व्यग्ंय - ‘‘छपास को भयंकर रोग’’
(व्यंग्यकार-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’)
वैसे तो प्रत्येक कवि व साहित्यकार को छपास का रोग होता है, किन्तु कुछ टुच्चे कवियों में इसके कीटाणु अत्याधिक मात्रा में पाये जाते हैं। ऐसे छपास रोगी कवि प्रायः हर शहर हर गाँव में आपको दो-चार की संख्या में तो देखने को मिल ही जाऐंगे। ऐसे ही हमारे शहर के एक कवि महोदय को इस ‘छपास रोग’ इस कदर लग गया कि पूछों मत।
वे हर कवि गोष्ठी में आ ही जाते थे बस किसी प्रकार से पता भर चल जाये और कवि सम्मेलन में तो जुगाड़ कर धंस ही जाते थे और फ्री सेवा में अपने स्थानीय शहर तो शहर ,बाहर तक के शहरों तक में अपने वाहन सहित निःशुल्क उपलब्ध हो जाते थे। उसके बाद उन्हें छपास कीडा़ काटने लगता था और दूसरे दिन उन्हें अपना नाम समाचार पत्रों में पढ़ने का बेहद जनून पागलपन की हद तक सवार था।
कभी-कभी तो कवि सम्मेलन चल ही रहा होता है और ये अपनी कविता सुनाकर उसे तुरंत ही अपने मोबाइल से केवल सामने वाले के हाथ पाँव जोड़ के अपनी फोटो खिंचवाकर उसे फेसबुक पर उधर बैठे बैठे केवल अपनी महिमा पंिडत करते हुए फोटो डाल देते है मानों पूरे कवि सम्मेलन में केवल इन्होंने ही कविता पढ़ी हों, और तो और कार्यक्रम में कौन मुख्य अतिथि है किसने,अध्यक्षता की है इससे इनको कोई मतबल नहीं, उनका नाम तक नहीं देते है और बेचारे आयोजक-संयोजक महोदय का भी आभार प्रकट करना तो दूर उसका नाम तक नहीं देते है केवल आत्म प्रशंसा अपनी कविता की चार लाइने लिख देते है और पूरे समाचार की .......कर देते है।
कुल जमा पंूजी की अपनी वे ही दो-चार घिसीपपिटी कविता घुमाफिरा कर सुनाते और उन्हीं में से दो लाइने समाचार पत्रों में छपने को दे देते। ये वही लाइनें होती थीं जो गोल्डन जुबली,डायमंड जुबली मना चुकी होती है।
अन्य साथी कवि तो ठीक है,समाचार लिखनेवाले पत्रकारों तक को वे लाइने कंठस्थ याद हो गयी थी, इसीलिए वे इनकी लाइने यदि उस दिन पेपर में जगह खाली रही तो छाप देते थे,
वर्ना उनकी लाइनों को केवल पढ़कर की उन्हें प्रणाम करके मुक्ति दे देते थे और उनके स्थान पर दूसरे कवि की कविता की लाइनें छाप देते है।
जिस दिन समाचार में उनकी लाइने आ गयी तब तो ठीक है वर्ना उस आयोजक व संयोजक की शामत आ जाती थी ये महोदय सुबह पेपर पढ़ते ही जब अपनी लाइनें नहीं देखते तो आगबबूला हो जाते और तुरंत मोबाइल से कवि गोष्ठी के संयोजक महोदय को ऐसे फटकारते जैसे इन्होंने उस कार्यक्रम के लिए मानों बहुत कुछ चंदा दिया हो वो भी सपने में क्योकि हकीकत में तो ये ‘चमड़ी जाये पर दमडी न जाये’ उक्ति के परम भक्त हैं मजाल है कि कोई इनसे कार्यक्रम के नाम से एक रूपए भी प्राप्त कर सकें। हाँ,कुछ संस्थाओं की वार्षिक सदस्यता शुल्क देने पर इन्हें बहुत अधिक अंदरूनी कष्ट पहँुचता था ,लेकिन ये देना उनकी मजबूरी थी वर्ना वार्षिक कार्यक्रम व कवि सम्मेलन इनकी दाल न गलती और फिर मंच पर आना असंभव हो जाता है।
हाँ, तो हम बात रहे थे जिस दिन इनकी कवि महोदय की कविताओं की लाइने नहीं छपती, ये तुरंत संयोजक को मोबाइल पर हिला देते, मानों कोई भूकंप आ गया हो।
