फ्लेप पेज-1
Bundeli viyang
1- लुक की बीमारी
हमाये इतै कछु दिनन से नये-नये कवि पैदा भये पैला से वे कविताई नई करतते पर जब सै सरकार ने उनै रिडायर्ड करदऔ तबसै वे सठिया गये और ‘सरतारौे बानिया का करे’ की कानात को अपनारये हते, सौ कोनऊ ने उनसे कै दई कि कवि बन जाओ सौ उनने कई कि कवि तो जन्मजात होत है ऐसे कैसे बन जात है? उनने कई आजकाल तौ सबई जने कवि बन जात है। वे ठलुआ तो हो गये हते सो उन्ने कोशिस करी तो कछु इताई कि कछु उताई की जोर-तोर के चार छः कवितायें बना डारी और कवि बन गये बार सफेद हते, उन्ना सोई सफेद पैर लये तना सी दाढ़ी घर लई, लो बन गये कवि। अब उने झट्टई अपनौ नाव कवियन में करवै की लुकी लुकी भई, जा एक भौत बुरई नई बीमारी पर गयी जौ उनखौ पीछो अबे लौ नई छोर रई। अब शहर में कितऊ भी कोनऊ साहित्यिक पिरोगराम या कवि सम्मेलन हुये जै साहब उतै जरूर पौच जेहे। उन्हें पैचानवे में कोनऊ परेशानी नई होत है, काइसै कै जै उतई मंच कै ऐंगरें ही लुकलुकात फिरत है। कछु नई तो तनक -तनक देर में मंच पै पौच कै मइक ठीक करन लगत है ऐसे लगत जैसे जै पिछले जनम में माइक सुधारवे के स्पेशलिष्ट भये हुये।
एक बैर का हा भओ कि शहर में एक बुन्देली पै कवि सम्मेलन हतौ अब ये लुक लुक साब तौ बुन्देली में तनकऊ नई लिख पातते, सौ उनकीे इतै कविता पढवै की दार नई गलने हती, पर का करै, मजबूरी हती सौ जै सबसे पैला की लाइन में जगां अगेज कै सबसे पैला कुर्सी पै धररये। अब साब कवि सम्मेलन चालू भओ, सो जो इनै लुकलुक की बीमारी हती ऊकौ कीरा गुलबुलान लगौ सो इनै कछु न सूजी, जै उतई से एक पैरे से पैराओ भओ गजरा ढूंढ लाये और मंच पै चढ कै ऊ समय जौन कवि पढ़ रओ हतो उखौ पैरा दओ, और तारी बजान लगे जैसे कछु जग्ग जीत लओ हो,सौ कछु लोगन ने उनके देखादेखी सोई तारी बजा दई। अब इनकी लुकलुकी तनक कम भई सो जै अपनी जागा पै आकै बैठ गयें। आदा घंटे बाद इनै फिरकै लुकलुकी उठी, सौ जै फिरकै कऊ से एक गजरा ढूंढ कै लाये और मंच पै जान लगे, सौ पछाई बैठे श्रोताओं में से कोनऊ ने जोर से कई -जौ कौ बब्बा अय। जौ भाई लुकलुकात फिररऔ, सौ बगल बारे ने कई सठिया गओ है दूसरे नै कई इतई कौ नओ-नओ कवि बनो है सौ आज ईखौ पढवे नई मिल रओ, सो फरफरात फिर रओ और गजरा डार -डार कै अपनौ मन भर रओ, एई बहाने से मंच पे जावे की लुकलुकी शांत कररओ। एकाद बेर फोटो सोई खिंच जात सौ जै ऊखौं मडवा कै अपने इतै घरे टांग लेत है और कत फिरत है कि हमने ऊके संगे कविता पडी हती वे तो हमाये मित्र है। अब फोटो देखवे वारे कौ का पतौ कि जा फोटो कैसे ख्ंिाची हती। जो बब्बा हर कवि सम्मेलन में जोई नौटंकी करत है हम तौ कई बेर देख चुके है। सबरै सुनवे वारे इन्हैं चीनन लगे है लगत है तुम नये आये हो? एई से तुमै नई मालूम।
इन साब की लुकलुक की बीमारी खौ देख के शहर भर के कवियन ने इनकौ नाव ‘लुकलुक’ कवि धर दओ। अब इन मैं एक विद्या तो जन्मजात हती सौ ऊकी दम पै और नैतन की चमचयाई करकै इतै उतै की बातें बानकै नेतन के हात पाव जोर कै कैसै भी पैसा ऐठ कै एकाध कवि गोष्ठी अपने घरे करा लई और उन्हीं नेतन खौ शाल श्रीफल सै सम्मान करदओ। शहर भर कै नेतन खौ सम्मान करकै जै अफरै नइयाँ सौ अब उनखै चमचन खौ सोई सम्मान करत जा रये। अब इतै जा सोसवे बारी बात है कि साहित्यिक गोष्ठी में नेतन कौ सम्मान करवै की का तुक है वे कुन अटल बिहारी है कि कवि है। जे तो साहित्य कौ ‘हींग कौ घगा’ तो जानत नईया और सम्मानित हो रये,जै तो बोई बात हो गई कि मूरखन कै राज मैं
‘गधा पजीरी खा रये’, लेकिन का करै चमचयाई में जो सब तो करनै पडत है। अबे तक तो जा कानात सुनी ती कि ‘मुसीबत में गधे को बाप बनालओ जात है पर अब तो पैसन के लाने जी चाये खौ कछु भी बनालो।
अबे तक तो साहित्यकार इन सबसे दूर रततै। साहित्यकारन खौ जो सब नोनो नई लगत है,साहित्यकारन की तौ स्वाभिमान,इज्जत एवं प्रशंसा ही पूंजी रत है। साहित्यकार खौ मतलब होत है जो सबको हित करे वही साहित्यकार होत है जो नई कि केवल अपनौ हित साध लओ। नेतन की चमचयाई और लुकलुक करवों अपुन साहित्यकारन कौ नोनो लई लगत है पर का करै जमानौ सोई बदल रओ है। झट्टई परसिधी पावे खौ जो शोर्टकट रास्तो है। कछुन ने ईखौं अपना लओ है।
