बुन्देली व्यंग्य- ‘‘आदमी में आदमी पैदा करो’’
-राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
कौनउ गीतकार ने भौत पैला एक गीत लिखौ तौ, उके बोल हते ‘‘आदमी में आदमी पैदा करो’ पतौ नइँ काय हमें उनकै इ गीत कों जौ मुखड़ा तनक सौ भी नइ भाओ उर मन में भौत दिनन से खटक रऔतौ। एक दिना हमाय दिमाग कौ कीरा कछू जादइ कुलबुलान लगौ तो हमने पने दिमाग के घुरबा दौराये उर फिर सोचो कै ‘आदमी में आदमी कैसे पैदा हो सकत है, जा तो प्रकृति के विरुद्ध काम भओ। हम कोनउ भगवान थोड़ेइ आय जो कउँ से भी कछू भी पैदा कर सकत।
हमाय दिमाग ने कइ कै आदमी में आदमी तो कोनउ भी कंडीशन में पैदा नइँ हो सकत, हाँ, लेकिन आदमी में आदमीयत जरूर पैदा करी जा सकत या उए दूसरी भाषा मैं इंसानियत कइ जा सकत है, वा पैदा करी जा सकत है, पै आदमी में आदमी कभउँ पैदा नइँ करो जा सकत है। इंसानियत तो ई युग में आदमी के ऐंगरें आय ही नइँ वो अब आदमी के ऐगरें से ट्रांसफर होकै जानवरन के ऐंगरे पौच गयी उर जानवरन की जानवरत आदतें आदमी ने अपना लयी।
भई परिवर्तन तो प्रकृति कौ नियम है उर आदमी में निरंतर रोजउ नये परिवर्तन हो रय, तो आदमीयत में भी परिवर्तन होवों स्वाभाविक है। हमाइ समझ मे उ लाइन कौ अर्थ आज तक लो नइ आव कै आदमी में आदमी कैसे पैदा हो सकत है। सोसवे उर समझवे वारी बात आय कै जब आप उए आलरेडी पैला सेंइ आदमी कै रय है, तो वो तो आदमी होइ गब,अब ऊ कौ दौबारा आदमी कैबे की का जरूरत का ऊकौ डबल रोल थोऱे करो जा सकत है।
जा तौ कोनउ बात नइँ भई जा कोनउ फिलम् थोड़इ आय जो कछु कै दो, तो वो हो जैहै उर हम मान लेंहैं। ऐसे तो कोउ जा सोउ कै सकत कि कुत्ता में कुत्ता पैदा करो या बंदरा में बंदरा पैदा करो।
जो पैला सेंइ मौजूद होय, उऐ फिर से पैदा करवे में तुले रयँ। कमाल है, वैसे भी भारत बढ़ती जनसंख्या के कारण भौत परेशान उर हैंरान है उर आप कै रय कै आदमी में आदमी पैदा करो आदमियों की उर लाइन लगानें का?
अरे भईयाँ विज्ञान कौ युग आय कजन कैनइ हतौ तो कते कै आदमी में औरत पैदा करो तो कछू नऔ लगतौ। ऐसौ लगतौ कै कछू डिफरेंट अनोखौ आइटम तैयार करवे के लाने कै रय या कते कै आदमी में कुत्ता पैदा करो तो लगतौ कै कवि ने भौत दूर की सोसी ऊकी कल्पना की उड़ान भौतइ ऊँची है।
सोसवे कौ तो कोउ भी कछू भी सोच सकत, सोचवे पे कोउ टैक्स थोड़ेइ लगत, सबको सोचवे कौ अधिकार है, पै सोचवे की दिशा सइँ होवै चाइये, तबइँ उनकौ सोचवौ सार्थक मानो जैहै। वर्ना हम जैसे छोटे मोटे कवि रूपी एंटीवाइरस तो कउ सें भी पनी सोस कौ कमाल दिखा सकत।
तो भाइयो हमाव तो सिर्फ इतैकइ कैवो है कै कछू ऐसौ लिखो जीकौ सीदौ सादो अर्थ निकरै हम जैसन खों ऊकौ अनर्थ न निकारना परे, ईसंे हमाओ तो बस इतैकइ कैबो है कै आदमी में आदमी पैदा मत करो बल्कि आदमी में आदमीयत पैदा करो जौ कि करी जा सकत है।
ऐसेइ कछू नये भये कवि पने कौं महाकवि मानबे कौ भरम पाल बैठे, लेकिन उनकी कविताई या तुकबंदी उनें सबसे बड़ों मूरख खुदइ सिद्ध कर देत, ऐसे एक बडे कवि जो खुद खों अन्तराष्ट्रीय कवि मानत, भलेइ वे म.प्र. के बाहर दूसरे प्रदेश में लो अबै तक लो नइ गये हौ, पै मानवें में का जा रओ,लोग तो मेट्रिक पास होके भी पने कौ डाॅ. मानन लगत है। अपने चमचन से कुआब रात फिर खुदइ लिखत रात। जे कवि एक रचना में ‘दिया’ खों नभ की मुडेर पै धर देत है,हमने कई हे महाकवि, नभ की मुुंडेर नइ होत, हाँ छत की जरूर होत है। पै कइ जात है कै लाबर बडांे कै दोंदा। सो वे मानतइ नइयाँ। हमने कइ एक बेर हमें सोउ लुबा चलियो हमें भी नभ की मुडेर पै दिया धरने। सो जो हाल है इन तथाकथित स्वंभू महाकवियन कौ।
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©व्यंग्यकार- राजीव नामदेव "राना लिधौरी"
अध्यक्ष म.प्र.लेखक संघ
संपादक आकांक्षा पत्रिका
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (म.प्र.)
मोबाइल- 9893520965
3 टिप्पणियां:
बहुत बढिया राजीव जी .....
धन्यवाद श्री रंजन जी, शुक्रिया
Very interesting
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