Rajeev Namdeo Rana lidhorI

शुक्रवार, 11 जून 2021

व्यंग्य- गरिष्ठ साहित्यकार- राजीव नामदेव 'राना लिधौरी', टीकमगढ़ (मप्र)

व्यंग्य:- ‘‘गरिष्ठ साहित्यकार’’*

             चौंके नहीं मैंने ‘गरिष्ठ’ ही लिखा है। साहित्यकारों की यह एक नई किस्म है जो कि तेजी पाँव पसार रही है। जैसे हर चीज कि अनेक किस्में बनाकर ऊपर वाले ने धरती पर भेजा हैं अब किसे क्या पसंद है और किसके क्या फायदे और नुकसान है यह उनकी गुण-औगुण पर निर्भर करता है।
                हम यहाँ साहित्यकारों की वेराइटी बता रहे थे। साहित्यकारों की एक दिव्य दृष्टिकोण से तीन प्रमुख किस्में भारत में पायी जाती हैं। 
              पहली किस्म है ‘कनिष्ठ साहित्यकार’’ इस प्रकार की किस्में धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है क्योंकि कोई भी साहित्यकार अपने आप को कनिष्ठ नहीं कहलवाना चाहता हैं।  जैसे कि इसके नाम से ही प्रदर्शित होता है कि यह छोटे साहित्यकार के लिए प्रयुक्त किया जाता है और छोटा तो आज कोई अपने को कभी मानता ही नहीं वे बात और है कि कोई वरिष्ठ साहित्यकार उन्हें हमेशा कनिष्ठ प्रदर्शित करने के एक भी मौका नहीं चूकता है। ‘कनिष्ठ’ शब्द शासकीय सेवा में आफिस आदि में बाबू जी के लिए बहुधा प्रयुक्त किया जाता था जो कि केवल उसके पद को ही दर्शता है बाकी उन्हें लोग खुशामद करने के लिए साहब तक बोल कर उन्हें खुश करके अपना काम निकालने में लगे होते है,लेकिन बाबू भी बहुत घाघ होते हैं वो सिर्फ पैसों की भाषा और शब्द पहचानते हैं। बिना पैसों के उनके कानों में जूँ तक नहीं रेगंती और हाथ को लकवा मारा रहता है। फाइल का वजन बिना पैसें के नहीं उठा पाते।
                      साहित्यकारों की दूसरी किस्म ‘वरिष्ठ साहित्यकार’ होती है। भले ही दो चार-कविताएँ ही लिखी हो एवं उम्र का अर्द्धशतक भी पूरा न किया हो लेकिन स्वयं को वरिष्ठ कहलवाने की कोशिश में हरदम लगे रहते हैं। वरिष्ठ संबोधन के लिए ये उपस्थिति रजिस्टर में स्वयं ही अपने नाम के आगे वरिष्ठ लिख लेते है। 
                  कभी-कभी कवि गोष्ठी में सौभाग्य से उम्र में इनसे वरिष्ठ साहित्यकार उस समय उपथित नहीं रहा तो ये मंचासीन होने का सुख भी भोग लेते हैं। कभी-कभी तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूट जाता है और ये अध्यक्षता भी कर लेते है। बस फिर तो इन्हें एक प्रकार के वरिष्ठ होने की मोहर लग जाती है क्योंकि गोष्ठियों में प्रायः वरिष्ठों को भी अध्यक्ष बनाया जाता है। 
            संचालन करने वाले इन्हें वरिष्ठ कह-कह कर चने के पौधे पर चढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ते और फिर ये आत्ममुग्धा और आत्मप्रशंसा के ओवरडोज से गरिष्ठ होने लगते है।
           साहित्यकारों की तीसरी किस्म ‘गरिष्ठ साहित्यकार’ है। इस प्रकार के साहित्यकार वरिष्ठ से कब गरिष्ठ होने लगते हैं इसका उन्हें स्वयं ही पता नहीं चल पता। इस गुप्त सूत्र को केवल आयोजन और संचालक ही फौरन पहचान लेते है। गरिष्ठ साहित्यकारों को अपने ज्ञान का अजीर्ण होने लगता है। जैसे अधिक खाने से हाजमा खराब हो जाता है ठीक वैसे ही इनका अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर दिमाग खराब होने लगता हैं और फिर ये ऊँटपटाँग भाषण देने लगते है और अपने से वरिष्ठ बुद्धिमान साहित्यकार को भी कुछ नहीं समझते और उससे किसी विषय पर उलझ कर स्वंय को उससे बड़ा ज्ञानी सिद्ध करने में लगे रहते है। 
             जब वे उस बड़े साहित्यकार को कुछ नहीं बिगाड़ पाते तो ‘खिसियाई बिल्ली खंभा नोचें’ की तर्ज पर अपना अधकचरा, अजीर्ण  और बेतुका अज्ञान सोशल मीडिया पर पोस्ट करके साहित्यिक कचरा डालते रहते है और विष वमन करते रहते है। ये बात और है कि उनके इस अधपचा साहित्य को उनके कुछ विशेष चमचे हाँ में हाँ मिलते हुए हजम करते रहते है और जब भी मौका मिलता है तो उनके बुढ़ाने में गरिष्ठ होने का लाभ भी उठाने से नहीं चूकते।
                ये गरिष्ठ साहित्यकार स्वयं के आलावा किसी और को भी श्रेष्ठ मानना तो बहुत दूर की बात है वे उसे साहित्यकार ही नहीं मानते है। दूसरे में कुछ न कुछ बुराई निकालने में लगे रहते है। स्वयं तो कुछ भी नया नहीं लिखते और किसी ने कुछ नया लिख दिया तो उसे साहित्य ही नहीं मानते। उनकी अनेक रचनाएँ गोल्डनजुबली और डायमंड जुबली मना चुकी होती है लेकिन ये वे ही गिनी चुनी दो-चार रचनाएँ ही गोष्ठियों में सुनाकर लोगों के कान पका देते है और किसी ने उनके काव्यपाठ के दौरान बात कि तो उसे इतना बुरी तरह से डाँटते हुए कि अन्य सभी बैठे लोग भय से उनकी झूठी वाह वाही करने लगते है और ये समझते है कि मेरी यह रचना लोगों को बहुत पसंद आ रही है। बस फिर क्या वे एक बार फिर से उसी कविता को दोहराते हुए पढ़ने लगते है बेचारे सुनने वाले पानी-पानी होकर नीचै सिर करके मुहँ बंद करके उनके सटियाने का मजा लेते रहते है।
                ये गरिष्ठ साहित्यकार अपनी गरिष्ठता के कारण साहित्य समाज में अपनी विशिष्टता खोने लगते है और धीरे-धीरे कवि गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों के कम बुलाये जाने लगते या मजबूरी में बुलाये जाते है। तो वहाँ पर अपनी गरिष्ठता का भरपूर प्रदर्शन कर अपने पूरे सटियाने का प्रमाण देते रहते हैं। समझदार संयोजक भूलकर भी फिर उन्हें दोबारा नहीं बुलाता है। 
               अब ये गरिष्ठ साहित्यकार कहीं बुलाये नहीं जाते और कहीं जाने लायक भी नहीं बचे तो घर पर ही सोशल मीडिया पर रोज सुबह से ही एक नये कवि रूपी बकरे की एक पोस्ट पढ़ी और फिर उसमें अपनी गरिष्ठता,मूर्खता और ध्रष्टता का प्रदर्शन करते हुए उसमें जानबूझकर गलत और विवादित टिप्पणी कर दी और फिर मजे से पूरे दिन भर लोगों की प्रतिक्रियाएँ पढ़ते रहे पूरा दिन मजें में काट लिया। आजकल इन गरिष्ठों का रोज का यही क्रम बन गया है। ऐसा करने से उनका पूरा समय आसानी के कट जाता है।
           ये स्वयं को झूट के मोटे आवरण से ढंके रहते हैं और दूसरों के सामने सत्यवादी हरिष्टचन्द्र का वंशज मानते हैं। ये इते धूर्त होते है कि शर्म तो इन्होंने पहले से ही बेच खायी है और उम्र के अंतिम पड़ाव में जहाँ भगवान का भजन करना चाहिए वहाँ पर ये अन्य समकालीनों की निंदा का पाठ नियमित रूप से करते रहते हैं। इससे उनके जीवन भर की प्रतिष्ठा एक क्षण में नष्ट हो जाती है इसे हम उनका ‘सटियाना’ भी कह सकते है। 
           तब अन्य साहित्यकार उनकी इन हरकतों को इग्नोर करने लगते है तो यह इसका भी फायदा उठाने ने नहीं चूकते है। अपनी बचकाना हरकतें आये दिन करते रहते हैं इसके पास तो काम कुछ रहता नहीं है बस समय ही समय रहता है नया सृजन तो कुछ करते नहीं दूसरों की खामियाँ में लगे रहते हैं और सामने वाले का कीमती वक्त खराब करते रहते हैं।
          इस गरिष्ठों को कोरोना तो क्या कारोना का बाप भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता ये तो स्वयं साहित्य के कारोना वायरस है। हाँ दूसरे को जरूर इंफेक्शन फैलाकर उनके साहित्यिक फेैफड़े खराब कर देते हैं सामने वाले का नया साहित्य लिखने का इम्यूनिटी लेविल बहुत कम हो जाता है और उस बेचारे को आॅक्सीजन की जरूरत पड़ने लगती है। वो तो फिर इनसे ‘सोशल डिस्टेंश’ बनाकर अपनी जान किसी तरह से बचा लेता हैं। जिन्होंने इनसे ‘सोशल डिस्टेंश’ नहीं बनायी उनका साहित्य जीवन नष्ट ही हो गया।
           मैं तो इन गरिष्ठोंको दूर से शत्-शत् प्रमाण करता हूँ और उन्हें गरिष्ठ से अपशिष्ट मानते हुए इग्नोर कर देता हूँ। आप भी इन गरिष्ठों के चक्कर में न फंस जाना वर्ना आपका साहित्यिक पतन होते देर नहीं लगेगी ये साहित्यिक वट वृ़क्ष होते है जो कि अपनी नीचे किसी अन्य को कभी पनपने नहीं देते है।
             इनके अंदर मैं (अहम) कूट कूट कर भरा होता है। ये गरिष्ठ लोग किसी को अपने सामने कुछ भी नहीं मानते। ये तो बस ‘अह्म ब्रह्या अस्मि’’ का जाप करते रहते है। ये बात और है कि इनके कर्म रावण या जयचंद्र के समान होते हैं। 
इसलिए हम कहते हैं कि वरिष्ठों का सदा सम्मान कीजिए और इन गरिष्ठों से बचकर रहिए नहीं तो इनकी चपेट मे आकर अपना साहित्यक जीवन से हाथ धो बैठोंगे।
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व्यंग्यकार- राजीव नामदेव "राना लिधौरी"
संपादक- "आकांक्षा" पत्रिका
जिलाध्यक्ष-म.प्र. लेखक संघ टीकमगढ़
अध्यक्ष-वनमाली सृजन केन्द्र टीकमगढ़
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (मप्र)-472001
मोबाइल- 9893520965
Email - ranalidhori@gmail.com
Blog-rajeevranalidhori.blogspot.com

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