अब लुकलुक साब खौ दो तीन साल कविताई करत भये हो गये सो उनने कवियन की कविता पढवे की नकल,मंच की अदाये सीख लई वे अब कवियन में गिने जाने लगे और स्वयं खौ शहर खौ सबसे बड़ो कवि मानन लगे। वे अपने लुकलुकावे को कोनउ मौका हात से नई जान देत है। शहर में जब कभउ कौनउ भी कवि सम्मेलन होत है और ऊ में कोनउ नओ कवि शहर में आवो तो वे एक डायरी लेके ऊखै इतै पौंच कै ऊखों नाव पतौ और मोबाइल नंबर जरूर लिख लेत है और उये जब तक पेरत रत है जब तक कि वौ इने अपने इते एक वेर नई बुला लेत है। दौबारा उतै जावे की नौबत नई आत है। वे जान जात है कि जै कितै बडे वारे है।
वे अब जब भी मंच पै जात है तो एक दो नई से उनकी लुकलुकी नई जात कम से कम छःसात कविताये तो फटकार आत है संचालक महोदय इनसे बैठवै की बिनती करत-करत थक कै गम्म खाकै बैेठ जात। यदि जै कभऊ कोनउ गोष्ठी कौ सचंालन कर रये तौ फिर उनसे भगवान भी नई बचा सकत है लुकलुक साब कि कछु कवितायें तो गोल्डन जुबली मना चुकी है फिर भी जै बडे शान से ऊ कविता खौ ऐसे सुनात जैसे पैली बेर सुना रये हो।
उनकी देखादेखी कछु कवियन खौ सोई जा लुकलुक की बीमारी लगगई है। सौ भइया इनई जैसन लुकलुकन की लुकलुकी कम करवै के लाने जौ व्युंग्य लिखौ भओ है। अब का करे जैसै कंपूटर में बाइयरस आ जात है बैसे अब साहित्य में सोई बायरस आन लगे है। यदि इनकौ इलाज नई करो गओ तो जै साहित्य खौ हेंग करके सबरौ साहित्य खौ चाट जेहे। अपुन नै तो एंटीबाइरस अपने एगर धर लओ है ताकि इनके प्रभाव से बचत रये,लेकिन फिर भी कभऊ-कभऊ इनकी चपेट में सोई आ जात है। इनकी मीठी और चापलूसी की बातन में आ जात है। सो भइयाहरौ जा लुकलक की बीमारी भौत खतरनाक है ईसै अपने खौ बचावे राखने है।
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©राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका
अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
पिनः472001 मोबाइल-9893520965
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2- "मूरख बनावे में चंट"- पेज 20-24
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राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’,टीकमगढ़ ऐसैं तो मूर्खन की कउँ कमी नईंयाँं,े एक ढूँड़ों तो तुमैं सैंकरन मिल जैहैं। फिर पने देश में तो एक से एक जितै तकोे उतै मिल जात। कछू हमाय इतै हैं तो कछू तुमाय इतैं सोइ हुइयें।
एैसौ लगत है कै जौ ‘मूरख दिवस’ सोइ एक अपै्रल कौ जैई संे मनाओ जात है। तुम पैलाँ सें कउ मूरख बन गये तौ कोनउ बात नइँयाँ। तुम पने से बडौं बारों मूरख खों तक लो। इतै सबसें बड़ी बात जा है कि ई दिना आप कोउ खों भी मूरख बनाकैं बड़े मजे से बता सकत। हमने सोई आज कोनउ कौ मूरख बनाइ दऔ। उये तुम घोषित भी कर सकत हो। वैसंे जा छूट केवल एक अपै्रल खौं मिलत है उर मजे की बात जा है कै मूरख बनवे वारों सोई पनी जा मूर्ख बनने की मूर्खता भी स्वीकार कर लेत।
जैसें मूरखन की भौत किस्में होती है,ठीक ओइतरां सें कछू ऐसे आदती सोई होत है जोन मूरख बनावें में भौत चंट होत हैं। आज के समय में मूरख बनावों सोइ एक कला है। वैसें आज के जुग में आप कोनउ दूसरे खौं आसानी सें मूरख नई बना सकत। फिर भी कछू बिशेष वरग है जोन जे काम आसानी से कर लेत। साँसी कइ जाय तौ एक अच्छे आदमी में जा मूरख बनावे की कला भओ चइए। कउँ तुमै नइँ आत तो जा जरूर सीखवो चाहिए। भई कोसस करवे में का नुकसान ?, अरे भइया, जा आज की जरूरत है, उर फिर जो दिन एक अप्रैल सोइ एइ के लाने आत है के कम सें कम आप साल भरे में एक दिना तो कोनउ खों मूरख बनाइ डारिए नइतर कछू विशेष लोग तो रोजउ कोउ न कोउ खों मूरख बनाउत रात है।
हम आपखों कछु बिशेष वरग खों चिना रय पैचान करा रय जोन मूरख बनावे में भौत चंट होत है जा यूँ कै लो कि भले ही जे अँगूठा छाप या अनपढ़ हो,लेकिन जे डबल एम.ए
होत हैं। अपुन नइँ समझ,े अरे बन्धु ‘मास्टर आॅफ मूर्ख’ की डिग्री जे पने अनुभव उर हुनर से प्राप्त कर लेत है।.
