींची और उस फोटो को उल्टी ही पोस्ट कर दी, जिसमें उनका सिर नीचे और टाँगें ऊपर थी अब ये इतने तो ज्ञानी थे नहीं कि तुरंत वह पोस्ट हटा देते और फोटो सीधी करके पोस्ट कर देते। वह फोटो अभी भी इनके फेसबुक की दुर्लभ सेल्फी में शुमार है जिसे देख कर लोग अपने-अपने अर्थ निकलाते है और एक दूसरे से विचार विमर्श भी करते है, कुछ तर्क वितर्क भी करते हैं ,कुछ लोग तुंरत ही अपने कमंेट कर देते और कुछ लोग बाद में अपने मित्रों क साथ बैठकर इस फोटो पर एक विचार गोष्ठी ही कर लेते हैं। अरे! भाई, साहित्यकार की फोटो है कोई मामूली आदमी की नहीं, वह भी उसकी जो अपने आप को अतंर्राष्ट्रीय कवि मानने की बहुत कड़ी गलतफहमी में जी रहा है। एक कवि का मानना है कि- क्यों न इस पर शोध कार्य किया जाए और किसी अभागे मेट्रिक पास कवि को डाॅक्टर लिखने का स्वयंभू अधिकार मिल जाए।
अक्सर असली कवि अपनी लिखी कविताएँ ही अपने पोस्ट पर डालता है, लेकिन ये सेल्फी सनकी जी स्वयं को बहुत बड़ा कवि मानते है, लेकिन इनके दिमाग में कविताएँ ठीक नेताओं की तरह ही पाँच साल में आती है, हाँ कभी-कभी अपवाद स्वरूप मध्यावर्ती चुनाव की तरह एकाध वार एक नई कविता का जन्म हो जाता है, वर्ना कविताएँ चार-पाँच साल में एकाध नई कविता ही लिख पाते है। इनकी गिनी चुनी घिसी पिटी वे ही चार-पाँच कविताएँ जो कवि गोष्ठियों व कवि सम्मेलनों में गोल्डनजुबली मना चुकी है तथा कुछ डायमण्ड जुबली की ओर अग्रसर है, इनकी ये कविताएँ सुन-सुनकर लोगो के कान तक पक गए है, लेकिन इन्हंे सुनाने में शर्म नहीं आती,क्योंकि इनके दिमाग में नई कविता नहीं आती है। एक वार एक कवि गोष्ठी में संचालक महोदय ने जैसे ही इनका नाम काव्यपाठ हेतु पुकारा तो शताब्दी ट्रेन की गति से बगल में बैठे एक कवि ने तुरंत कहा कि भइया वो वाली कविता मत सुनाना, बेचारे इतने झेंप गए कि फिर दौवारा जिस कवि गोष्ठी में वे महोदय उपस्थित रहते है वे उस कविता को भूलकर भी नहीं सुनाते है, लेकिन है तो वहीं कुल चार छः जमा पूंजी कि । जब भी कोई नया मेहमान कवि शहर में आता है तो वे पुनः उसी कविता को यह कह कर सुनाते देते है कि ये कविता उन्हें समर्पित कर रहे है।
ऐसे में इन्होंने ने एक उपाय सोचा और सेल्फी डालने के साथ-साथ किसी भी फिल्म के गाने की दो लाइने लिख देते है, इतना ही नहीं, ये सेल्फी सनकी जी अपनी फोटो के साथ-साथ अपनी पत्नी की भी फोटो डालते है और उस पर ऐसे-ऐसे कमेंन्टस व पुराने फिल्मों के गीतों की लाइन स्वयं लिख देते है कि पढ़ने वाले को शर्म आ जाती है यहाँ यह शोध का विषय हो सकता है कि उनकी पत्नी को इनकी हरकतों की सनक कि भनक है अथवा नहीं।
उस पर भी इनकी सेल्फी डालने की सनक पूरी नही होती, तो ये अपनी पुराने जमाने की लगभग पचास साल पुरानी फोटो भी आज 2015 सन् में रिलीज हुई फिल्म के गानों की लाइन लिखकर डाल देते है और मजे की बात तो यह है कि इन्हें ये होश ही नहीं रहता है कि यह फोटो वे कितनी वार पहले पोस्ट कर चुके है और ये गाना कितनी वार लिख चुके है लिख तो ऐसे देते है जैसे इन्होने की वह गाना स्वयं रचा हो या उस गीतकार की आत्मा इनमें आ गयी हो।