संयोजक महोदय बेचारे समझाते-समझाते थक जाते कि हमने तो आपकी लाइनें दी थीं, अब पेपरवालों ने नहीं छापा तो हम क्या करे,हो सकता है उस दिन कोई विज्ञापन मिल गया होगा और उसे छाप दिया होगा या पेपर में ज्यादा जगह नहीं होगी तो उन्होंने समाचार काटकर अपने हिसाब से कर दिया, लेकिन ‘अनपढ़ तो समझाया जा सकता है, लेकिन एक पढे लिखे मूर्ख को नहीं’ वे इतने बडे वाले मूर्ख है कि वे किसी बात को मानने को तैयार नहीं होते।
एक बार ऐसे ही एक दिन एक कवि सम्मेलन का समाचार छपा जिसमें इनकी लाइनें अदृश्य थीं, फिर क्या था इन्होंने तुरंत मुझे मोबाइल किया, क्योंकि कार्यक्रम मेरे संयोजन में हुआ था। न हेलो न हाय,
सीधे धंाय-धांय और सीधे वाकयुद्ध शुरू, तुम पक्षपात करते हो,अपने को बहुत बड़ा समझते हो तुमने मेरा नाम क्यों नहीं दिया?,
ऐसे ही एक अन्य छापस रोगी ने तो मुझे धमकी तक दे दी कि इस बार कुछ भी हो जाये तुम्हें संस्था का अध्यक्ष नहीं बनने देंगें। हमने भी कह दिया कि तुम भगवान नहीं आम सहमति से चुनाव होगा, अब ये बात अलग है कि इनके अलावा विरोध करने वाला दूसरा कोई नहीं है,सभी संतुष्ट है, लेकिन कहते है कि ‘खिसयाई बिल्ली खंभा ही नोंचे’ और अब यह बिल्ली बूढ़ी हो गयी है और इसकेे नाखून ही बूढ़े हो गये है लेकिन फिर भी ऐंठ नहीं गयी है। कहते है ‘रस्सी जल गयी पर ऐंठ नहीं गई’ उक्ति को चरितार्थ कर रहे है।
आज का पेपर पढ़ा हम समझ गए कि आज फिर पागलपन का छापास दौरा पड़ा हैं फिर भी हमने अनजान होते हुए कहा-नहीं, क्यों क्या बात है। वे बोले आज फिर केवल हमारी लाइने नहीं छपी है सबकी छपी है और नाम तक गोल है। (हमनेे मन ही मन में कहा कि -तुम खुद गोल हो अर्थात शून्य हो,जीरो हो, लेकिन समझते अपने को हीरो है।) मैंने उन्हें अपनी सफाई देते हुए कहा कि भई मैंने तो सभी कि लाइने दी थी, विस्वास नहीं हो तो मेरी रिपोर्ट की फोटो कापी देख लो,बात तो उनकी समझ में आ गयी कि पेपरवाले ने ही नहीं छापा है, लेकिन फिर वहीं जुमला दोहराया कि इस प्रमुख पेपर में मेरा नाम नहीं आता है। मैंने कहा भई दूसरे पेपरों में तो तुम्हारा नाम है दस पेपरों में से किसी एकाद में नहीं आया तो क्या गजब हो गया।
वे फिर तैश मे आकर बोले- अरे वाह ! कैसे नहीं हो गया। यह पेपर शहर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता हैं (हमने मन ही मन फिर बुदबुदाते हुए कहा कि इसीलिए तो आपका नाम उसने नहीं दिया वह समझदार पत्रकार है।) मैंने कहा कि- हमने तो दिया था अब अगर उसने नहीं छापा तो इसमें मेरा क्या कसूर हैं। हो सकता उसकी तुम्हारी पिछले जनम् की दुश्मनी होगी इसलिए वह इस जनम् में तुम्हें नहीं छाप कर चुका रहा है। इतना सुनना था कि उन्होंने फौरन अपना मोबाइल काट दिया हमने भी राहत ही सांस ली, सोचा चलो,पीछा छूटा।
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
(संपादक-‘आकांक्षा’ पत्रिका)
अध्यक्ष-म.प्र. लेखक संघ,टीकमगढ़
नई चर्च के पीछे,शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (म.प्र.).472001
(व्यंग्यकार-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’)