ईमें सबसें पैलाँ ,सबसें बड़ों एवं प्रभावशाली वरग है ‘
नेता वर्ग’ जो कि भोरी-भारी गाँवन की जनता कें संगे-संगे शहर के पढे़ लिखे लोगों को सोई बड़ी आसानी से पद आदि कौ लालच देकैं पने लुभावने भाषण उर झूठे चुनावी वादों के जाल में फँसाके हर बेर चुनाव में मूरख बनात आ रय। जो बड़े वारे अर्थात पक्के मूरख होत हैं या बन जात हंै उने पनी पार्टी कौ मूर्खता सदस्यता प्रमाण-पत्र सोई देत है। हाॅ, कछू टुचपंुजियों या छोटे मोटे चमचों खौं तो जे नेता सिर्फ़ भाषण में एकाध बेर नाव लैकैं उनकी झूठी प्रशंसा करकें उनें खुश कर देत। वैसे नेतन खांे जौ ‘मूरख दिवस’ एक अपै्रल खों नइँ ,बल्कि पँचवर्षीय जोजनाओं की भांति हर पाँच साल में चुनाव के समय ही आत है। कउँ-कउँ अपवाद स्वरूप दो या तीन साल में सोउ आ जात है उर भौतइ खुश किस्मत भये तो म.प्र. के मुख्यमंत्री की तराँ एक सालइ में मौका मिल जात है। जे नेता तो एक बेर (पाँच साल) में ई तराँ साल कौ कोटा पूरा कर लेत।
दूसरौ नंबर मूरख बनावे की कला में माहिर ‘
पत्नी’ कौ आत है। कउ-कउ पै अपवाद स्वरूप पत्नी कौ जो स्थान पति की अदृश्य पे्रमिका सोइ लै लेत है। पत्नी हर साल एक अपै्रल की बेराँ नइँ तकत रात वो, तो प्रत्येक मइना की एक तारीख़ खों जब ऊकै पति की तनख्वाह मिलत सोे उय हड़प कैं पति खौं मूरख बना देत। पति भी विचारौ ऊ समय जानबूँझकैं मांेगो-मोंगो रात भए हर बेर मूर्ख बन जात है। पति जा जानत है कै ऊ ने सबसें बड़ी मूर्खता तौ ओइ दिना कर दयती जी दिना उकौ व्याव भओ हतो। अब जा भीतर की बात है कै पति केवल पनी घोषित तनख्वाह ही पत्नी खों सौंपत हैं,ऊपरी कमाई तो वे भूलकै भी नईं देत, और ना ही कभउ बतात है, कि वा कितेक होत है.उल्टे उ तनख़्वाह में से पैटोªल उर चाय-पानी आदि खर्चे के पइसा माँगत । अब जा बात अलग है कै उनकी ऊपरी कमाई पनी अघोषित बीबी अर्थात पे्रमिेका खों पटावे उर उये गिफ्ट आदि देवे मेंइ हर मइने चली जात।
तीसरे नंबर पै हमाय देश के ‘
कवि’ नाव कौं विचित्र महामानव आत है। हमाँई जा सोस है कै जब धरती पै एक लाख लोग मरत हुइयें तब एक कवि कौ जन्म होत हुइये। कवि खों तौ हम मूरख बनावे में विजेता तो नई लेकिन रनर जरूर कै सकत । जितै पै नई कविता कौ जन्म भऔ नइँ कै सामने वारे की मुसीबत आ गई। अब बौ बिना सुने कउँ नइँ भग सकत। उये मूर्ख बनवे से अब कौनउँ ताकत रोक नइँ सकत।
कवि की नज़र में जौ नऔ बकरा आय और फिर कवि ई मूरख बनवे वारे बकरा खौैैं। अच्छी तरां सें हलाल करवो जानत है। जी प्रकार बलि कें बकरे खों पैलाँ खूब माल ख्वा पिया कैं मोटो करो जात है ठीक उ तरां से कवि सोई पने बकरे कौ मूरख बनावे सें पैला अच्छी तरां से मींठी-मींठी बातन में या फिर चाय-नाश्ते आदि को चारौ डारके फाँस लेत उर फिर हो जात है जा कत भए शुरू कि हमने अबइ एक ताजी नइ कविता रची, एक बेर तनक सी सुन तो लो,फिर बताइयो कैसी लगी। जब वो इ मरियल सी कविता सुनकैं कछू नइँ कत या फिर बोर हो जात है तो कवि तुरतइ समझ जात है कि अबै ई खौं मज़ा नइँ आव उर फिर तो वो नान स्टाप शुरू हो जात है। 6-7 कविताएँ तो एक साँस में सुना देत। विेचारौ बकरा समझ जात है कै आज वो कितै फस गओ है। कवि एक घंटे तो सामान्य अवस्था में इ सबको मूरख बना सकत है उर यदि कउं डायरी संगे भइ तो समझो कि हो गओ काम.कभउ-कभउ तो पूरे तीन घंटे की फिल्म भी कबें पूरी हो जात है पतौ नइँ चलत।
चौथौ स्थान मूरख बनावे में आज के समय के ‘
माससाब’ जू कौ आत है,जो कि पने छात्रन खों मूरख बनावे में कभउ पीछे नइँ रत। एक तो माससाब जू कभउ पीरियड पढ़़ावे इस्कूलई नइँ जात, कजन कि दार कभउँ चले गये तो, कक्षा में नइँ जात, उर कउँ धोखे सें चले सोई गए तो पढावे के इस्थान पर वे उल्टे उनें ही डरा देत हैं कि का तुम इन मोटे-मोटे ग्रन्थन को साल भरे में एक बेर सोउ सबरौ बाच ले हो? ,हमाइ मानो तो परीक्षा के समय कोनउ सीरीज से पढ़ लइओ पास हो जेहो,ं नइँ तर कजन इन ग्रन्थन के भरोसे रय तोपंचवर्षीय योजना में नई निकर पैव। लरकन खों सोइ माससाब जू की बात सासी लगत है।वे सोउ अब पीरियड गोल करके क्रिकेट आदि के खेलवे में मस्त रत है सोउ पने माससाब जू खों मूरख बनावे कौ प्रयास करत रत हैं। अब जौ तो रिजल्ट के दिनइ पतौ चलत कै कीने कियेे कितैक मूरख बनाव।
पाँचवे नंबर पे हमाय देश के सबइ ‘
टी.व्ही.चैनल’ आत है जो कै एक साल तक एक अपै्रल कौं इंतजा़र नहीं करत। वे तो पने देखके बारन खों हर पाँच मिनिट में मूरख बनात रत,उर काफ़ी हद तक सफल सोइ हो जात उर अब तो वे लगातार नीचे एक-दो पट्टी में बिना समय गँवाए ही दर्शकों कौ हर पल मूरख बनात रत हैं।
जे चैनल तिल कौ ताड़ बनावे के भौतइ चंट होत है। जाहिर सी बात है कि जे हर पाँच मिनिट में प्रोग्राम के ब्रेक में थोक के भाव में इतेक विज्ञापन दिखात हैं कै मैं तो अपनी पत्नी से इतेक देर में पने लाने चाय तक बड़े आराम से बनवा लेत फिर भी विज्ञापन खतम नईं होत।
कछू वरग विशेष सोउ होत है जो कै पने-पने स्तर तक लोगन खौं हर समय मूरख बनावे में लगे रात कायकै उनमें भी कछू प्रतिशत मूरख बनावे वारे वायरस मौजूद होत। भाई साँसी पूछीं जाय, तो आज अपन ने सोउ आपखों मूरख बनाइ डारो,कायसें कै हमें तो संपादक जू ने मूरख दिवस पै एक व्यंग्य लिखवे खों कई हती सो मैंने तौ आपको जो व्यंग्य पढ़ा कै मूरख बनाइ डारो। अब आप कितेक बडे़ वारे है जा तो आप पैइ निर्भर करत है कायसें कै मूरख बनवे के कीटाणु तौ सबइ जनन में तनक-मनक होत है।
अंत में पनी इन दो पंक्तियों से व्यंग्य समाप्त कर रय है कि-
मूरख हमसे वे कहंे, खुद मूरख अज्ञानी।
व्यंग्य हमाऔ जो पढ़कै, पाठक माँगे पानी।।
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राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
संपादक ‘आकांक्षा’ पत्रिका अध्यक्ष-म.प्र लेखक संघ,टीकमगढ़
महामंत्री-अ.भा.बुन्देलखण्ड साहित्य एवं संस्कृति परिषद
शिवनगर कालौनी,टीकमगढ़ (म.प्र.)
पिनः472001 मोबाइल-9893520965
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(21) बुन्देली
व्यंग्य- ‘‘आदमी में आदमी पैदा करो’’ -राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
कौनउ गीतकार ने भौत पैला एक गीत लिखौ तौ, उके बोल हते ‘‘आदमी में आदमी पैदा करो’ पतौ नइँ काय हमें उनकै इ गीत कों जौ मुखड़ा तनक सौ भी नइ भाओ उर मन में भौत दिनन से खटक रऔतौ। एक दिना हमाय दिमाग कौ कीरा कछू जादइ कुलबुलान लगौ तो हमने पने दिमाग के घुरबा दौराये उर फिर सोचो कै ‘आदमी में आदमी कैसे पैदा हो सकत है, जा तो प्रकृति के विरुद्ध काम भओ। हम कोनउ भगवान थोड़ेइ आय जो कउँ से भी कछू भी पैदा कर सकत।
हमाय दिमाग ने कइ कै आदमी में आदमी तो कोनउ भी कंडीशन में पैदा नइँ हो सकत, हाँ, लेकिन आदमी में आदमीयत जरूर पैदा करी जा सकत या उए दूसरी भाषा मैं इंसानियत कइ जा सकत है, वा पैदा करी जा सकत है, पै आदमी में आदमी कभउँ पैदा नइँ करो जा सकत है। इंसानियत तो ई युग में आदमी के ऐंगरें आय ही नइँ वो अब आदमी के ऐगरें से ट्रांसफर होकै जानवरन के ऐंगरे पौच गयी उर जानवरन की जानवरत आदतें आदमी ने अपना लयी।
भई परिवर्तन तो प्रकृति कौ नियम है उर आदमी में निरंतर रोजउ नये परिवर्तन हो रय, तो आदमीयत में भी परिवर्तन होवों स्वाभाविक है। हमाइ समझ मे उ लाइन कौ अर्थ आज तक लो नइ आव कै आदमी में आदमी कैसे पैदा हो सकत है। सोसवे उर समझवे वारी बात आय कै जब आप उए आलरेडी पैला सेंइ आदमी कै रय है, तो वो तो आदमी होइ गब,अब ऊ कौ दौबारा आदमी कैबे की का जरूरत का ऊकौ डबल रोल थोऱे करो जा सकत है।
जा तौ कोनउ बात नइँ भई जा कोनउ फिलम् थोड़इ आय जो कछु कै दो, तो वो हो जैहै उर हम मान लेंहैं। ऐसे तो कोउ जा सोउ कै सकत कि कुत्ता में कुत्ता पैदा करो या बंदरा में बंदरा पैदा करो।
जो पैला सेंइ मौजूद होय, उऐ फिर से पैदा करवे में तुले रयँ। कमाल है, वैसे भी भारत बढ़ती जनसंख्या के कारण भौत परेशान उर हैंरान है उर आप कै रय कै आदमी में आदमी पैदा करो आदमियों की उर लाइन लगानें का?
अरे भईयाँ विज्ञान कौ युग आय कजन कैनइ हतौ तो कते कै आदमी में औरत पैदा करो तो कछू नऔ लगतौ। ऐसौ लगतौ कै कछू डिफरेंट अनोखौ आइटम तैयार करवे के लाने कै रय या कते कै आदमी में कुत्ता पैदा करो तो लगतौ कै कवि ने भौत दूर की सोसी ऊकी कल्पना की उड़ान भौतइ ऊँची है।
सोसवे कौ तो कोउ भी कछू भी सोच सकत, सोचवे पे कोउ टैक्स थोड़ेइ लगत, सबको सोचवे कौ अधिकार है, पै सोचवे की दिशा सइँ होवै चाइये, तबइँ उनकौ सोचवौ सार्थक मानो जैहै। वर्ना हम जैसे छोटे मोटे कवि रूपी एंटीवाइरस तो कउ सें भी पनी सोस कौ कमाल दिखा सकत।
तो भाइयो हमाव तो सिर्फ इतैकइ कैवो है कै कछू ऐसौ लिखो जीकौ सीदौ सादो अर्थ निकरै हम जैसन खों ऊकौ अनर्थ न निकारना परे, ईसंे हमाओ तो बस इतैकइ कैबो है कै आदमी में आदमी पैदा मत करो बल्कि आदमी में आदमीयत पैदा करो जौ कि करी जा सकत है।
ऐसेइ कछू नये भये कवि पने कौं महाकवि मानबे कौ भरम पाल बैठे, लेकिन उनकी कविताई या तुकबंदी उनें सबसे बड़ों मूरख खुदइ सिद्ध कर देत, ऐसे एक बडे कवि जो खुद खों अन्तराष्ट्रीय कवि मानत, भलेइ वे म.प्र. के बाहर दूसरे प्रदेश में लो अबै तक लो नइ गये हौ, पै मानवें में का जा रओ,लोग तो मेट्रिक पास होके भी पने कौ डाॅ. मानन लगत है। अपने चमचन से कुआब रात फिर खुदइ लिखत रात। जे कवि एक रचना में ‘दिया’ खों नभ की मुडेर पै धर देत है,हमने कई हे महाकवि, नभ की मुुंडेर नइ होत, हाँ छत की जरूर होत है। पै कइ जात है कै लाबर बडांे कै दोंदा। सो वे मानतइ नइयाँ। हमने कइ एक बेर हमें सोउ लुबा चलियो हमें भी नभ की मुडेर पै दिया धरने। सो जो हाल है इन तथाकथित स्वंभू महाकवियन कौ।
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©व्यंग्यकार- राजीव नामदेव "राना लिधौरी"
अध्यक्ष म.प्र.लेखक संघ
संपादक आकांक्षा पत्रिका
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (म.प्र.)
मोबाइल- 9893520965 समीक्षा (1)
‘लुक लुक की बीमारी’पुस्तक समीक्षा-
(बुंदेली गद्य व्यंग्य संग्रह)
व्यंग्यकार-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
समीक्षक- डाॅ.कामिनी (सेवढ़ा)
पृष्ठ-130, सहयोग राशि सजिल्द-450रु.
समय से संवाद करता ‘लुक लुक की बीमारी’ व्यंग्य संग्रह--डाॅ कामिनी
संत प्रवर रविशंकर महाराज की जन्मभूमि बुंदेलखण्ड की पावन धरा पर एक गाँव लिधौरा जिला टीकमगढ़ (म.प्र.) में एक ऐसी प्रतिभा का उदय हुआ जिसने साहित्य एवं पत्रकारिता में अपनी पहचान बनाई है। वह नाम है-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’। अपने गाँव की अस्मिता को अपने नाम के साथ जोड़कर अपनी जन्मभूमि के प्रति अनुराग प्रकट किया है। बुंदेली माटी की खुश्बू उनके साहित्य में समावेशित है।
राजीव जी का ताजा-तरीन बुंदेली गद्य व्यंग्य संग्रह ‘लुक लुक की बीमारी’ 29 रंग-बिरंगे गुलदस्ते के रूप में पाठकों के सम्मुख आया है। गद्य-पद्य की विद्याओं में बुंदेली हाइकू संग्रह, संस्मरण, क्षणिकायें, ग़ज़ल़ दोहे आदि पर लेखक का समान अधिकारी है। व्यंग्य हिन्दी गद्य की एक रोचक विद्या है। व्यंग्य लिखना आसान काम नहीं है। जैसे किसी चट्टान को काटकर रास्ता बनाया जाय। परिस्थिति और घटना को समझकर ही व्यंग्य लिखा जाता है। व्यंग्य हँसाता है, रुलाता भी है। भीतर के दर्द को उद्घाटित करता है। वह फूल की तरह कोमल है और काँटे की तरह चुभ्ंान पैदा करने वाली भी। व्यंग्य-लेखक अपने आप में एक क्रियाशक्ति है जो लेखक के द्वन्द को उजागर करती है।
व्यंग्य का मतलब है, खुल जायें झपकियाँ। व्यंग्कार के समक्ष यह चुनौती होती है कि वह अपने शब्दों और विचारों के माध्यम से समाज की जीती जागती तस्वीर पेश करे। इस दृष्टि से राजीव जी का व्यंग्य संग्रह समय से संवाद करता हुआ दिखाई देता है। जो यथार्थ से परिचित कराता हैं और सामाजिक बदलाव के प्रति सचेत करता है। व्यंग्यों में खुरदरी धरती की सौंधी सुगंध है। जहाँ कसक भरी ज़िन्दगी भी ठसक भरी लती है। व्यंग्य आंदोलित करते हैं। स्वस्थ मनोरंजन करते हुए है। इन व्यंग्यों में मूल्यों के प्रति आस्था हैं सन्नाटे में अलाव जलाने की कोशिश। असंतोष को प्रतिफलन का फलन प्रदान करते हुए संवाद आहत और हतप्रभ करने की ताकत रखते हैं। व्यंग्य की धार तिलमिलाहट पैदा करने में समर्थ है। भाषा में प्रवाह है, अतंतः अपनी बात कह देने की छटपटाहट है। गुदगुदाते भी है व्ंयग्य। समाज की विद्रुपताओं और विसंगतियों पर चोट करते हैं। चिंटी सी काटने लगती है पढ़कर। नैतिकता का इतना हृास। अनेक विरोधाभास खवाल-जबाब करते हुए।
‘लुक लुक करना’ बुंदेली शब्द है। एक मुहावरा बन गया है। लुक-लुक से ‘लुक्का’ बन गया और यह हीनताबोधक ‘गाली’ जैसे रुप में भी प्रयुक्त होने लगा। ‘लुक-लुक’ करना याने अपने आप को प्रदर्शित करना। हल्कापन। कुठा का सूचक। कुंठित व्यक्ति इस मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो जाता है। आत्म मुग्धता, आत्म प्रशंसा व्यक्ति के चरित्र को कमजोर बनाते हैं। यही बातें व्यंग्यकार को आँसती हैं, वह बेचैंन हो उठता है, कुछ कहने के लिए और बन जाती है व्यंग्य-निबंधों की यह पोथी। लेखक इस बीमारी का इलाज शब्दों के हथौड़े से करता है। कवि मुकुट बिहारी सरोज के शब्दों में-‘यह फोड़ा नासूरी है, इसकी चीरफाड़ करना अब तो मजबूरी है। ‘मवाद’ बाहर निकालकर स्वस्थ करने की चिंता लेखक को है।