सनकी सेल्फी जी को अपनी फोटो खिंचवाने का इस कदर शौक है कि एक बार ये एक कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे जिसमें साहित्यकारों को मंच पर बुलाकर सम्मानित किया जा रहा था मंच थोड़ी ऊँचाई पर था और ये महाशय नीचे से संचालन कर रहे थे फिर भी इनकी आत्मा फोटो खिंचवाने के लिए बार बार मंच पर चढ़कर फोटो खिंचवाने के लिए तडफ उठती थी। जब इन्होंने कम से कम दस वार यही ऊपर नीचे जाने की प्रक्रिया अपनाई तथा इसी भागने की जल्दी में इनके धक्के से माइक नीचे गिर गया तोे सामने दर्शकदीर्घा में बैठे एक सज्जन ने कहा भाई साहब माइक दूसरे को दे दो, तुम वहीं खडे रहो फोटो खिंचवाते रहना।
शर्म तो इनको कभी आती नहीं शर्म तो सुनने, देखने और कहने वाले को आती है अब हम इनके वारे में क्या कहे,यदि आप इनसे एक बार मिल लेगे, तो इन्हें कभी नहीं भूल सकते, कसम से ऐसे चिपकू आपने दूसरे न देखे होगे। मैं तो इन पर एक उपन्यास तक लिख सकता हूँ,लेकिन यहाँ तो एक व्यंग्य लिखने की कोशिश कर रहा था। कहाँ तक सफल रहा यह आपके हँसने और मुस्कुराने पर निर्भर करता है। वैसे तो प्रत्येक कवि व साहित्यकार को छपास का रोग होता है, किन्तु कुछ टुच्चे कवियों में इसके कीटाणु अत्याधिक मात्रा में पाये जाते हैं। ऐसे छपास रोगी कवि प्रायः हर शहर हर गाँव में आपको दो-चार की संख्या में तो देखने को मिल ही जाऐंगे। ऐसे ही हमारे शहर के एक कवि महोदय को इस ‘छपास रोग’ इस कदर लग गया कि पूछों मत।
वे हर कवि गोष्ठी में आ ही जाते थे बस किसी प्रकार से पता भर चल जाये और कवि सम्मेलन में तो जुगाड़ कर धंस ही जाते थे और फ्री सेवा में अपने स्थानीय शहर तो शहर ,बाहर तक के शहरों तक में अपने वाहन सहित निःशुल्क उपलब्ध हो जाते थे। उसके बाद उन्हें छपास कीडा़ काटने लगता था और दूसरे दिन उन्हें अपना नाम समाचार पत्रों में पढ़ने का बेहद जनून पागलपन की हद तक सवार था। कभी-कभी तो कवि सम्मेलन चल ही रहा होता है और ये अपनी कविता सुनाकर उसे तुरंत ही अपने मोबाइल से केवल सामने वाले के हाथ पाँव जोड़ के अपनी फोटो खिंचवाकर उसे फेसबुक पर उधर बैठे बैठे केवल अपनी महिमा पंिडत करते हुए फोटो डाल देते है मानों पूरे कवि सम्मेलन में केवल इन्होंने ही कविता पढ़ी हों, और तो और कार्यक्रम में कौन मुख्य अतिथि है किसने,अध्यक्षता की है इससे इनको कोई मतबल नहीं, उनका नाम तक नहीं देते है और बेचारे आयोजक-संयोजक महोदय का भी आभार प्रकट करना तो दूर उसका नाम तक नहीं देते है केवल आत्म प्रशंसा अपनी कविता की चार लाइने लिख देते है और पूरे समाचार की .......कर देते है।
कुल जमा पंूजी की अपनी वे ही दो-चार घिसीपपिटी कविता घुमाफिरा कर सुनाते और उन्हीं में से दो लाइने समाचार पत्रों में छपने को दे देते। ये वही लाइनें होती थीं जो गोल्डन जुबली,डायमंड जुबली मना चुकी होती है। अन्य साथी कवि तो ठीक है,समाचार लिखनेवाले पत्रकारों तक को वे लाइने कंठस्थ याद हो गयी थी, इसीलिए वे इनकी लाइने यदि उस दिन पेपर में जगह खाली रही तो छाप देते थे, वर्ना उनकी लाइनों को केवल पढ़कर की उन्हें प्रणाम करके मुक्ति दे देते थे और उनके स्थान पर दूसरे कवि की कविता की लाइनें छाप देते है।