वैसे तो प्रत्येक कवि व साहित्यकार को छपास का रोग होता है, किन्तु कुछ टुच्चे कवियों में इसके कीटाणु अत्याधिक मात्रा में पाये जाते हैं। ऐसे छपास रोगी कवि प्रायः हर शहर हर गाँव में आपको दो-चार की संख्या में तो देखने को मिल ही जाऐंगे। ऐसे ही हमारे शहर के एक कवि महोदय को इस ‘छपास रोग’ इस कदर लग गया कि पूछों मत।
वे हर कवि गोष्ठी में आ ही जाते थे बस किसी प्रकार से पता भर चल जाये और कवि सम्मेलन में तो जुगाड़ कर धंस ही जाते थे और फ्री सेवा में अपने स्थानीय शहर तो शहर ,बाहर तक के शहरों तक में अपने वाहन सहित निःशुल्क उपलब्ध हो जाते थे। उसके बाद उन्हें छपास कीडा़ काटने लगता था और दूसरे दिन उन्हें अपना नाम समाचार पत्रों में पढ़ने का बेहद जनून पागलपन की हद तक सवार था।
कभी-कभी तो कवि सम्मेलन चल ही रहा होता है और ये अपनी कविता सुनाकर उसे तुरंत ही अपने मोबाइल से केवल सामने वाले के हाथ पाँव जोड़ के अपनी फोटो खिंचवाकर उसे फेसबुक पर उधर बैठे बैठे केवल अपनी महिमा पंिडत करते हुए फोटो डाल देते है मानों पूरे कवि सम्मेलन में केवल इन्होंने ही कविता पढ़ी हों, और तो और कार्यक्रम में कौन मुख्य अतिथि है किसने,अध्यक्षता की है इससे इनको कोई मतबल नहीं, उनका नाम तक नहीं देते है और बेचारे आयोजक-संयोजक महोदय का भी आभार प्रकट करना तो दूर उसका नाम तक नहीं देते है केवल आत्म प्रशंसा अपनी कविता की चार लाइने लिख देते है और पूरे समाचार की .......कर देते है।
कुल जमा पंूजी की अपनी वे ही दो-चार घिसीपपिटी कविता घुमाफिरा कर सुनाते और उन्हीं में से दो लाइने समाचार पत्रों में छपने को दे देते। ये वही लाइनें होती थीं जो गोल्डन जुबली,डायमंड जुबली मना चुकी होती है।
अन्य साथी कवि तो ठीक है,समाचार लिखनेवाले पत्रकारों तक को वे लाइने कंठस्थ याद हो गयी थी, इसीलिए वे इनकी लाइने यदि उस दिन पेपर में जगह खाली रही तो छाप देते थे,
वर्ना उनकी लाइनों को केवल पढ़कर की उन्हें प्रणाम करके मुक्ति दे देते थे और उनके स्थान पर दूसरे कवि की कविता की लाइनें छाप देते है।
जिस दिन समाचार में उनकी लाइने आ गयी तब तो ठीक है वर्ना उस आयोजक व संयोजक की शामत आ जाती थी ये महोदय सुबह पेपर पढ़ते ही जब अपनी लाइनें नहीं देखते तो आगबबूला हो जाते और तुरंत मोबाइल से कवि गोष्ठी के संयोजक महोदय को ऐसे फटकारते जैसे इन्होंने उस कार्यक्रम के लिए मानों बहुत कुछ चंदा दिया हो वो भी सपने में क्योकि हकीकत में तो ये ‘चमड़ी जाये पर दमडी न जाये’ उक्ति के परम भक्त हैं मजाल है कि कोई इनसे कार्यक्रम के नाम से एक रूपए भी प्राप्त कर सकें। हाँ,कुछ संस्थाओं की वार्षिक सदस्यता शुल्क देने पर इन्हें बहुत अधिक अंदरूनी कष्ट पहँुचता था ,लेकिन ये देना उनकी मजबूरी थी वर्ना वार्षिक कार्यक्रम व कवि सम्मेलन इनकी दाल न गलती और फिर मंच पर आना असंभव हो जाता है।
हाँ, तो हम बात रहे थे जिस दिन इनकी कवि महोदय की कविताओं की लाइने नहीं छपती, ये तुरंत संयोजक को मोबाइल पर हिला देते, मानों कोई भूकंप आ गया हो।