मुहावरों और कहावतों का सुंदर संयोजन है। जैसे-‘‘दार नईं गलने हती’’, ‘‘कीरा कुलबुलान लगौ’’, ‘‘हींग कौ हंगा’’, ‘‘मुसीबत में गधा खों बाप बना लऔ जात’’, ‘‘दूद के धुबे’’, ‘‘साँपन खों कितेकऊ दूद पिबाओ बे उगले बिषई’’, ‘‘बाप-बेटा बराती सास-बहू गौरैयाँ’’, ‘‘खटिया खड़ी हो गई’’, ‘‘फूल के कुप्पा हो गये’’, ‘‘गुरु के गुरु निकरे’’ ,‘‘बुकरा की की मताई कबलौ खैर मनाहे’’, ‘‘लबरा बडा़ै कै दोंदा’’, आदि सुंदरता बढ़ाते हैं और अर्थद्योतक क्षमता को सशक्त बनाते हैं। साथ ही अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग बात को वज़नदार बनाने में सहायक हैं। साहित्यकार और नेताओं के चरित्र को उजागर किया गया है व्यंग्यों में। ‘साहित्य के वटवृक्षों’ को ‘लुक लुक की बीमारी’ है। देखा भाला यथार्थ ‘साहित्य के अजगरों’’ का जो कुंडली मार कर बैठे हुए है। वटवृक्ष छोटे पौधों को पनपने नहीं देता। उन्हें ‘छपास का भयंकर रोग’ है। ‘एक नये मंचीय कवि’ की गाथा है। ‘आंदरे कवि के हात में अध्यक्षता की बटेर’’ लग गई है। ‘मास्साब बेचारौ काम कौ मारौ’ की व्यथा-कथा है। ‘हम हैं जे.एच.डी.’ याने झोलाछाप डाॅक्टर की पोल खोली गई। ‘नोटबंदी बनाम कारे धन वालों की नसबंदी’ की वेदना है- ‘‘जमाखोरन की हवा बंदी भी हो गई उर उनके जेलबंदी की तैयारी सोउ चल रई। कछू जने पकरे सोउ गये और मुलकन की हवाबंद हैं।’’
लेखक हर ख़बर से बाख़बर है। ‘सेल्फी सनकी जी’ नई पीढ़ी के लिए चेतावनी है। ‘कलयुगी नेताओं के प्रति आक्रोश है। ‘भूत को मोबाइल नम्बर’ भी कमतर नहीं है। ‘कवि कौ पत्नी खों प्रेम पत्र’ गुदगुदाता है। ‘लक्ष्मी जू कौ इन्टव्यू’-भ्रष्टाचार का पर्दाफाश करता है। ‘पंिड़त जू कौ कुम्भ स्नान’,हमऔ चार इंच कौ नौ’, ‘नोट पे चोट’ ,‘इंतजार कौ मजा’’, ‘आधुनिक शब्दकोश’, ‘आदमी में आदमी पैदा करो’ व्यंग्य सोचने के लिए विवश करते हैं। ‘हिन्दी के नाँव अंग्रेजी में’ तथा ‘हमाओ पैलो प्यार अद्भुत है। ‘खाट की बाट’ में मुहावरों का चमत्कार है। कुल मिलाकर ऐसा लगता है कि बुदेली पातर में समूदी रोटी परोसी गई है। जिसका स्वाद ही अलग है।
‘अनपढ़ कों समझाओ जा सकत लेकिन पढ़े लिखे मूरख को नईं’, ‘न हैलो न हाय सीधे धाँय-धाँय’ और सीधे वाकयुद्ध शुरू, ‘अरे भाई साहित्यकार की फोटो है। कोउ मामूली आदमी की नइयाँ, बा भी ऊकी जौ अपने-आप खों अन्तर राष्ट्रीय कवि मानबे की भौत बड़ी गलतफहमी में जी रऔ।’ ऐसे अनेक उद्धरण व्यंग्यों को धारदार बनाने में सहायक है। ‘लुक लुक की बीमारी’ शीर्षक आकर्षित करता है। और इस संग्रह का प्रतिनिधि व्ंयग्य है- ‘‘ तनक देर में इनै फिरकै लुक लुकी उठी। सो पछांई बैठे श्रोताओं में से कोनउ ने जोर से कई- जो बब्बा को आय? दूसरे ने कई इतइ कौ नओ-नओ कवि बनो है सो आज ईखों पढ़बे नईं मिल रआ, सो फरफरात फिर रऔ और गजरा डार-डार कें अपनों मन भर रऔ। एई बहानें मंच पै जाबे की लुक लुकी शांत कर रऔ।’’
ऐसी स्थितियाँ हास्य के साथ लेखक के भीतर की पीड़ा को अभिव्यक्त करती हैं। भविष्य में सुधार का संदेश देती हैं। लेखक का प्रयास प्रशंसनीय है। आवरण पृष्ठ आकर्षक है। मुझे विश्वास है, पाठकों द्वारा पुस्तक का स्वागत किया जायेगा। मंगल कामनाएँं और बधाई।
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-डाॅ. कामिनी
पूर्व प्राचार्य
शासकीय गोविंद महाविद्यालय सेंवढ़ा
जिला-दतिया (म.प्र.) 475682
मोबाइल-09893878713
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समीक्षा(2) -
राना लिधौरी की पुस्तक‘लुक लुक की बीमारी’ की समीक्षा गोष्ठी हुई Date 15-6-2018टीकमगढ़// ताल दरवाजा स्थित सर्वोदय सदन में नगर के ख्यातिप्राप्त साहित्यकार राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’ का बहुचर्चित बुन्देली संग्रह ‘लुक लुक की बीमारी’ पर केन्द्रित समीक्षा गोष्ठी आयोजित की गयी। जिसकी अध्यक्षता पं.श्री हरिविष्णु अवस्थी ने की मुख्य अतिथि के रूप में श्री फूलचंद जैन एवं विशिष्ट अतिथि वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री रामस्वरूप दीक्षित रहे। व्यंग्यकार अजीत श्रीवास्तव एडवोकेट ने
समीक्षा करते हए कहा कि ‘‘तीखी गंध की पोथी है ‘लुक लुक की बीमारी’, दो पै नौ उन्नतीस व्यंग्य की रचनाएं ई में परोसी गई है पढ़वे वारन खों मिर्ची,कवियन खों चिरपरी सी लगने, काय से राना जू नै ऐंन तान कें सबई की टेड़ेपन पै खिंचाई करी। हमाय जान तौ पैली बार बुन्देली मैं व्यंग्य की ऐसी नौनी पोथी कढी है। इनमें व्यंग्य की व्याकरण के सबरे रूप स्वरूप आ गये।’’
श्री आर एस शर्मा ने कहा कि- ‘‘पुस्तक का मुख्य पृष्ठ, साज सज्जा बिषयों का चयन और उनका संक्षिप्तीकरण तथा क्रमबद्धता लेखक राना लिधौरी की परिपक्वता को दर्शाता है व्यंग्य ‘जे.एच.डी.’ में लेखक ने लिखा है कि-‘आजकल हरेक शहरन मे पी.एच डी से दूनी संख्या में जे एच.डी अर्थात झोला झाप है डाॅक्टर मिल जाते है। कछु साहित्यकार सरकारी नौकरी से सेवानिवृत होवे पै अचानक अपने नाव के अगाउ डाॅक्टर लिखन लगे है। भलेइ वे मैट्रिक पास हो।’ भौत नोनो व्यंग्य है।’’
सियाराम अहिरवार ने कई कै-‘‘इन व्यंग्य में चुटीनेपन के संगे-सेंगे सरलता और सुभाविकता सोउ है काये कै इनके बनावटीपन निठुँअई नईयाँ इनकी जा कोसिस एक नोंने व्यंगकार की नाई इनै स्थापत करत है।’’
‘‘लुक लुक की बीमारी’ व्यंग्य में उन कवियन की औकात दिखा दई जा आत्म मंच देख के कविता पढ़वे उर मंच पे चढ़वे के लाने फरफरान लगत है और जुगाड,चमचियाई से मंच पे पौच जाउत है।’’
विजय मेहरा लाइब्ररेरियन ने समीक्षा करते हुए कहा कि-‘‘राना लिधौरी की का यह व्यंग्य संग्रह बुन्देली की अनुपम कृति है जिसमें भौत नौने और तीखे प्रहार करने वाले व्यंग्य है। कलम की धार बहुत तेज है।’’
वरिष्ठ व्यंग्यकार रामगोपाल रैकवार ने कहा कि-‘‘ पुस्तक में व्यंग्य बहुत बढिया जो कि हकीकत को ब्यां करते है। पुस्तक के अनेक व्यंग्य देश की ख्यातिप्राप्त पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके है।
वरिष्ठ व्यंग्यकार राम स्वरूप दीक्षित ने कहा कि-‘‘व्यंग्य वहीे है तो अंदर तक चोट करता है राना लिधौरी का इस पुस्तक के माध्यम से बुन्देली में व्यंग्य लिखने का प्रयास बधाई के काबिल है।’’
इनके अलावा पं.हरिविष्णु अवस्थी फूलचन्द्र जैन,दीनदयाल तिवारी, रविन्द्र यादव,परमेश्वरीदस तिवारी,मनोरमा शर्मा ने भी अपने विचार रखे, इस अवसर पर आरएस शर्मा एवं रविन्द्र यादव ने शाल श्रीफल एवं स्मृति चिह्न देकर राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी का सम्मान किया। कार्यक्रम का संचालन वीरेन्द्र चंसौरिया ने किया तथा सभी का आभार आर.एस शर्मा ने माना।
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