जिस दिन समाचार में उनकी लाइने आ गयी तब तो ठीक है वर्ना उस आयोजक व संयोजक की शामत आ जाती थी ये महोदय सुबह पेपर पढ़ते ही जब अपनी लाइनें नहीं देखते तो आगबबूला हो जाते और तुरंत मोबाइल से कवि गोष्ठी के संयोजक महोदय को ऐसे फटकारते जैसे इन्होंने उस कार्यक्रम के लिए मानों बहुत कुछ चंदा दिया हो वो भी सपने में क्योकि हकीकत में तो ये ‘चमड़ी जाये पर दमडी न जाये’ उक्ति के परम भक्त हैं मजाल है कि कोई इनसे कार्यक्रम के नाम से एक रूपए भी प्राप्त कर सकें। हाँ,कुछ संस्थाओं की वार्षिक सदस्यता शुल्क देने पर इन्हें बहुत अधिक अंदरूनी कष्ट पहँुचता था ,लेकिन ये देना उनकी मजबूरी थी वर्ना वार्षिक कार्यक्रम व कवि सम्मेलन इनकी दाल न गलती और फिर मंच पर आना असंभव हो जाता है।
हाँ, तो हम बात रहे थे जिस दिन इनकी कवि महोदय की कविताओं की लाइने नहीं छपती, ये तुरंत संयोजक को मोबाइल पर हिला देते, मानों कोई भूकंप आ गया हो। संयोजक महोदय बेचारे समझाते-समझाते थक जाते कि हमने तो आपकी लाइनें दी थीं, अब पेपरवालों ने नहीं छापा तो हम क्या करे,हो सकता है उस दिन कोई विज्ञापन मिल गया होगा और उसे छाप दिया होगा या पेपर में ज्यादा जगह नहीं होगी तो उन्होंने समाचार काटकर अपने हिसाब से कर दिया, लेकिन ‘अनपढ़ तो समझाया जा सकता है, लेकिन एक पढे लिखे मूर्ख को नहीं’ वे इतने बडे वाले मूर्ख है कि वे किसी बात को मानने को तैयार नहीं होते।
एक बार ऐसे ही एक दिन एक कवि सम्मेलन का समाचार छपा जिसमें इनकी लाइनें अदृश्य थीं, फिर क्या था इन्होंने तुरंत मुझे मोबाइल किया, क्योंकि कार्यक्रम मेरे संयोजन में हुआ था। न हेलो न हाय, सीधे धंाय-धांय और सीधे वाकयुद्ध शुरू, तुम पक्षपात करते हो,अपने को बहुत बड़ा समझते हो तुमने मेरा नाम क्यों नहीं दिया?,ऐसे ही एक अन्य छापस रोगी ने तो मुझे धमकी तक दे दी कि इस बार कुछ भी हो जाये तुम्हें संस्था का अध्यक्ष नहीं बनने देंगें। हमने भी कह दिया कि तुम भगवान नहीं आम सहमति से चुनाव होगा, अब ये बात अलग है कि इनके अलावा विरोध करने वाला दूसरा कोई नहीं है,सभी संतुष्ट है, लेकिन कहते है कि ‘खिसयाई बिल्ली खंभा ही नोंचे’ और अब यह बिल्ली बूढ़ी हो गयी है और इसकेे नाखून ही बूढ़े हो गये है लेकिन फिर भी ऐंठ नहीं गयी है। कहते है ‘रस्सी जल गयी पर ऐंठ नहीं गई’ उक्ति को चरितार्थ कर रहे है।
आज का पेपर पढ़ा हम समझ गए कि आज फिर पागलपन का छापास दौरा पड़ा हैं फिर भी हमने अनजान होते हुए कहा-नहीं, क्यों क्या बात है। वे बोले आज फिर केवल हमारी लाइने नहीं छपी है सबकी छपी है और नाम तक गोल है। (हमनेे मन ही मन में कहा कि -तुम खुद गोल हो अर्थात शून्य हो,जीरो हो, लेकिन समझते अपने को हीरो है।) मैंने उन्हें अपनी सफाई देते हुए कहा कि भई मैंने तो सभी कि लाइने दी थी, विस्वास नहीं हो तो मेरी रिपोर्ट की फोटो कापी देख लो,बात तो उनकी समझ में आ गयी कि पेपरवाले ने ही नहीं छापा है, लेकिन फिर वहीं जुमला दोहराया कि इस प्रमुख पेपर में मेरा नाम नहीं आता है। मैंने कहा भई दूसरे पेपरों में तो तुम्हारा नाम है दस पेपरों में से किसी एकाद में नहीं आया तो क्या गजब हो गया।
वे फिर तैश मे आकर बोले- अरे वाह ! कैसे नहीं हो गया। यह पेपर शहर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता हैं (हमने मन ही मन फिर बुदबुदाते हुए कहा कि इसीलिए तो आपका नाम उसने नहीं दिया वह समझदार पत्रकार है।) मैंने कहा कि- हमने तो दिया था अब अगर उसने नहीं छापा तो इसमें मेरा क्या कसूर हैं। हो सकता उसकी तुम्हारी पिछले जनम् की दुश्मनी होगी इसलिए वह इस जनम् में तुम्हें नहीं छाप कर चुका रहा है। इतना सुनना था कि उन्होंने फौरन अपना मोबाइल काट दिया हमने भी राहत ही सांस ली, सोचा चलो,पीछा छूटा।
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
पिनः472001 मोबाइल-9893520965
E Mail- ranalidhori@gmail.com
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व्यग्ंय-‘‘सेल्फी सनकी जी और छपास का रोग’’
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
व्यंग्य का शीर्षक पढ़कर चांैक गए! कवि ऐसे ही उटपटांग नाम रखते किसी का ‘सनकी’ नाम नही सुना है क्या आपने? पागल तो सुना होगा, सूंड, ऊँट,उजबक, चिरकुट, भोंपू, आदि कवियों के साथ तो मैंने एक ही मंच पर कवि सम्मेलनों में कविताएँ सुनायी हैं। आज युवा पीढ़ी इन्टनेट के जाल में पूरी तरह से फंस चुकी है। पहले कम्प्यूटर फिर लेपटाॅप और अब आई पेड, स्मार्ट मोबाइल में वे सभी सुविधाएँ मौजूद है जो पहले लेपटाप और कम्प्यूटर में हुआ करती थीं। इनके मोह जाल में युवा पीढ़ी तेजी से फँसती जा रही हैं आज भारत में युवाओं के साथ-साथ कुछ बुड़ढ़ों में भी फिर से जवानी चढ़ने लगी हैं। वे भी अपनी जेब में मंँहगा मोबाइल लेकर घूमने लगे है। भले ही उनको ढंग से चलाना आता न हो। मोबाइल इस युग का सबसे उपयोगी साधन और सबसे अधिक उपयोग किया जाने वाला सबसे सस्ता,सरल और सुगम साधन है। इसका उपयोग सही दिशा में किया जाये तो बेहतर है वर्ना इसके गलत उपयोग से पैसें और समय की बर्बादी के सिवा और कुछ नहीं मिलता है।
आज युवाओं में तेजी से ‘सेल्फी’ अर्थात स्वयं की फोटो अपने द्वारा खींचना फिर उसे फेसबुक,टिबटर,आरकुट,हाइक व वाट्सएप आदि पर सेल्फी डालने की सनक सवार हो गयी है। सनक इतनी तेजी से उस गति से फैल रही है जिस गति से भारत में जनसंख्या और महँगाई बढ़ रही है। यह एक नशा की भाँति लोगों के दिमाग में चढ़ रहा हैं अनेक लोगों की जाने भी जा चुकी है।
युवाओं को ‘सेल्फी’ लेने का शौक करना तो कुछ उचित लगता हैं, किन्तु कुछ बुढ्डों को भी अपनी सेल्फी लेने और उसे फेसबुक आदि में डालने का शौक उम्र के साठ साल बाद जब सरकार भी उन्हें रिटायर कर देती है, तब चर्राया है। वो भी अपनी उम्र के अंतिम पडाव में मोबाइल पर अपने इश्क का इज़हार कर रहे है। ऐसा लगता है कि इनकी हरकतों को देखते हुए इनके दिमाग ने भी रिटायमेन्ट ले ली है उन्हें भी अब ‘चढ़़ी जवानी बुढ़ढे नू’ की तर्ज पर अपनी सेल्फी लेकर मोबाइल पर अपलोड करने की सनक इस कदर सवार है, कि वे ये नहीं देखते कि क्या लिख रहे है और क्या पोस्ट कर रहे है। बस अपना थोबडा फेसबुक पर देखने और दिखाने की सनक सवार है। यदि आप गौर से देखेगें तो जिससे दूसरों के प्रति घोर ईष्र्या जलन स्पष्ट दिखाई देती है तथा स्वयं को स्यमंभू सर्वश्रेष्ठ कहने की गलतफहमी ठीक उसी तरह जिस प्रकार होती है जैसे एक‘ कुएँ के मेंढक’ को होती हैं।
दिन भर में कम से कम आठ-दस सेल्फी तो ये सेल्फी सनकी जी महाराज डाल ही देते है। इसी कारण लोग उन्हें ‘सेल्फी सनकी जी’ तो कुछ लोग इन्हें सनकी महाराज भी कहते है, ये इतने बडे वाले है कि अपनी सेल्फी खंींचकर उस पर स्वयं ही कमेंटस डाल देते और कमेंटस भी रोमन लिपि क्योंकि, हिन्दी तो इनको आती नहीं है,इसलिए हिन्दी के कमेंटस को अंगे्रजी रोमन लिख देते है और ये भी नहीं देखते है कि क्या लिख गया है, लिखना कुछ चाहते है और लिख कुछ जाता हैं, लोग कुछ और ही समझ जाते है। ये कभी-कभी ऐसी स्पेलिंग लिख देते है ठीक पढ़नेवाला शर्म से पानी-पानी हो जाता है और कुछ उसे पढकर इनके फे्रंड इतने हँसते है कि इतना तो ‘लाफिंग क्लब’ के सदस्य भी न हँसते होगे। आज जहाँ 16 मेगापिक्सल के कैमरे वाले मोबाइल आने लगे है, वहीं ये सेल्फी सनकी जी बहुत पुराना बाबा आदम के जमाने का मोबाइल जिसका कैमरा मात्र 1.44 मेगा पिक्सल का है। उससे अपनी सेल्फी लेकर उलटी सीधी जैसे भी हो फेसबुक पर डाल देते है और अपनी आत्म प्रंशसा रूपी झूट के सागर में गोते लगाते रहते है और स्वयं को ठीक उस गधे के समान बु़िद्धमान समझने लगते है जो गर्मियों में घास खाते हुए पीछे देखता है तो समझता है कि मेेैंने तो आज पूरा मैदान ही खाकर साफ कर दिया है,लेकिन कहते है कि मूर्खो की कभी भी,कहीं भी कमी नहीं है एक ढूँढ़ों तो हजार मिलते है।
एकबार तो इन्होंने गजब ही कर दिया। इसी दुलभर््ा मोबाइल से एक धुधंली सी सेल्फी फोटो खींची और उस फोटो को उल्टी ही पोस्ट कर दी, जिसमें उनका सिर नीचे और टाँगें ऊपर थी अब ये इतने तो ज्ञानी थे नहीं कि तुरंत वह पोस्ट हटा देते और फोटो सीधी करके पोस्ट कर देते। वह फोटो अभी भी इनके फेसबुक की दुर्लभ सेल्फी में शुमार है जिसे देख कर लोग अपने-अपने अर्थ निकलाते है और एक दूसरे से विचार विमर्श भी करते है, कुछ तर्क वितर्क भी करते हैं ,कुछ लोग तुंरत ही अपने कमंेट कर देते और कुछ लोग बाद में अपने मित्रों क साथ बैठकर इस फोटो पर एक विचार गोष्ठी ही कर लेते हैं। अरे! भाई, साहित्यकार की फोटो है कोई मामूली आदमी की नहीं, वह भी उसकी जो अपने आप को अतंर्राष्ट्रीय कवि मानने की बहुत कड़ी गलतफहमी में जी रहा है। एक कवि का मानना है कि- क्यों न इस पर शोध कार्य किया जाए और किसी अभागे मेट्रिक पास कवि को डाॅक्टर लिखने का स्वयंभू अधिकार मिल जाए।
अक्सर असली कवि अपनी लिखी कविताएँ ही अपने पोस्ट पर डालता है, लेकिन ये सेल्फी सनकी जी स्वयं को बहुत बड़ा कवि मानते है, लेकिन इनके दिमाग में कविताएँ ठीक नेताओं की तरह ही पाँच साल में आती है, हाँ कभी-कभी अपवाद स्वरूप मध्यावर्ती चुनाव की तरह एकाध वार एक नई कविता का जन्म हो जाता है, वर्ना कविताएँ चार-पाँच साल में एकाध नई कविता ही लिख पाते है। इनकी गिनी चुनी घिसी पिटी वे ही चार-पाँच कविताएँ जो कवि गोष्ठियों व कवि सम्मेलनों में गोल्डनजुबली मना चुकी है तथा कुछ डायमण्ड जुबली की ओर अग्रसर है, इनकी ये कविताएँ सुन-सुनकर लोगो के कान तक पक गए है, लेकिन इन्हंे सुनाने में शर्म नहीं आती,क्योंकि इनके दिमाग में नई कविता नहीं आती है। एक वार एक कवि गोष्ठी में संचालक महोदय ने जैसे ही इनका नाम काव्यपाठ हेतु पुकारा तो शताब्दी ट्रेन की गति से बगल में बैठे एक कवि ने तुरंत कहा कि भइया वो वाली कविता मत सुनाना, बेचारे इतने झेंप गए कि फिर दौवारा जिस कवि गोष्ठी में वे महोदय उपस्थित रहते है वे उस कविता को भूलकर भी नहीं सुनाते है, लेकिन है तो वहीं कुल चार छः जमा पूंजी कि । जब भी कोई नया मेहमान कवि शहर में आता है तो वे पुनः उसी कविता को यह कह कर सुनाते देते है कि ये कविता उन्हें समर्पित कर रहे है।
ऐसे में इन्होंने ने एक उपाय सोचा और सेल्फी डालने के साथ-साथ किसी भी फिल्म के गाने की दो लाइने लिख देते है, इतना ही नहीं, ये सेल्फी सनकी जी अपनी फोटो के साथ-साथ अपनी पत्नी की भी फोटो डालते है और उस पर ऐसे-ऐसे कमेंन्टस व पुराने फिल्मों के गीतों की लाइन स्वयं लिख देते है कि पढ़ने वाले को शर्म आ जाती है यहाँ यह शोध का विषय हो सकता है कि उनकी पत्नी को इनकी हरकतों की सनक कि भनक है अथवा नहीं।
उस पर भी इनकी सेल्फी डालने की सनक पूरी नही होती, तो ये अपनी पुराने जमाने की लगभग पचास साल पुरानी फोटो भी आज 2015 सन् में रिलीज हुई फिल्म के गानों की लाइन लिखकर डाल देते है और मजे की बात तो यह है कि इन्हें ये होश ही नहीं रहता है कि यह फोटो वे कितनी वार पहले पोस्ट कर चुके है और ये गाना कितनी वार लिख चुके है लिख तो ऐसे देते है जैसे इन्होने की वह गाना स्वयं रचा हो या उस गीतकार की आत्मा इनमें आ गयी हो।
सनकी सेल्फी जी को अपनी फोटो खिंचवाने का इस कदर शौक है कि एक बार ये एक कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे जिसमें साहित्यकारों को मंच पर बुलाकर सम्मानित किया जा रहा था मंच थोड़ी ऊँचाई पर था और ये महाशय नीचे से संचालन कर रहे थे फिर भी इनकी आत्मा फोटो खिंचवाने के लिए बार बार मंच पर चढ़कर फोटो खिंचवाने के लिए तडफ उठती थी। जब इन्होंने कम से कम दस वार यही ऊपर नीचे जाने की प्रक्रिया अपनाई तथा इसी भागने की जल्दी में इनके धक्के से माइक नीचे गिर गया तोे सामने दर्शकदीर्घा में बैठे एक सज्जन ने कहा भाई साहब माइक दूसरे को दे दो, तुम वहीं खडे रहो फोटो खिंचवाते रहना।
शर्म तो इनको कभी आती नहीं शर्म तो सुनने, देखने और कहने वाले को आती है अब हम इनके वारे में क्या कहे,यदि आप इनसे एक बार मिल लेगे, तो इन्हें कभी नहीं भूल सकते, कसम से ऐसे चिपकू आपने दूसरे न देखे होगे। मैं तो इन पर एक उपन्यास तक लिख सकता हूँ,लेकिन यहाँ तो एक व्यंग्य लिखने की कोशिश कर रहा था। कहाँ तक सफल रहा यह आपके हँसने और मुस्कुराने पर निर्भर करता है। वैसे तो प्रत्येक कवि व साहित्यकार को छपास का रोग होता है, किन्तु कुछ टुच्चे कवियों में इसके कीटाणु अत्याधिक मात्रा में पाये जाते हैं। ऐसे छपास रोगी कवि प्रायः हर शहर हर गाँव में आपको दो-चार की संख्या में तो देखने को मिल ही जाऐंगे। ऐसे ही हमारे शहर के एक कवि महोदय को इस ‘छपास रोग’ इस कदर लग गया कि पूछों मत।
वे हर कवि गोष्ठी में आ ही जाते थे बस किसी प्रकार से पता भर चल जाये और कवि सम्मेलन में तो जुगाड़ कर धंस ही जाते थे और फ्री सेवा में अपने स्थानीय शहर तो शहर ,बाहर तक के शहरों तक में अपने वाहन सहित निःशुल्क उपलब्ध हो जाते थे। उसके बाद उन्हें छपास कीडा़ काटने लगता था और दूसरे दिन उन्हें अपना नाम समाचार पत्रों में पढ़ने का बेहद जनून पागलपन की हद तक सवार था। कभी-कभी तो कवि सम्मेलन चल ही रहा होता है और ये अपनी कविता सुनाकर उसे तुरंत ही अपने मोबाइल से केवल सामने वाले के हाथ पाँव जोड़ के अपनी फोटो खिंचवाकर उसे फेसबुक पर उधर बैठे बैठे केवल अपनी महिमा पंिडत करते हुए फोटो डाल देते है मानों पूरे कवि सम्मेलन में केवल इन्होंने ही कविता पढ़ी हों, और तो और कार्यक्रम में कौन मुख्य अतिथि है किसने,अध्यक्षता की है इससे इनको कोई मतबल नहीं, उनका नाम तक नहीं देते है और बेचारे आयोजक-संयोजक महोदय का भी आभार प्रकट करना तो दूर उसका नाम तक नहीं देते है केवल आत्म प्रशंसा अपनी कविता की चार लाइने लिख देते है और पूरे समाचार की .......कर देते है।
कुल जमा पंूजी की अपनी वे ही दो-चार घिसीपपिटी कविता घुमाफिरा कर सुनाते और उन्हीं में से दो लाइने समाचार पत्रों में छपने को दे देते। ये वही लाइनें होती थीं जो गोल्डन जुबली,डायमंड जुबली मना चुकी होती है। अन्य साथी कवि तो ठीक है,समाचार लिखनेवाले पत्रकारों तक को वे लाइने कंठस्थ याद हो गयी थी, इसीलिए वे इनकी लाइने यदि उस दिन पेपर में जगह खाली रही तो छाप देते थे, वर्ना उनकी लाइनों को केवल पढ़कर की उन्हें प्रणाम करके मुक्ति दे देते थे और उनके स्थान पर दूसरे कवि की कविता की लाइनें छाप देते है।
जिस दिन समाचार में उनकी लाइने आ गयी तब तो ठीक है वर्ना उस आयोजक व संयोजक की शामत आ जाती थी ये महोदय सुबह पेपर पढ़ते ही जब अपनी लाइनें नहीं देखते तो आगबबूला हो जाते और तुरंत मोबाइल से कवि गोष्ठी के संयोजक महोदय को ऐसे फटकारते जैसे इन्होंने उस कार्यक्रम के लिए मानों बहुत कुछ चंदा दिया हो वो भी सपने में क्योकि हकीकत में तो ये ‘चमड़ी जाये पर दमडी न जाये’ उक्ति के परम भक्त हैं मजाल है कि कोई इनसे कार्यक्रम के नाम से एक रूपए भी प्राप्त कर सकें। हाँ,कुछ संस्थाओं की वार्षिक सदस्यता शुल्क देने पर इन्हें बहुत अधिक अंदरूनी कष्ट पहँुचता था ,लेकिन ये देना उनकी मजबूरी थी वर्ना वार्षिक कार्यक्रम व कवि सम्मेलन इनकी दाल न गलती और फिर मंच पर आना असंभव हो जाता है।
हाँ, तो हम बात रहे थे जिस दिन इनकी कवि महोदय की कविताओं की लाइने नहीं छपती, ये तुरंत संयोजक को मोबाइल पर हिला देते, मानों कोई भूकंप आ गया हो। संयोजक महोदय बेचारे समझाते-समझाते थक जाते कि हमने तो आपकी लाइनें दी थीं, अब पेपरवालों ने नहीं छापा तो हम क्या करे,हो सकता है उस दिन कोई विज्ञापन मिल गया होगा और उसे छाप दिया होगा या पेपर में ज्यादा जगह नहीं होगी तो उन्होंने समाचार काटकर अपने हिसाब से कर दिया, लेकिन ‘अनपढ़ तो समझाया जा सकता है, लेकिन एक पढे लिखे मूर्ख को नहीं’ वे इतने बडे वाले मूर्ख है कि वे किसी बात को मानने को तैयार नहीं होते।
एक बार ऐसे ही एक दिन एक कवि सम्मेलन का समाचार छपा जिसमें इनकी लाइनें अदृश्य थीं, फिर क्या था इन्होंने तुरंत मुझे मोबाइल किया, क्योंकि कार्यक्रम मेरे संयोजन में हुआ था। न हेलो न हाय, सीधे धंाय-धांय और सीधे वाकयुद्ध शुरू, तुम पक्षपात करते हो,अपने को बहुत बड़ा समझते हो तुमने मेरा नाम क्यों नहीं दिया?,ऐसे ही एक अन्य छापस रोगी ने तो मुझे धमकी तक दे दी कि इस बार कुछ भी हो जाये तुम्हें संस्था का अध्यक्ष नहीं बनने देंगें। हमने भी कह दिया कि तुम भगवान नहीं आम सहमति से चुनाव होगा, अब ये बात अलग है कि इनके अलावा विरोध करने वाला दूसरा कोई नहीं है,सभी संतुष्ट है, लेकिन कहते है कि ‘खिसयाई बिल्ली खंभा ही नोंचे’ और अब यह बिल्ली बूढ़ी हो गयी है और इसकेे नाखून ही बूढ़े हो गये है लेकिन फिर भी ऐंठ नहीं गयी है। कहते है ‘रस्सी जल गयी पर ऐंठ नहीं गई’ उक्ति को चरितार्थ कर रहे है।
आज का पेपर पढ़ा हम समझ गए कि आज फिर पागलपन का छापास दौरा पड़ा हैं फिर भी हमने अनजान होते हुए कहा-नहीं, क्यों क्या बात है। वे बोले आज फिर केवल हमारी लाइने नहीं छपी है सबकी छपी है और नाम तक गोल है। (हमनेे मन ही मन में कहा कि -तुम खुद गोल हो अर्थात शून्य हो,जीरो हो, लेकिन समझते अपने को हीरो है।) मैंने उन्हें अपनी सफाई देते हुए कहा कि भई मैंने तो सभी कि लाइने दी थी, विस्वास नहीं हो तो मेरी रिपोर्ट की फोटो कापी देख लो,बात तो उनकी समझ में आ गयी कि पेपरवाले ने ही नहीं छापा है, लेकिन फिर वहीं जुमला दोहराया कि इस प्रमुख पेपर में मेरा नाम नहीं आता है। मैंने कहा भई दूसरे पेपरों में तो तुम्हारा नाम है दस पेपरों में से किसी एकाद में नहीं आया तो क्या गजब हो गया।
वे फिर तैश मे आकर बोले- अरे वाह ! कैसे नहीं हो गया। यह पेपर शहर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता हैं (हमने मन ही मन फिर बुदबुदाते हुए कहा कि इसीलिए तो आपका नाम उसने नहीं दिया वह समझदार पत्रकार है।) मैंने कहा कि- हमने तो दिया था अब अगर उसने नहीं छापा तो इसमें मेरा क्या कसूर हैं। हो सकता उसकी तुम्हारी पिछले जनम् की दुश्मनी होगी इसलिए वह इस जनम् में तुम्हें नहीं छाप कर चुका रहा है। इतना सुनना था कि उन्होंने फौरन अपना मोबाइल काट दिया हमने भी राहत ही सांस ली, सोचा चलो,पीछा छूटा।
राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
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