संयोजक महोदय बेचारे समझाते-समझाते थक जाते कि हमने तो आपकी लाइनें दी थीं, अब पेपरवालों ने नहीं छापा तो हम क्या करे,हो सकता है उस दिन कोई विज्ञापन मिल गया होगा और उसे छाप दिया होगा या पेपर में ज्यादा जगह नहीं होगी तो उन्होंने समाचार काटकर अपने हिसाब से कर दिया, लेकिन ‘अनपढ़ तो समझाया जा सकता है, लेकिन एक पढे लिखे मूर्ख को नहीं’ वे इतने बडे वाले मूर्ख है कि वे किसी बात को मानने को तैयार नहीं होते।
एक बार ऐसे ही एक दिन एक कवि सम्मेलन का समाचार छपा जिसमें इनकी लाइनें अदृश्य थीं, फिर क्या था इन्होंने तुरंत मुझे मोबाइल किया, क्योंकि कार्यक्रम मेरे संयोजन में हुआ था। न हेलो न हाय,
सीधे धंाय-धांय और सीधे वाकयुद्ध शुरू, तुम पक्षपात करते हो,अपने को बहुत बड़ा समझते हो तुमने मेरा नाम क्यों नहीं दिया?,
ऐसे ही एक अन्य छापस रोगी ने तो मुझे धमकी तक दे दी कि इस बार कुछ भी हो जाये तुम्हें संस्था का अध्यक्ष नहीं बनने देंगें। हमने भी कह दिया कि तुम भगवान नहीं आम सहमति से चुनाव होगा, अब ये बात अलग है कि इनके अलावा विरोध करने वाला दूसरा कोई नहीं है,सभी संतुष्ट है, लेकिन कहते है कि ‘खिसयाई बिल्ली खंभा ही नोंचे’ और अब यह बिल्ली बूढ़ी हो गयी है और इसकेे नाखून ही बूढ़े हो गये है लेकिन फिर भी ऐंठ नहीं गयी है। कहते है ‘रस्सी जल गयी पर ऐंठ नहीं गई’ उक्ति को चरितार्थ कर रहे है।
आज का पेपर पढ़ा हम समझ गए कि आज फिर पागलपन का छापास दौरा पड़ा हैं फिर भी हमने अनजान होते हुए कहा-नहीं, क्यों क्या बात है। वे बोले आज फिर केवल हमारी लाइने नहीं छपी है सबकी छपी है और नाम तक गोल है। (हमनेे मन ही मन में कहा कि -तुम खुद गोल हो अर्थात शून्य हो,जीरो हो, लेकिन समझते अपने को हीरो है।) मैंने उन्हें अपनी सफाई देते हुए कहा कि भई मैंने तो सभी कि लाइने दी थी, विस्वास नहीं हो तो मेरी रिपोर्ट की फोटो कापी देख लो,बात तो उनकी समझ में आ गयी कि पेपरवाले ने ही नहीं छापा है, लेकिन फिर वहीं जुमला दोहराया कि इस प्रमुख पेपर में मेरा नाम नहीं आता है। मैंने कहा भई दूसरे पेपरों में तो तुम्हारा नाम है दस पेपरों में से किसी एकाद में नहीं आया तो क्या गजब हो गया।
वे फिर तैश मे आकर बोले- अरे वाह ! कैसे नहीं हो गया। यह पेपर शहर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाता हैं (हमने मन ही मन फिर बुदबुदाते हुए कहा कि इसीलिए तो आपका नाम उसने नहीं दिया वह समझदार पत्रकार है।) मैंने कहा कि- हमने तो दिया था अब अगर उसने नहीं छापा तो इसमें मेरा क्या कसूर हैं। हो सकता उसकी तुम्हारी पिछले जनम् की दुश्मनी होगी इसलिए वह इस जनम् में तुम्हें नहीं छाप कर चुका रहा है। इतना सुनना था कि उन्होंने फौरन अपना मोबाइल काट दिया हमने भी राहत ही सांस ली, सोचा चलो,पीछा छूटा।
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
(संपादक-‘आकांक्षा’ पत्रिका)
अध्यक्ष-म.प्र. लेखक संघ,टीकमगढ़
नई चर्च के पीछे,शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (म.प्र.).472001
मोबाइल-9893520965
rajeev namdeo rana lidhori
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें